Friday, August 15, 2014

कश्मीर समस्या का एक पक्ष

अजेय कुमार का एक बेहद रोचक और स्थापित धारणाओं को एक नया आयाम देने वाला ये लेख  "कश्मीर पर नजरिये का प्रश्न"जनसत्ता में 13/08/2014 को मुख्य सम्पदिकिय लेख के रूप में छपा था. मैं वहीँ से इसे आप सब पाठकों के लिए ले आया हूँ.

जब प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने जम्मू में दिए मोदी के भाषण के सार को यह कह कर दोहराया कि सरकार ने धारा-370 को समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, तो दरअसल वे आरएसएस की दशकों से चली आ रही मांग को ही दोहरा रहे थे। कैबिनेट मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कैबिनेट की बैठक के बाद कहा, ‘हम सही समय पर सही फैसला लेंगे...आप जानते हैं कि हमने चुनाव प्रचार में क्या कहा था।’

एक सच, जो संघ परिवार के प्रवक्ता देश की जनता को कभी नहीं बताते, वह यह है कि जब देश के बाकी राजाओं ने अपने राज्यों में भारतीय संविधान को वैध करार देना मंजूर किया, जम्मू और कश्मीर के हिंदू राजा ने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। जम्मू और कश्मीर रियासत की बागडोर डोगरा राजवंश के हरीसिंह के हाथ में थी।
दूसरा सच, जो आरएसएस ने नहीं बताया, वह है कि ये कश्मीर के मुसलमान थे जिन्होंने पाकिस्तानी हमलावरों का डट कर मुकाबला किया था और कि धारा-370 कश्मीरी जनता और केंद्र सरकार के बीच एक कड़ी के रूप में अस्तित्व में आई।

जम्मू-कश्मीर राज्य में अधिकतर आबादी मुसलमानों की थी, पर वहां का राजा हरीसिंह हिंदू था। राजा धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ जुड़ने का इच्छुक नहीं था। जम्मू-कश्मीर उन रियासतों में से एक थी, जो भारत की संविधान सभा में शामिल नहीं हुई। जो लोग कश्मीर समस्या के लिए नेहरू को दोष देते हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि नेहरू ने राजा हरीसिंह के इस रवैए को देखते हुए चेतावनी दी थी कि किसी भी राज्य के इस तरह के बर्ताव को विरोधी रवैया समझा जाएगा, जबकि मुसलिम लीग ने महाराजा हरीसिंह की जिद को ताकत दी। अंतरिम सरकार (जिसने दिसंबर,1946 में कार्य आरंभ किया था) में मुसलिम लीग के नेता लियाकत अली खान ने यह घोषणा की थी ‘संविधान सभा से किसी भी तरह संबंध रखने से इनकार करने के लिए सभी राज्य पूरी तरह आजाद हैं।’

आजादी मिलने से लगभग दो माह पूर्व 17 जून, 1947 को इंडियन मुसलिम लीग के प्रमुख नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी: ‘परमसत्ता (अंगरेजी शासन) के समाप्त होने पर हिंदुस्तानी रियासतें संवैधानिक और कानूनी तौर पर स्वतंत्र और प्रभुसत्ता संपन्न होंगी, वे अपने लिए जो कुछ पसंद करें उसे अपनाने के लिए स्वतंत्र होंगी, यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है कि वे हिंदुस्तान संविधान सभा में शामिल हों या पाकिस्तान संविधान सभा में या चाहें तो स्वतंत्र रहें।’ यह बयान दरअसल दो दिन पूर्व यानी 15 जून, 1947 को हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पारित प्रस्ताव के बाद आया, जिसमें कहा गया था कि कांग्रेस किसी राज्य के इस अधिकार को स्वीकार नहीं करेगी कि वह स्वयं को स्वतंत्र घोषित करे।

इससे ठीक उलट वर्तमान भारतीय जनता पार्टी के प्रारंभिक रूप ‘अखिल जम्मू और कश्मीर राज्य हिंदू सभा’ के नेताओं का मानना था कि जम्मू और कश्मीर राज्य को ‘हिंदू राष्ट्र’ होने का दावा पेश करना चाहिए और धर्मनिरपेक्ष भारत में शामिल नहीं होना चाहिए महज इसलिए कि उस राज्य का राजा हिंदू है, जबकि 1941 की जनगणना के अनुसार कश्मीर घाटी में मुसलमानों की जनसंख्या 93.45 प्रतिशत थी। इस तथ्य को जानते हुए भी हिंदू महासभा ने राजा हरीसिंह को समर्थन उनके शासन के सांप्रदायिक चरित्र के कारण दिया।
हरीसिंह के शासन में व्यापार, शिक्षा, उद्योग, रोजगार और कृषि में मुसलमानों को बराबर के अवसर नहीं दिए गए। साठ प्रतिशत गजेटेड नौकरियां डोगरों और विशेषकर राजपूतों के लिए सुरक्षित थीं, बेशक उनकी शैक्षिक योग्यता कम थी। महाराजा हरीसिंह के पहले पांच वर्ष के शासन में जो पचीस जागीरें बांटी गर्ईं, उनमें से केवल दो जागीरें मुसलमानों को दी गर्इं। न्यायिक व्यवस्था में यह कानून था कि हत्या के जुर्म में डोगरा को छोड़ कर किसी को भी फांसी की सजा हो सकती है।

इसलिए भाजपा जब जम्मू शाखा के अपने पहले अवतार प्रजा परिषद और महाराजा हरीसिंह की भूमिका को नजरअंदाज करके नेहरू और शेख अब्दुल्ला को कश्मीर समस्या का जनक बताती है तो वह सरासर झूठ बोलती है। सच्चाई यह है कि इन दोनों के साथ-साथ गांधीजी की भूमिका भी बहुत सराहनीय थी।

शेख अब्दुल्ला का ‘कसूर’ यह था कि उन्होंने अपनी इमरजेंसी सरकार के चलते वह जमीन, जो अधिकतर महाराजा और उनके लग्घों-बग्घों के हाथ में थी, जब्त कर ली थी और कोई मुआवजा नहीं दिया था। ये जमींदार अधिकतर हिंदू तो थे ही, उनका संबंध हिंदूवादी विचारधारा से भी था। शेख अब्दुल्ला ने जमीन पर खेती करने वालों की रक्षा के लिए कानून बनाए ताकि उन्हें बेदखल न किया जा सके। उनके कर्जे माफ कर दिए गए, आदि।

यह गौर करने लायक है कि जिस राज्य की पंचानबे प्रतिशत जनता मुसलिम थी, वहां न केवल एक गैर-मुसलिम, बल्कि एक गैर-कश्मीरी का शासन था। साथ में, उसका नजरिया फिरकापरस्त था, इसलिए कश्मीरी जनता से उसका जुड़ाव होने का कोई प्रश्न न था। जब अब्दुल्ला ने 1946 में राजा के शासन के विरुद्ध ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ का नेतृत्व किया तो उसने कश्मीरी मुसलमानों की धार्मिक, क्षेत्रीय और जनतांत्रिक आकाक्षांओं को संतुष्ट किया। आरएसएस-भाजपा पूरे देश में यह फैलाते हैं कि वहां विभाजन रेखा इस्लाम है।

यह झूठ है, यह विभाजन रेखा कश्मीरी से गैर-कश्मीरी शासन का बदलाव है। नेहरू अपने को हमेशा कश्मीर का बेटा कहते थे और इस ‘कश्मीर छोड़ो आंदोलन’ से जुड़ने की खातिर वे कश्मीर पहुंचे थे, जहां उन्हें पुलिस ने दाखिल होने से रोका और इसमें उन्हें चोटें भी आई थीं। कश्मीर में नेहरू की लोकप्रियता का दूसरा कारण था कि उन्होंने शेख अब्दुल्ला के वकील के रूप में काम किया, जबकि उन पर हरीसिंह ने ‘राजद्रोह’ का मुकदमा ठोका था।
नेहरू पर जनसंघ के प्रमुख श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कुछ कांग्रेसी नेताओं का भारी दबाव था कि कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय हो, धारा 370 समाप्त की जाए, आदि। पर नेहरू ने कहा, ‘हमें दूरदृष्टि रखनी होगी। हमें सच्चाई को उदारतापूर्वक स्वीकार करना होगा। तभी हम कश्मीर का भारत में असली विलय करवा सकेंगे। असली एकता दिलों की होती है। किसी कानून से, जो आप लोगों पर थोप दें, कभी एकता नहीं आ सकती और न सच्चा विलय ही हो सकता है।’
कश्मीरी लोग गांधीजी से भी प्रभावित हुए जब उन्होंने एक अगस्त, 1947 को कश्मीर के अपने दौरे के दौरान कहा कि जब पूरे भारत में सांप्रदायिक झगड़े हो रहे हैं, कश्मीर रोशनी की एक किरण की तरह है। शेख अब्दुल्ला ने, यह जानते हुए कि पाकिस्तान एक सच्चाई बन चुका है, न केवल भारत, बल्कि पाकिस्तान की सरकार के साथ भी बातचीत का सिलसिला शुरू किया। पाकिस्तान का रुख दोस्ताना न था। यह बातचीत चल ही रही थी कि पाकिस्तान ने बंदूक की ताकत से कश्मीर का भविष्य तय करना चाहा। पाकिस्तान के कबायली छापामारों के हमले से डोगरा सेना पिछड़ गई और इस तरह कश्मीर की आजादी और पहचान को खतरा पैदा हो गया। इन छापामारों के विरुद्ध स्वाभिमानी कश्मीरियों का क्रोध भड़क उठा। महाराजा के पास हिंदुस्तान से मदद मांगने के अलावा कोई चारा न था। कश्मीरी मानसिकता भी हिंदुस्तान के नेताओं के पक्ष में थी।

भारत सरकार ने राज्य सरकार पर दबाव डाला कि वह भारतीय संविधान की अधिक से अधिक धाराएं वहां लागू करना स्वीकार करे। इसमें कड़ी सौदेबाजी हुई और जुलाई 1952 को शेख अब्दुल्ला और नेहरू के बीच समझौता हुआ जिसे ‘दिल्ली समझौता’ के नाम से जाना जाता है। इस समझौते की पहली शर्त थी ‘धारा 370 के प्रति प्रतिबद्धता’, जिसके अनुसार रक्षा, मुद्रा, विदेशी मामले और संचार को छोड़ कर अन्य सभी विषयों पर निर्णय लेने का पूरा अधिकार कश्मीर की सरकार को था। एक प्रावधान यह भी था कि कश्मीर का अपना अलग राजकीय ध्वज होगा, पर तिरंगे को अलग और विशिष्ट स्थान देते हुए ही राजकीय ध्वज फहराया जा सकेगा। इसी तरह सदरे-रियासत केंद्र द्वारा मनोनीत न होकर राज्य विधायिका द्वारा निर्वाचित किया जाएगा जिसमें भारत के राष्ट्रपति की सहमति अनिवार्य रूप से लेनी होगी।

इन तमाम मुद्दों पर सहमति के कारण ही आज जम्मू और कश्मीर भारत का राज्य बना हुआ है। मोदी ने तो अपने प्रचार अभियान के दौरान ही धारा 370 पर राष्ट्रीय बहस की मांग कर दी थी और प्रश्न किया था कि ‘इससे किसे लाभ हुआ?’ सरकार के गठन के बाद अरुण जेटली और सुषमा स्वराज ने तो कश्मीर में 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग ही कर डाली।

यूपीए सरकार ने कश्मीर की स्थिति का जायजा लेने के लिए दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एमएम अंसारी के एक दल को कश्मीर भेजा था जिन्होंने मई 2012 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी। इस रिपोर्ट में 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने की मांग खारिज की गई है। साथ ही इसमें सिफारिश की गई है कि कश्मीर को वह स्वायतत्ता दी जानी चाहिए, जो उसे पहले प्राप्त थी। उनका यह सुझाव था कि मामला अगर कश्मीर की आंतरिक या बाहरी सुरक्षा से संबंधित न हो, तो संसद को इस संबंध में कोई कानून बनाने की पहल नहीं करनी चाहिए। यह भी कहा कि राज्य के प्रशासनिक तंत्र में कोई भी बदलाव लागू करने से पहले, स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इस दल ने धारा 370 को ‘अस्थायी’ के स्थान पर ‘विशेष’ प्रावधान का दर्जा देने की भी सलाह दी। वित्तीय ताकत से लैस क्षेत्रीय परिषदों के गठन की सिफारिश भी इस दल ने की। सीमा पर तनाव घटाने के उद्देश्य से हुर्रियत और पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू करने का सुझाव भी इस टीम ने दिया।

यह रिपोर्ट फिलहाल ठंडे बस्ते में है। मोदी सरकार अगर सचमुच कश्मीर मसले को सुलझाना चाहती है तो सबसे पहले उसे धार्मिक राष्ट्रवाद के चश्मे से कश्मीर समस्या को देखना बंद करना होगा। धारा 370 पर बहस हो सकती है, पर इस बहस के केंद्र में कश्मीरियों की इच्छाएं रखनी होंगी। जम्मू, कश्मीर और लद््दाख क्षेत्रों की अपनी-अपनी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करते हुए उन्हें अधिक से अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता देनी होगी। कश्मीरियत के लिए संघर्ष और जेहाद में फर्क को समझना होगा।
दंभपूर्ण आक्रामक तेवरों से न कश्मीर की जनता का भला होगा, न देश का।


Saturday, June 28, 2014

एक वैकल्पिक का संधान और खोज !

मेरी कई महिला दोस्त हैं. जब वो कहीं मुसीबत में फंस जातीं हैं. जैसे किसी ने उन्हें छेड़ दिया या फिर गलत-सलत कहा हो तब वो फर्राटेदार गालियाँ देती हैं. हवा निकल देतीं हैं. सामने वाले की. बड़ी खुशी होती है, ये देख कर. सामने वाले चेहरे पर डर और अपने दोस्तों के चेहरे पर खुशी देख कर. पर एक दुःख भी होता है कि जो भी गाली इन लोगों ने दी है. वो सब गालियाँ इसी महिला विरोधी मर्दवादी समाज और मानिसकता के द्वारा गढ़ी गयी हैं. जहां सामने वाले की माँ, बहन, बेटी के साथ जितनी हैवानियत को शब्दों से चित्र खीच सकों उतनी ही असरदार गाली होगी. 

मैं अपनी महिला मित्रों से जब इस बारे में कहता हूँ यार तुमने तो सामने वाले की माँ, बहन, बेटी को गालियाँ दी हैं. उस इंसान को कुछ भी नहीं कहा. तुमने अपने शब्दों में उनकी माँ, बहन, बेटी के साथ हैवानियत का खाका खीचा है. इसमें उन बेचारियों का क्या दोष. वो भी तो तुम्हारी तरह ही है. इस जकड़े हुए समाज के बेहद कटीली जकड में. 

तो वो मुझसे कहतीं है... ओएई!  रहने दे अपना ज्ञान..गुस्सा आया. जो मुंह से निकला कह दिया. मैं अशांत हो जाता हूँ.  मैं तर्क करता हूँ. इस गुस्से और गुस्से को दिखने के तरीके को भी तो दुश्मन व्यवस्था ने ही बनाया है. तुम उनके नियम, उनके तरीके पर चल कर उनका ही काम कर रही हो. तुम ये गलियां दे कर समग्र महिला समाज को गाली दे रही हो. बेहतर होगा कि तुम लोग पुरषों पर गालियाँ बनाओं. तुम उनपर अत्याचार और दर्पमर्दन का दृश्य गढो. तुम उनके उस अहम पर चोट करने वाली गलियां बनाओ जो उन्हें हर पल ये अहसास करता रहता है कि वो महिलाओं से बड़े हैं. सक्षम है. वो मालिक है महिलाओं की तकदीर के. उनके पास सुरक्षित है उनकी बहन बेटी और माँ की तकदीर की कुंजी. तुम कुछ जलता हुआ क्यों नहीं गढती तो जला दे उनके भीतर के मर्द को. अगर जला नहीं पता तो असहज तो कर ही दे. 

तुम जाने अनजाने में खुद की ही चेतना पर वार करती हो. तुम अपनी गालियों में महिलाओं पर, अपनी सहयोद्धाओं पर ही तो हमला बोलती हो. हिंसक होती हो. अपनी लड़ाई और अपनी जमीन पहचानो यार. ये लड़ाई किसी के छेड़ने या गलत-सलत कहने पर उपजे हुए गुस्से की अभिव्यक्ति की लड़ाई नहीं है. ये सम्पूर्ण मर्दवादी व्यवस्था, सोच और संस्कृति के प्रतिकार और प्रतिरोध की लड़ाई है. यहाँ हमें अपने गुस्से का रंग, रूप, कला और कलेवर खुद ही गढना होगा. उसे अभिवक्त करने का भी तरीका भी हमारा अपना होगा उनसे बिलकुल अलग, रचनात्मक और सार्थक. हम हिंसा के पक्ष में नहीं है पर हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा में देंगे. ये प्रतिहिंसा समानता के महान उद्देश्य के लिए होगी. ये रचनात्मक प्रतिहिंसा होगी. 

मैं इतना सब कुछ कहता हूँ और मेरी वो सब महिला मित्र चुप-चाप सुनती रहतीं है. फिर मुझे वाह! नेता जी! कह कर बात को हवा में उड़ा देतीं हैं. मैं भी हँसने लगता हूँ पर फिर बाद में वही लोग मुझे अपनी डायरी में मर्दों पर लिखी हुई गाली ला कर दिखाती है. इस गाली का कोष बढ़ता जा रह है. ये आपस में लड़कियां बांटने भी लगी हैं इन गलियों को. इन गलियों का प्रसार होता जा रह है. गज़ब का गुस्सा है इन गलियों में. गज़ब का दर्द. मर्दों के अत्याचार और हिंसा के खीचे सारे चित्र छोटे पड़ते हैं इस गलियों के दृश्यों के आगे. ये वैकल्पिक गलियां है. ये वैकल्पिक गुस्सा है. एक वैकल्पिक व्यवस्था के निर्माण प्रक्रिया का हासिल. एक सोच और संस्कृति का रूप धरता हुआ कौंधता हुआ क्रोध ! बड़ा सुकून देता है इस वैकल्पिक का संधान और खोज. 

तुम्हारा अनंत 

Friday, June 27, 2014

कल्पना, अनुभूति, समय और हम !!

कैसे बदलता रहा है हमारा संसार, हमारी अनुभूति और कल्पनाओं में सतत. इस बदलाव को हम कभी समझ नहीं पाए, कभी भांप नहीं पाए और ये बदलाव वैसे ही होते रहे जैसे चलती रहतीं हैं साँसे और धडकती रहतीं हैं धड़कने.

हमारे नियंत्रण के बाहर जीवन के बदलावों का एक संसार होता है.जहाँ समय शासन करता करता है, बिलकुल तानाशाह की तरह. हम हर बार अमेरिका बन कर घुस जाना चाहते हैं उसकी सरहदों के भीतर, सब कुछ अपने नियंत्रण में करने के लिए, मन माफिक रचने और गढ़ने के लिए, पर समय क्रांतिकारी होता है, बहुत ही क्रन्तिकारी, वो सामंती और साम्राज्यवादी शक्तियों के सामने नहीं झुकता, इसलिए मुझे हर बार हारना पड़ा है और मन, समय के अनियंत्रित संसार में, मातम की मजार पर कौव्वाली करने को अभिशप्त रहा है. समय जैसे चाहता है. हमें चलाता है, हमारा जीवन गढता है, बिगाड़ता है. हम बस साथ साथ चलते हैं. उजड़ते हुए. बसते हुए, बनते हुए, बिगड़ते हुए.

जब छोटे थे, मतलब बच्चे, तब मन करता था बड़े हो जाएँ, समय ने एक भी नहीं सुनी और हम रोते रोते, टिनटिनाते हुए स्कूल जाने को अभिशप्त रहे. तब हमारा संसार कामिक्स के गढे हुए चरित्रों के आस पास घूमता था. तब दिल इंजिनियर, डाक्टर, प्रोफ़ेसर और पत्रकार नहीं बल्कि शक्तिमान और चाचा चौधरी बनना चाहता था.

हमसे कोई पूछता कि किससे शादी करोगे तो कभी कहते पापा से करेंगे, कभी मम्मी का नाम ले लेते, कभी दीदी का. मतलब जो सामने आ जाये उसी का नाम ले लेना है. क्योंकि शादी की जो कल्पना और परिभाषा आज दिमाग में उभरती है तब उसका नामो-निशान नहीं था. तब शादी का मतबल किसी को बेहद प्यार करना था और प्यार का मतलब एक पप्पी दे कर कभी आइसक्रीम, कभी चाकलेट झटक लेना.

जीवन की अनुभूतियाँ रूई की तरह कोमल थी और कल्पनाएँ एकदम पारदर्शी. कोई रंग नहीं था उन कल्पनाओं का. इच्छाओं की सबसे ऊंची उड़ान फन पार्क में मस्ती, मेले के झूले, खूब सारी चाकलेट और आइसक्रीम तक जाते-जाते दम तोड़ देती थी. तब लड़की सिर्फ लड़की होती थी. वो दिमाग में कोई चित्र नहीं बनाती थी. न कोई तर्क, ख्याल, जज्बात और परिभाषा कौंधती थी लड़कियों को देख कर. हाँ माँ के कहे कुछ बाक्य जरूर गूंजते थे दिमाग में, लड़कियों की तरह क्या रोता है, क्या नाच रह हो लड़कियों की तरह, क्या डरते हो लड़कियों की तरह...सो लड़की मतलब रोने वाला, डरने वाला, नाचने गाने वाला कोई इंसान था.

हम लड़कियों से दोस्ती करते थे, चुटिया पकड़ का खींचते थे. कुस्ती लड़ते थे साथ में, वो भी मोहल्ले में हनुमान जी की मंदिर में, शाम सात से रात साढे-आठ बजे तक, वो भी एक शर्त के साथ कि चलो तुम हनुमान जी से शक्ति मांग लो, मैं नहीं मागूंगा फिर भी तुम्हे हरा दूंगा.

मैं लड़का था सो कहीं न कहीं ये भीतर बैठने लगा था कि बिना किसी सहारे के लड़किया लड़कों के बराबर नहीं हो सकतीं. ये भ्रम तब टूट जाता था. जब रीना लड़ने के लिए आती थी. कोई लड़का तैयार नहीं होता था. दारा सिंह की बहन थी वो, वो कहती थी तुम चाहो तो सारे देवी देवता से शक्ति मांग सकते हो, मैं नहीं मागुंगी और तुम्हे हरा दूंगी. मतलब बत्तीस करोड़ देवी देवता के साथ परास्त करने का दवा करती थी रीना. पूरी महिला भीम अवतार. कई बार दो तीन लड़के मिल कर लड़ते थे और हार जाते थे.

ऐसी पहलवान लड़की भी प्यार में हार गयी. पिछले बार जब घर गया था. मम्मी ने बताया की रीना ने प्रेमविवाह कर लिया था, सब की नाक कटाई थी और देखो जला कर मार डाला सबने, कोई केस भी नहीं कर पाए, घर वाले. मरने के छ: महीने बाद बताया कि लड़की खाना बनाते हुए मर गयी. मैं सोचने लगा कितने लोगों ने मिल के जलाया होगा रीना को, पूरा परिवार साथ मिला होगा और उनमे से हर एक ने सारे देवी देवताओं से ताकत भी ली होगी. तभी उसे मार पाए होंगे दरिंदे. लड़कियों को माल ही समझते हैं साले.

मैं रोना चाहता था पर माँ सामने थी वो कहती, लड़की है क्या जो रो रहा है ? इसलिए चुप ही रह गया. बहुत मारने की कोशिश करता हूँ भीतर के मर्द को, पर मरता ही नहीं, न जाने किस बेहया माटी का बना है ये. रीना की अनुभूतियाँ कैसे बदलीं होंगी. उसकी कल्पनाओं में क्या उभरा होगा. क्या दर्ज किया होगा उसने अपने दिल में. कैसे शासन किया होगा समय तानाशाह ने उसके जीवन के निर्णायक, पर अनियंत्रित क्षेत्र में मैं सोचना, समझना चाहता था. पर कैसे न मैं कोई लड़की था और न रीना ही जिन्दा थी. खैर कुछ देर रीना के दर्द के साथ रहा फिर दुनिया में लौट आया. जहाँ समय का शासन था.

बचपन में भूख की माप एक बित्ता थी. माँ कहती थी एक बित्ता पेट है मेरा, जितना पेट था उतना ही भूख थी. सुकून का चेहरा अलिफलैला, अलादीन, शक्तिमान, अंकल क्रूज, विन्नी दा पू, और दानासुर से मिलता था. दौलत का मतलब एक सिक्का था. जिसे दूकान में दे देने पर चाकलेट मिल जाये. सौ की गांधी छाप नोट बर्बाद कगाज का टुकड़ा था हमारे लिए, क्योंकि कभी खुद खर्च ही नहीं किया उसे, कोई मेहमान दे कर जाता और वो छिन जाती. मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि क्यों मैं गाँधी जी को पसंद नहीं करता या पाता, तो बहुत सारे कारणों में मुझे ये भी एक कारण लगता है. जैसे जैसे बड़े होने लगे चारो तरफ और हमारे भीतर भी बदलाव आने लगे.

जिनके साथ हम खेलते थे उन लड़कियों ने जैसे ही दुप्पटे लिए, उनकी परिभाषा बदल गयी. मोहल्ले के ही जो चाचा, भाई कल तक बिटिया कहते थे अब बिजली, माल, कातिल, कट्टो, बिल्लो, छामक्छल्लो, और तूफानी कहने लगे थे. उनकी नजरें अब मेरी दोस्तों के शरीर पर महज दो जगह पर अटक जाती थीं. वो लड़कियां थीं इसलिए वो जल्दी बदल गयीं थी बहार से भी और भीतर से भी. अब वो हमारे साथ कुस्ती करना तो छोडो हाँथ पकड़ कर भी बात नहीं करती थीं. उनमे से कईयों ने तो घर से निकलना और बात करना भी छोड़ दिया था.

मैं ये नहीं समझ पाया था क्योंकि मैं उन अनुभूतियों और कल्पनाओं से नहीं गुजर रह था जिससे वो गुजर रहीं थीं. उनके लिए आदमी मतलब दरिंदा होने लगा था. जब वो घर से बहार निकलती थी तो उनका सारा ध्यान खुद के शरीर पर ही रहता था. चाल कैसी है? कपडा कैसा है ? मैं ढकी हूँ ठीक से कि नहीं ? मेरे उभार तो नहीं दिख रहे हैं ? ये सवाल वो लगातार खुद से पूछती रहती थी दिन रात, उन दिनों.

उन लड़कियों को उन कथित भाई और चाचाओं की आँखों में हवस का महाकाव्य लिखा जाना साफ़ दीखता था. उनकी कल्पनाओं में बेहद डरावने चित्र उभरने लगे थे और हर परिचित-अपरिचित आदमी उनकी कल्पनाओं में उन्हें नोच लेना चाहता था. इसलिए उन्होंने खुद को कैद कर लिया था खुद के ही घर में. मुझे कभी मौका नहीं मिला उन लड़कियों से ये पूछने के लिए कि भूख का क्या मतलब था उनके लिए उन दिनों, प्यार का रंग क्या था. सुकून का चेहरा कैसा था. जीवन क्या था उन दिनों. रिश्तों कि क्या परिभाषा थी तुम्हारे लिए. कैसा गढा था उस तानाशाह समय ने तुम्हारी कल्पनाओं और अनुभूतियों का संसार. खैर जब मैं उम के उस पड़ाव पर पहुंचा. जहाँ मेरी दोस्त लड़कियां पहले पहुँच चुकीं थी. तब शायद मैं जवान हो रह था. संसार के लिए मेरी अनुभूति, कल्पना और परिभाषा सब बदलने लगी थी.

मैं जब जवान हो रह था तब मैंने पाया मेरे भीतर और बहार सब कुछ बड़ी तेजी से बदल रह है. मेरी कल्पनाओं के भी दृश्य और चित्र बदलने लगे थे. भूख की परिभाषा और माप दोनों बदल रही थी. भूख के दायरे में अब पूरा शरीर आ गया था. दौलत से ले कर ताकत तक सब कुछ खा जाना चाहता था मैं. मेरी आवाज जब से मोटी हुई थी. मैं दहाडना चाहता था ऐसे जैसे सारा संसार मुझसे डरने के लिए तैयार बैठा है.

जिन माँ-माप के डांटने पर मैं पैंट गीली कर देता था. उन्हें भी डराने लगा था मैं. मनुष्यों खास तौर पर लड़कियों के शरीर को देखने का नजरिया बदलने लगा था. अब सोचता हूँ तो लगता है कि वो मोहल्ले के चाचा और भईया टाइप लोग मेरी आँखों में छिप कर बैठने लगे थे. इलहाबाद में दारागंज के रहने वाले थे. सो कट्टा और बाम बनाना सीख लिया और जब कट्टा साथ होता था तो खुद को बराक ओबामा समझते थे हम लोग. जाने अनजाने अब हम भी लड़कियों में कट्टो, बिजली, तूफ़ान देखने लगे थे. अब हमारी इच्छाओं की उड़ान सारा संसार नाप लेना चाहती थी. जो कुछ भी हमने आँखों से देखा था. हम भोग लेना चाहते थे. समय सब कुछ बदल रह था. शक्तिमानो, चाचा चौधरियों, अलादिनों को अब मेरी कल्पना में जगह नहीं मिलती थी. वहाँ अब सचीन, सलमान, शाहरुख बसने लगे थे. सब कुछ बदल गया था. और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था. समय का निरंकुश शासन था.

पर जब मैं इलहाबाद विश्वविद्यालय गया और वहीँ पहली बार मैंने मार्क्स का नाम सुना, एक संगठन था वहाँ, नाम नहीं बताऊंगा, क्योंकि नाम में क्या रखा है. उसने मेरे सोचने और समझने का तरीका बदल दिया. मुझे समाज में फैली हुई गुलामी, जकडन और बेडियाँ साफ़ दिखने लगीं. मुझे दिखने लगा शरीर के उस पार भी कुछ है. जिसे भावना कहते है, संवेदना कहते हैं. दर्द के इतिहास और अन्याय के भूगोल को मैं समझने लगा था. मुझे अपनी उन पुरानी दोस्तों का दर्द जिन्दा दीखता था. वो मुझसे बातें करत था. मुझे मेरा छोटापन दिखने लगा. गुलामी का दूत बना, मैं गुलामों की तरह गूम रह था. आज भी घूम रह हूँ. पर गुलाम नहीं हूँ. लड़ता हूँ हर पर अपने भीतर उभरती हुई कल्पनाओं से अनुभूतियों से, उस निरंकुश तानाशाह समय से. गुलामी और जंजीरों से.

जीवन की परिभाषा और शक्ल बदल चुकी है और लगातार बदल रहीं हैं. पर इस बार लड़ाई है. हम समय के युद्ध बंदी है इस बार गुलाम नहीं. जीत की राह पर कुर्बानियों की लकीर खीच रहें हैं हम. ये लकीर ही वो निशाँ होगी जिसे देख कर हम जैसे लोग आयेंगे. वहाँ, जहाँ लड़कियां महज शरीर नहीं होंगी. उनकी काया के भूगोल के उस पार जा कर हम उनके दर्द का इतिहास हम बांच सकेंगे. हमारी भूख की माप एक बित्ता ही होगी और हमारी कल्पनाओं में हम हिंसक और अत्याचारी नहीं होंगे. इसी उम्मीद के साथ समय के खिलाफ विद्रोह कर रखा है हमने, एक दिन वो सुबह आएगी. जब समय के सभी युद्ध बंदी रिहा होंगे.

तुम्हारा- अनंत 

Sunday, June 15, 2014

सब कुछ खूबसूरत नहीं है !

कई बार सोचता हूँ कि क्या कोई कहानी सारी सच्चाई, सारा दर्द, सारी वेदना और सारा यथार्थ बयां कर सकती है. कुछ न कुछ हर बार छूटना नियति है और ये नियति है इसीलिए शायद एक अलग और नई कहानी की सम्भावना बनी रही है कुछ अलग, नया और छुटा हुआ कहने, दिखाने और जीने का ये सिलसिला चलता रहा है. शायद जीवन इसी का नाम है. जीवन की बहुत सारी परिभाषाएं हैं. उनमे से एक परिभाषा ये भी है कि जीवन की कोई परिभाषा नहीं हो सकती, वो एक अपरिभाषित परिभाषा है.

पिता के बारे में सोचते हुए अक्सर मैं सच्चाई, यथार्थ, जीवन, वेदना और कहानी के बारे में सोचने लगता हूँ. पिता जी की तस्वीर आँखों में उतरती तो है पर उसका नाम पिता नहीं होता. वो जीवन होती है. जिसके कई क्रूर रंग हैं और अँधेरा जिसका सबसे पसंदीदा लिबास है. पिता जी के बारे में सोचते हुए, कहते हुए मेरे होंठो पर मुस्कान होती है पर बेहद झूठी, इतनी कि कोई भी कह दे कि ये मुस्कान दर्द की बहन है. नहीं याद आता कुछ भी ऐसा कि जिस पर आह न कह सहूँ. कुछ नहीं सोच पाता ऐसा कि थोडा चैन आये. कुछ झलकियाँ मिलती हैं यहाँ-वहाँ से पर बेहद न काफी, इतनी कि रेगिस्तान के प्यासे को आंसू की बूँद मिली हो पीने के लिए. सब कुछ ऐसा कि कुछ कहने को जी ही नहीं करता. हिजरत करते सपने और एक बिखराव, एक संघर्ष, जमीन में लेटे, सोते लोग, गाली बकते चेहरे और हिकारत से देखती आँखें दिखती है. और पिता जी इन सब के बीच ओझल रहते हैं.न जाने कहाँ होंगे वो शायद गंगा जी के किनारे, या फिर कहीं और पता नहीं. कुछ दिन पता करने की कोशिश की पर फिर सोचा कि क्या फायदा पिता जी ने अपनी दुनिया बना ली है. हमें अपनी दुनिया बना लेनी चाहिए.

मैं बचपन याद करता हूँ तो ज्यादा कुछ याद नहीं आ पाता, चाय बेचते दो छोटे बच्चे याद आते हैं, जिन्होंने चाय भी ऐसी बनाई है जिसे चाय नहीं कहा जा सकता. कुम्भ मेला याद आता है और एक बेचैनी जो अपनी परिभाषा पाने के लिए बेक़रार है. बार बार यही दीखता है. दो छोटे लड़के परेड मैंदान में दोहरा बेचते हुए दीखते हैं, एक दूकान दिखती है और रेलवे स्टेशन, इस सब के बीच लोगों के तेज नज़र छीलती, भेदती रहती है. पिता जी यहाँ भी कही नहीं दीखते है. उनका नाम है वो नहीं है. हम हैं और हमारे साथ है हमारी माँ और उसके सपने.

सब कैसे लिखते हैं न कि पिता का अर्थ है एक छत, जो जीवन की सारी धूप और बारिश खुद झेल कर जीवन का बसंत अपने बच्चों को खाते में लिखता है. कैसे पिता को बरगद कहते है सब और मैं देखता हूँ शून्य में, जैसे वहाँ कुछ दिख जाये जिससे मैं उनके कहे का मतलब समझ सकूं. उनकी परिभाषा मेरी परिभाषा से मेल नहीं खाती. और न उनके पिता मेरे पिता जैसे हैं. शायद दुनिया के सारे पिता एक जैसे नहीं होते. मेरा जिया बदसूरत है इसका मतलब सबका होगा. मैं न ऐसा कह रहा हूँ और न ऐसा कभी कहूँगा. पर मैं ये जरूर कहना चाहता हूँ कि सब कुछ खूबसूरत नहीं है और जो खूबसूरत नहीं है मैं उसे खूबसूरत नहीं कह सकता.

तुम्हारा अनंत 

तुम्हारी सदिच्छा और मेरे सरोकार !!

धर्म की जय हो,
अधर्म का नाश हो.
प्राणियों में सद्भावना हो,
विश्व का कल्याण हो......वो ये कह रहे थे और मैं सोचा रहा था कि ये कौन तय करेगा कि धर्म क्या है और अधर्म क्या ? सद्भावना की परिभाषा को किस कसौटी पर कसा जायेगा.कल्याण के क्या मानक होंगे और कल्याण कैसे किया जायेगा.

धर्म की जय के लिए ही तो तालिबान अफगानिस्तान और पाकिस्तान में इंसानी जिंदगी के सारे रंगों को बेरंग कर देना चाहता है.धर्म की जय के लिए ही मलाला युसूफ जई को गोली मारी गयी थी, केनिया के एक मॉल कई निर्दोषों की हत्याएं कर दी गयीं थी. धर्म की जय के लिए ही गूंजे थे नारे "अभी तो बस ये झांकी है आगे मथुरा, काशी है" और एक पुरानी आस्था की जर्जर ईमारत को गुलामी का प्रतीक कहते हुए धराशाही कर कर दिया गया था. धर्म की जय सुनिश्चित करने के लिए ही तो पूरा उपमहाद्वीप जल उठा था, और न जाने कितनी औरतों को ये जताया गया था कि उनका शरीर एक इंसानी देह नहीं है बल्कि एक किला है जिस पर पौरुष का झंडा गाडा जायेगा और धर्म की जय सुनिश्चित की जायेगी. धर्म की जय के नाम पर ही यूरोप में औरतों को जलाया गया था और धर्म की जय के ही खातिर धर्म के विजय दूत दलितों को जानवर से भी बद्दतर जिंदगी खैरात में देते थे.

अधर्म के नाश करने के लिए ही तो अमेरिका घुसा था अफगानिस्तान में, और ईराक में. अधर्म के नाश के नाम पर आपरेशन ग्रीन हंट का अश्वमेघ यज्ञ किया गया. अधर्म के नाश के लिए अभी परम प्रिय मोदी जी भी जंगलों की ओर रुख करेंगे जैसे परम प्रतापी राजा भगवान राम ने किया था और सम्भूक की गर्दन धड से अलग कर दी थी, अभी न जाने कितने सम्भूक तारे जायेंगे, मारे जायेंगे. सब दंतेवाडा के जंगलों में अधर्म के पक्ष में लड़ते हुए तारे जाने, मारे जाने के लिए तैयारी कर रहे हैं.

प्राणियों में सद्भावना फैलाई थी तुमने इराक में, जब अहमदियों की नस्ल खत्म करने पर उतारू था एक तानाशाह, प्राणियों में सद्भावना फ़ैलाने के लिए ही होते रहे हैं गुजरात, मालेगाँव, मुजफ्फरनगर, असाम, मुंबई और भागलपुर के दंगे. सद्भावना के नाम पर ही तो अमेरिका पी रहा है खाड़ी देशों का सारा पेट्रोल और सद्भावना के नाम पर ही सलवा जुडूम ने जन्म लिया है. तुम्हारी सद्भावना से ही प्ररित हो कर गिरजाघरों, मंदिरों और मदरसों में कई मौलवियों, बाबाओं और पादरियों ने हवस के महाकाव्य लिखे हैं. जब तुम सद्भावना की बात करते हो तो मुझे दर्द से चीखती हुई वो माँ दिखती है जिसकी कोख से नवजात बच्चे को निकाल कर तलवार के नेजे पर रखा गया था. मुझे रूप कंवार दिखती है जो तुम्हारी सद्भावना से प्रेरित हो कर खुद को आग लगा लेती है, और हमें उसे सती कहने के लिए कहा जाता है. जब तुम सद्भावना की बात करते हो तो मेरे भीतर बहुत कुछ ठहर जाता है और बहुत कुछ प्रकाश की रफ़्तार से घूमने लगता है और मैं खुद कभी ठहरता हूँ, कभी घूमता हूँ. मुझे कुछ नहीं सुनाई देता सिवाय रोने, चीखने की आवाजों और सद्भावना के अनवरत उच्चारण के. मैं बहुत लाचार और ठगा हुआ महसूस करता हूँ जब तुम सद्भावना शब्द बोलते हो. अलग अलग भाषा में, कभी अरबी में, कभी अंग्रेजी में तो कभी संस्कृत में. पर हर बार उसका असर एक सा ही होता है.

विश्व का कल्याण करने के लिए ही निकले थे, कुछ व्यापारी मिसनरी समुद्री यात्रा पर और दुनिया को गुलाम बना लिया था. इंसानी आजादी उनके लिए एक बेमतलब का शब्द था क्योंकि विश्व का कल्याण करने का ठेका उनके पास था. अफ्रीका के नीग्रों लोगों को इसलिए बैलों सा जोता जाता था क्योंकि विश्व के कल्याण के लिए उसकी दरकार थी. विश्व का कल्याण करने के लिए ही तो पूंजीपति डाल रहें हैं डांके, जल, जंगल, जमीन और जीवन पर. विश्व के कल्याण का मंत्र जपते हुए ही तो हुए थे प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध, और हिरोशिमा, नागासाकी के लोग भी तो भाप बनाकर उड़ा दिए गए थे, विश्व के कल्याण के नाम पर ही. विश्व के कल्याण के नाम पर ही तो यह समीकरण बनाया गया है कि विश्व की सकल सम्पदा मुट्ठी भर लोगों के हाँथ में रहे और बाकी आबादी भूख के भजन गाए.

सुनो तुम रहने दो धर्म की जय का जिम्मा लेने को, तुम अधर्म के नाश की चिंता छोड़ दो.हमारे भीतर की सद्भावना को हमें जीने दो, रचने दो, गढ़ने दो, लिखने दो, कहने दो, उसे अनवरत अविरल बहने दो. तुम उसका आवाहन मत करो, उसके लिए रास्ता मत बनाओ. हमें हमारे कल्याण को खुद ही परिभाषित करना है. हम जनता हैं और जनता जानती है कि उसका कल्याण किसमे है. तुम्हारी सदिच्छा की राजनीति हम समझते हैं. इसलिए हम तुम्हारे धर्म, अधर्म, सद्भावना और कल्याण के माया जाल के खिलाफ अपना विद्रोह दर्ज कराते हैं, और तुम्हारी परिभाषाओं और समझ से अपना नाम ख़ारिज करते हैं.

तुम्हारा-अनंत 

Thursday, June 12, 2014

शिवाजी और मुसलमान !!

'राम पुनियानी' आई. आई. टी. मुंबई में प्रोफेसर थे, और सन 2007 के नेशनल कम्‍यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्‍मानित हैं। - इन्हेने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है. कोहराम.कॉम पर छपा था. इस लेख को कोहराम ने दैनिक ‘अवाम-ए-हिंद, नई दिल्‍ली, बृहस्‍पतिवार 24 सितंबर 2009,पृष्‍ठ 6 से साभार लिया है. ये लेख मैं आपके लिए यहाँ ले आया. आपभी पढ़िए.


शिवाजी, जनता में इसलिए लोकप्रिय नहीं थे क्‍योंकि वे मुस्लिम-विरोधी थे या वे ब्राह्मणों या गायों की पूजा करते थे। वे जनता के प्रिय इसलिए थे क्‍योंकि उन्‍होंने किसानों पर लगान ओर अन्‍य करों का भार कम किया था। शिवाजी के प्रशासनिक तंत्र का चेहरा मानवीय था और वह धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता था। सैनिक और प्रशासनिक पदों पर भर्ती में शिवाजी धर्म को कोई महत्‍व नहीं देते थे।
उनकी जलसेना का प्रमुख सिद्दी संबल नाम का मुसलमान था और उसमें बडी संख्‍या में मुस्लिम सिददी थे। दिलचस्‍प बात यह है कि शिवाजी की सेना से भिडने वाली औरंगज़ेब की सेना नेतृत्‍व मिर्जा राजा जयसिंह के हाथ में था, जो कि राजपूत था।
जब शिवाजी आगरा के किले में नजरबंद थे तब कैद से निकल भागने में जिन दो व्‍यक्तियों ने उनकी मदद की थी उनमें से एक मुलमान था जिसका नाम मदारी मेहतर था। उनके गुप्‍तचर मामलों के सचिव मौलाना हैदर अली थे और उनके तोपखाने की कमान इब्राहिम गर्दी के हाथ मे थी। उनके व्‍यक्तिगत अंगरक्षक का नाम रूस्‍तम-ए-जामां था।
शिवाजी सभी धर्मों का सम्‍मान करते थे। उन्‍होंने हजरत बाबा याकूत थोर वाले को जीवन पर्यन्‍त पेंशन दिए जाने का आदेश दिया था। उन्‍होंने फादर अंब्रोज की उस समय मदद की जब गुजरात में स्थित उनके चर्च पर आक्रमण हुआ। अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के ठीक सामने शिवाजी ने एक मस्जिद का निर्माण करवाया था जिसमें उनके अमले के मुस्लिम सदस्‍य सहूलियत से नमाज अदा कर सकें। ठीक इसी तरह, उन्‍होंने महल के दूसरी और स्‍वयं की नियमित उपासना के लिए जगदीश्‍वर मंदिर बनवाया था। अपने सैनिक अभियानों के दौरान शिवाजी का सैनिक कमांडरों को यह सपष्‍ट निर्देश था रहता था कि मुसलमान महिलाओं और बच्‍चों के साथ कोई दुर्व्‍यवहार न किया जाए। मस्जिदों और दरगाहों को सुरक्षा दी जाए और यदि कुरआन की प्रति किसी सैनिक को मिल जाए तो उसे सम्‍मान के साथ किसी मुसलमान को सौंप दिया जाए।
एक विजित राज्‍य के मुस्लिम राजा की बहू को जब उनके सैनिक लूट के सामान के साथ ले आए तो शिवाजी ने उस महिला से माफी माँगी और अपने सैनिकों की सुरक्षा में उसे उसके महल तक वापस पहुँचाया शिवाजी को न तो मुसलमानों से घृणा थी और न ही इस्‍लाम से। उनका एकमात्र उद्देश्‍य बडे से बडे क्षेत्र पर अपना राज कायम करना था। उन्‍हें मुस्लिम विरोधी या इस्‍लाम विरोधी बताना पूरी तरह गलत है। न ही अफजल खान हिन्‍दू विरोधी था। जब शिवाजी ने अफजल खान को मारा तब अफजल खान के सचिव कृष्‍णाजी भास्‍कर कुलकर्णी ने शिवाजी पर तलवार से आक्रमण किया था। आज सांप्रदायिकरण कर उनका अपने राजनेतिक हित साधान के लिए उपयोग कर रही हैं। सांप्रदायिक चश्‍मे से इतिहास को देखना-दिखाना सांप्र‍दायिक ताकतों की पुरानी आदत है। इस समय महाराष्‍ट्र में हम जो देख रहे हैं वह इतिहास का सांप्रदायिकीकरण कर उसका इस्‍तेमाल समाज को बांटने के लिए करने का उदाहरण है। समय का तकाजा है कि हम संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठें ओर राष्‍ट्र निर्माण के काम में संलग्‍न हों। हमें राजाओं, बादशाहों और नवाबों को किसी धर्म विशेष के प्रतिनिधि के तौर पर देखने की बजाए ऐसे शासकों की तरह देखना चाहिए जिनका एकमात्र उद्देश्‍य सत्‍ता पाना और उसे कायम रखना था।

राम पुनियानी

Monday, June 9, 2014

अगर मुसलमान न होते |


वो कहते हैं कि अगर मुसलमान न होते तो बेहतर था, मैं कहता हूँ कि मुसलमान न होते तो ये देश हिंदुस्तान, हिंदुस्तान न होता. ये जम्बू दीप भारत खंड हो सकता था या फिर आर्यों का आर्यावर्त. लेकिन ये हिंदुस्तान तो कतई नहीं हो सकता था. एक देश जहाँ ब्राह्मण दलितों के कान में सीसा पिघलाकर डाल रहा होता, उनके जीवन के अर्थों में उदासी और बेचैनी के रंग भरता हुआ, विश्वगुरु होने का दंभ भरता या फिर शैव और वैष्णव के खून से धारा को लाल कर रह होता. उत्तर वाले दक्षिण वालों को धर्म समझाते कि अपनी ही भांजी या ममेरी, चचेरी, फुफेरी बहन से शादी करना धर्म के खिलाफ है. ये सनातन धर्म सम्मत नहीं है. तब दक्षिण वाले उन्हें और उनके धार्मिक समझ को नकार देते और फिर तलवारें तय करतीं कि कौन सही कह रहा है और किसकी बात मानी जायेगी.


मुसलमान न होते तो जो सहनशील, क्षमाशील, विनयशील और एकमत हिंदूइज्म दीखता है वो न होता. मुस्लमान न होते तो लखनऊ न होता, इलहाबाद न होता, वो नजाकत और नफासत न होती, भारत की शान लाल किला न होता, प्रेम की परिभाषा ताज महल न होता, चार मीनार न होती, अदब में वो धार न होती. मीर, मखदूम, मोमिन, जोश और दाग न होते, जाँ निसार अख्तर, जावेद, शबाना, युसूफ, गुलज़ार न होते.

अगर मुस्लमान न होते तो उपमहाद्वीप के अखंड संगीत को सुननेवाला अमीर ख़ुसरो न होता, कृष्ण के प्रेम में पागल रसखान न होते, पूरे देश का दर्प तोड़ने वाला कबीर न होता, पूरे उपमहाद्वीप के बेचैन दर्द को आवाज़ देने वाले ग़ालिब न होते.

मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता, असफाक उल्ला खान न होते, अब्दुल हमीद शहीद हो इस माटी में दफ़न न होता, बहादुर शाह जफ़र न होते, बेगम हज़रात महल, चाँद बीबी, चचा हसन न होते. अबुल कलाम आज़ाद, गफ्फार खान, मग्फूर अहमद, मंज़ूर एहसान, आसिफ अली, मौलाना शौकत अली, अब्दुल कलाम न होते, अगर मुस्लमान न होते तो ये हिन्दुस्तान न होता।

वो कहते हैं कि अगर मुसलमान न होते तो बेहतर था, मैं कहता हूँ कि अगर मुगालमन न होते तो ये देश हिंदू पाकिस्तान होता। जहाँ सरियात की जगह मनु स्मृति का निजाम होता। अकबर की निजामी तासीर न होती, सेकुलरिज्म का नाम न होता। अगर मुस्लमान न होते तो ये देश जैसा है, वैसा प्यारा "मेरा हिंदुस्तान" न होता।


अनुराग अनंत 

Sunday, June 1, 2014

अरविन्द ये सबकुछ ड्रामा लगता है !!

अरविन्द का यही ड्रामा सबसे ज्यादा मुझे अप्पति जनक लगता है. इमोशनल अत्याचार कर रहे हो यार ये चिट्ठी बाजी कर के, तुम बार बार क्या राहुल गांधी की तरह त्याग की बंशी बजाते रहते हो, एक तरफ तुम क्रांतिवीर बनते हो और दुसरी तरफ दस दिन जेल जाने पर आंसू बनाने लगते हो. दुहाई देते हो, इस लड़ाई में मैं भूखा रहा, पुलिस से लाठियां खाई, अपमान सहा और अब देखो मैं तिहाड जेल में हूँ.

क्या चाहते हो तुम तुम्हे सत्ता सर पर बैठा कर लोरी सुनाये, अरे जनता के लिए लड़ रहे हो तो ये स्वाभाविक है. उसमे जनता पर ऋण क्यों जताते हो कि देखो मैं त्याग की मूर्ती हूँ. मैंने अफसरी छोड़ी, और आज जेल में हूँ. अरे जनता ने तुम्हे इसी लिए मुख्यमंत्री भी तो एक साल की नौटंकी में ही बना दिया. काम कम कर रहे हो, चिल्ला ज्यादा रहे हो, अरविन्द तुम, ये तुम्हे और तुम्हारी पार्टी दोनों को विनाश की ओर ले जायेगा.

जनता के लिए लड़ने वाले लोग त्याग का रोना नहीं रोते और जो रोते हैं उनकी नियत में काला होता है. वो सत्ता के भूखे होते है. मैंने कहीं नहीं पढ़ा की कभी सुभाष बाबू ने कहा हो कि जनता देखो मैंने तुम्हारे लिए अफसरी छोड़ दी और अब मैं देश दुनिया की ख़ाक छान रहा हूँ. भगत सिंह ने कभी नहीं जताया कि वो जनता के लिए शहादत दे रहे हैं. 

तुम भी एक आम से राजनेता हो, जिसे सत्ता चाहिए, जिसे सरकार बनानी है, जो बहुत जल्दबाज सनही और ओछा है, तुम जब भाषण देते हों तो हर तीसरी बात पर कहते हो मैं इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में अफसर था, मैंने नौकरी छोड़ का महान काम किया. जनता पर अहसान किया जाता देते हो. अरे नौकरी न छोड़ते तो मुख्यमंत्री कैसे बनते, और देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना कैसे देखते.

तुम्हे तो इस बात का गर्व होना चाहिए, कि खुशी से तुमने मानव सम्मान की और सच्चे लोकतंत्र की लड़ाई के लिए संघर्ष का रास्ता चुना है. तुमने एक साधारण तुच्छ जीवन छोड़ कर एक महान लक्ष्य को समर्पित स जीवन जीने का फैसल किया है. तुम एक साधारण जीवन रूपी झोपडी से निकल कर मानव स्वतन्त्रता के लक्ष्य को समर्पित जीवन रूपी महल में रहने आये हो. इस राह पर मिलने वाले हर कष्ट को खुशी से सलाम करो, हंस कर गले लगाओ, त्याग गान मत गाओ. 

क्या तुमने कभी विनायक सेन को ये कहते सुना कि यार मैं तो एक बड़ा डाक्टर था मैं जनता के लिए जंगलों में भटक रहा हूँ, मैं महान हूँ. बहुत ओछी हरकत कर रहे हो यार. यकीन मानों इससे तुम्हारा राजनीति पतन भी हो रह है और तुम लोगों कि नजरों से भी गिर रहे हो. ये सब ड्रामेबाजी कर के.

इस देश में न जाने कितने लोग हैं जो इस पक्षपाती व्यवस्था में सलाखों ने पीछे हैं पर मैंने कभी ऐसा रुदन नहीं सुना. तुम खुद को जरूरत से ज्यादा महान और त्यागी समझने लगे हो, जैसा है बिलकुल भी नहीं है. तुम और तुम्हारी पार्टी भी भारत की अन्य पार्टियों जैसी ही एक पार्टी है, जोड़-तोड़, गुणा-भाग करने वाली पार्टी, सीट बढ़ाने और चुनाव लड़ने वाली पार्टी, सरकार बनाने और गिराने वाली पार्टी. 

मैं तुम्हारे इस ओछे कृत्य की निंदा करता हूँ, जनता पर अहसान जाताना बंद करो, अरविन्द केजरीवाल! वैसे इस बार जो चिठ्ठी तुम भेज रहे हो, उसमे बच्चे समोसे खायेंगे.

अनुराग अनंत
"हिंदुस्तान" दैनिक में प्रकाशित !! 

Tuesday, May 27, 2014

नरेन्द्र मोदी और उनका गिलसिया आशावाद !!

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही भारत ने कुछ ऐसा देखा जैसा उसने कभी पहले नहीं देखा था, जब नरेन्द्र मोदी ने संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेका उस वक्त वो जनता को कोई राजनेता नहीं बल्कि लोकतंत्र के पुजारी से प्रतीत हुए. ये बात अलग है कि संसद के लोकतंत्र और सड़क के लोकतंत्र, के बीच का लोकतांत्रिक द्वन्द और अंतर, उस समय जनता के जहन में नहीं था. इससे आगे जब मोदी अडवानी के “कृपा” शब्द कहने पर रोये तो पूरा देश आंसुओं में बहने लगा. अखबारों, चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह मोदी के आंसूओं का ही समंदर नज़र आया. कहने वालों ने कहा ये अद्भुत है, देश को पहला देशभक्त प्रधानमंत्री मिला है.

भारत का नवयुग इन्ही आंसुओं की स्याही से लिखा जायेगा. मोदी एक राजनेता है, इसलिए उनके आंसुओं की राजनीतिक व्याख्या भी होनी चाहिए पर भारत एक ऐसा देश है जहाँ भावना पर राजनीति बुरी बात मानी जाती है. इसीलिए जब मोदी के आंसुओं की व्याख्या और आलोचना हुई तो लोग हत्थे पर से उखड गए, बुद्धिजीवियों ने समझाने की कोशिश की तो फेसबुक पर भाऊक भीड़ ने भाऊकता के तीर चालाने शुरू कर दिए. किसी खोजी ने एक वीडियो खोज कर शेयर किया, ये दिखने के लिए, कि हिटलर भी अपनी तकरीरें देते समय रोया करता था. पर जब उसने विध्वंस का महाकाव्य लिखा तो मानवता चीख कर रोने लगी थी. मानव मर्यादा की हर एक सीमा इसी भाऊक राजनेता ने पार की थी. क्रूरता के इतिहास में सबसे चमकदार नाम हिटलर भी तो महान वक्ता, कथित देशभक्त और भाऊक व्यक्ति था. वो भी अपने भाषणों में जी खोलकर रोता था. इसीलिए रोना और संसद की सीढ़ियों मत्था टेकना सरल ह्रदय होने का प्रमाण कतई नहीं है, पर भारत में तर्क के पहिये की सारी तीलियाँ पल भर में तोड़ दीं जातीं हैं और विवेक के रथ को आस्था और भाऊकता के दलदल में धसा दिया जाता है. भारत में तर्क और विवेक की यही नियति है. इसीलिए मैं मोदी के रोने की व्याख्या या आलोचना में नहीं जाऊंगा.

मुझे जिस बात ने लिखने को विवश किया वो मोदी रुदन कांड के बाद की घटना है. जिसमे मोदी आशा और विकास के महापर्व में प्रवेश करते हैं. वो उस काल खंड में विकास, उर्जा और आशावाद का मोदीवादी नजरिया पेश करते हुए, एक पानी का आधा भरा, आधा खाली गिलास उठाते हैं, और कहते हैं भाइयों-बहनों! इस दुनिया में इस गिलास को देखने वाले दो किस्म के लोग हैं, एक किस्म के लोग इसे आधा भरा हुआ कहेंगे, और दूसरी किस्म के लोग इस गिलाफ को आधा खाली कहेंगे. भाइयों-बहनों ! मेरा नजरिया तीसरे प्रकार का है. मैं इस गिलास को आधा पानी से भरा और आधा हवा से भरा हुआ देखता हूँ. मोदी ये कहकर देश के सामने आशावाद का मोदी संस्करण पेश करते हैं और पूरे देश की आँखे चमक उठतीं हैं. युवाओं को पारम्परिक आशा और निराशा की परिभाषा के इतर मोदिमयी आशावाद भाता है और एक बार फिर सोशल नेटवर्किंग साइटों और टीवी चैनलों पर मोदीमयी आशा का राष्ट्रीय संचार हो उठता है.

मोदी जी मुझे आपके आंसुओं और आस्था से न कोई वास्ता है और न कोई सवाल. हलाकि इसके पीछे के राजनितिक निहितार्थ मैं समझता हूँ, पर मुझे आपके आशावाद की गिलसिया परिभाषा और नजरिये पर आपत्ति है और मेरा ये लेख भी आपके इसी गिलसिया आशावाद पर संवाद का एक प्रयास है. जब आप गिलास को आधा पानी से भरा और आधा हवा से भरा कहते हैं. 

उस वक्त आप उस सवाल को बहस के परिधि से कहीं दूर फेंक रहे होते हैं, जो देश की अस्सी करोड जनसँख्या पूछ रही है. पसीने में डूबा हुआ किसान और और खून जलाता हुआ मजदूर पूछ रहा है. जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ता हुआ आदिवासी पूछ रहा है, यही कि जिनके हिस्से में पानी है उन्हें हवा से संतोष क्यों करना पड़ रहा है ? उनके हिस्से का पानी कहाँ गया और क्यों इस गिलसिया व्यवस्था में कुछ के हिस्से में पानी और बहुतों के हिस्से में हवा लिखी गयी है ? सवाल ये भी है कि आजादी के पैसठ साल से भी ज्यादा समय में अबतक सब को पानी मुहैया क्यों नहीं कराया गया.

ये सारे सवाल समतामूलक समाज की चेतना से संचालित सवाल है जिन्हें आपका गिलसिया आशावाद, निराशावाद का प्रतीक बताने पर तुला है. आपका गिलसिया आशावाद का ये तर्क एक तिलिस्म गढता है और उस तिलिस्म की चमक में देश का मध्यमवर्गीय युवा अभिभूत अवस्था में पहुँच जाता है. वो भाग-भाग कर फेसबुक पर आता है. आपके कसीदे पड़ता है. आपको नवयुग का नवनिर्मता कहता है. वो इस सच्चाई को देखना ही नहीं चाहता कि आपके इस तिलिस्म ने बड़े ही करीने से असमानता को रेखांकित करने वाले सवालों को हांसिए पर ढकेल दिया है.

इस गिलसिया आशावाद के महापर्व में भी, जो लोग खाली को खाली कहने की कोशिश कर रहें हैं. वो पानी वालों की राजनीति को समझते हैं और उनका सत्ता की हवा वाली खैरतों के प्रति विद्रोह है. उन्हें भी सामान पानी चाहिए जैसे दूसरों को मिला है, मोदी जी ! ये व्यवस्था अगर एक गिलास है तो पानी पर सब का सामान अधिकार होना चाहिए. आप अडानी और आम आदमी के अधिकारो और सीमाओं के अंतर के सवाल पर वर्ग चेतना से जन्मे विमर्श को, पूंजीपति, सर्वहारा से इतर एक तीसरी विमा पर लेजाकर उस निर्जन प्रदेश में बंदी बना देना चाहते हैं. जहाँ विकास और आशावाद के शोर के बीच उसका जनचेतना से सम्बन्ध विच्छेद किया जा सके. मोदी की लहर विकास का शहर, गावों, नदियों, पहाड़ों, जंगलों और जमीनों की कीमत पर बना सके और विरोध के स्वर, देशभक्ति के नारों और मोदी विजय की शंखनाद के तले दबा दिए जाएँ.

मोदी जी ! मुझे गिलास में खालीपन देखने वाले ज्यादा आशावादी लगते हैं क्योंकि वो गिलास के खाली होने की वजह के खिलाफ लड़ रहे हैं और उन्हें इस बात पर यकीन भी है कि एक दिन उनका संघर्ष इस गिलसिया व्यवस्था में सबके लिए पानी सुनिश्चित कर पायेगा. ये संघर्ष का आशावाद है, ये समतामूलक समाज की संकल्पना से संचालित आशावाद है. ये आपके तीसरी विमा वाले तिलस्मी आशावाद और विकास से बिलकुल भी मेल नहीं खाता, बल्कि विद्रोह की मुद्रा में है.

मोदी जी ! देश में आज करोड़ों लोग अपने घर से बेदखल कर दिए गए हैं. वो अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. वो एक तरफ माओवादियों के वैचारिक उन्माद के शिकार हैं तो दूसरी तरफ सत्ता और पूंजीवाद के गठजोड़ के मारे हैं. सैन्यबल उन्हें नक्सली कह कर मार देता है और नक्सली उनकी पुलिसिया जासूस समझ कर हत्या कर देते हैं. एक भयानक संघर्ष और सुनिश्चित मृत्यु ही जैसे उनकी नियति हो चली है. आपका ये गिलसिया आशावाद उनके लिए क्या कुछ कर सकेगा ? आपका विकास मॉडल, अडानीयों और अम्बानियों को एक रुपये में जमीन बाँट कर विकास लाता है. आप नर्मदा पर बाँध किसानों के नाम पर बनाते हैं और उनके जिवंत गाँव पानी में समाधी लेने को अभिशप्त हो जाते हैं पर जब पानी देने की बारी आती है तो नर्मदा का पानी बिजली बनकर आपके विकास के आंकडो को चमकाने का काम करता है और किसान आत्महत्या करने को अभिशप्त पाया जाता है. 

मोदी जी! क्या आपको मालूम है कि देश में खेती लगातार जोखिम का काम होता जा रहा है और किसान खेती छोड़ कर शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं. देश के लगभग 42 प्रतिशत किसान खेती छोडना चाहते हैं. सकल घरेलु उत्पाद में खेती का योगदान लगातार घटता जा रहा है. वो देश, जहाँ किसान को दूसरा भगवान माना जाता है, वहाँ पिछले पन्द्रह सालों में 2.90 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है. आप केंद्र ने नहीं थे, इसलिए मैं आपको इसका दोष नहीं दे सकता पर तस्वीर गुजरात की भी कुछ ऐसी ही है. 

आंकड़े कहते हैं कि गुजरात में 2003 से 2012 के बीच 4874 किसानों ने आत्महत्या की है. लेकिन गुजरात सरकार ने आधिकारिक बयान देते हुए, मात्र एक किसान की फसल खराब होने की वजह से मौत होने की बात कही है. लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही तस्वीर पेश करती है जिसे देख कर गुजरात सरकार के संवेदनहीन रवैये पर अफ़सोस होता है. कृषि पर जब मानव श्रम की निर्भरता कम हुई है ऐसे में लघु उद्योग और कुटीर उद्योग को बढ़ाने की प्रवित्ति होनी चाहिए पर मोदी जी आपकी नीति बिलकुल उलट है. आप बड़े कल कारखाने लगाने पर विस्वास रखते हैं. गांधी आपके लिए पुराने समय की बात हैं. आंकड़े कहते है कि आपके दस साल के शासन में गुजरात में 60,000 से ज्यादा छोटे उद्योग बंद कर दिए गए. गुजरात में श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन होता रहा और सरकार विकास के कीर्तिमान लिखती रही. 

मोदी जी, आपने पूरे देश को रैलियों से मथ दिया. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कमरू कामच्छा तक आपने रैलिय की. पाकिस्तान से लेकर चीन तक को भाषणों में ठिकाने लगा दिया. अमेरिका को अपने चरणों में झुका दिया, सोनिया, राहुल समेत पूरी कांग्रेस पर आप आग बन कर बरसे. ममता से लेकर माया तक, केजरीवाल से ले कर नितीश यादव तक सब को आपने अपने भाषणों में निपटा दिया, पर आपने किसानों की समस्या पर किसी नीति का कोई खाका नहीं खींचा. आपने मजदूरों के हक में श्रम कानूनों को लागु करने के लिए कुछ नहीं कहा. 

आदिवासियों के संघर्ष और संकट पर आप चुप रहे. आप भाषण देते गए, मीडिया की माया विकास की छाया देश भर में फैलता गया और जबतक व्यापक बहस का माहौल बनता तबतक पाकिस्तान चला जाऊंगा, भेज दूंगा जैसे बयानों का समय शरू हो चूका था. अंतिम समय में शोधकर्ताओं और बुद्दिजीवियों ने जब गुजरात के विकास मॉडल की पड़ताल शुरू की तब गुजरात सरकार ने आंकड़े बेवसाईट से हटा लिए. मोदी जी आप राजनीतिक अकाल के युग के प्रणेता हो, जहाँ आपकी जीत नहीं हुई है बल्कि बाकियों की हार हुई है.

असली मुकाबला अब आपका भारत के जन समस्याओं से है, किसान मजदूर और आदिवासियों की समस्या आपके गिलसिया आशावाद और तिलिस्मी विकास से नहीं हल होने वालीं और ये झूझने वाले लोग अपना हक लिए बिना अब मानेंगे भी नहीं. अब इन्हें हवा से संतोष नहीं है, ये अपने हिस्से के पानी की हर एक बूँद का हिसाब मांग रहें हैं. आप कहते हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं, ये कहते है अच्छे दिन आयेगे. दोनों के बीच में संघर्ष है. आपके गिलसिया आशावाद और जनता की समता पर आस्था का संघर्ष.

यह लेख जनज्वार पर नए लोकत्रंत का 'अश्रुपूर्ण' आगमन नाम से प्रकाशित हो चूका है ! 

यह लेख दैनिक भारतीय बस्ती में "नरेन्द्र मोदी का आशावाद और चुनौतियाँ"  शीर्षक से तारीख 2-June-2014 को प्रकाशित  हो चूका है !!



Tuesday, April 22, 2014

विकास के जुमले और यथार्थ की जमीन

विकास आज की राजनीतिक शब्दकोष का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द बन गया है. एक ऐसा शब्द है जिसका कोई अपना स्वतंत्र अर्थ नहीं होता. सापेक्षिक अर्थों वाला ये शब्द हमें आकर्षित करता है और हम इसके बहुआयामी अर्थ के किसी एक आयाम में फँस जाते हैं. आज कहने को तो देश का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है. देश के युवा कह रहे हैंइसबार विकास के मुद्दे पर वोट करेंगे. मोदीराहुलजयललिताममतानितीशऔर अखिलेश यादव सभी के अपने-अपने विकास के मॉडल है और अपनी-अपनी विकास की परिभाषा भी.

विकास के इस सतरंगी समंदर से हमने अपनी पसंद का कोई रंग चुन लिया है और खुद में खुश है. मध्यम वर्ग चमचमाती सड़कोंकंक्रीट के जंगलों और बहुदेशीय कंपनियों में रोजगार के अवसरों का सपना देख रहा है तो गरीब के लिए अभी भी दो वक्त की रोटीसर पर छत और तन पर कपड़े ही विकास है. अमीरों के लिए खनिजों की खुली लूटकिसानों को जमीन से बेदखल कर कारखानों का निर्माण और अंधी आर्थिक दौड़ में अव्वल रहने के लिए खुले बाज़ार की आक्रामक नीति ही विकास का पर्याय है.

विकास की इन उलझी हुई परिभषा से एक सुलझी हुई समझ बना पाना मुश्किल है. सबका अपना अलग-अलग विकास है पर सबके अलग अलग विकास से तो देश का सामूहिक विकास हो नहीं सकता. इसके लिए सबसे पहले सामूहिक और समावेशी विकास की परिभाषा गढ़नी होगी. जिसके लिए विकास पर वृहदचर्चाबहस और विमर्श चलाना पड़ेगा. लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा हैजनता के हांथों में विकास का लॉलीपॉप थमा दिया गया है और जनता उसी में व्यस्त है. सत्ता या यूं कहें राजनीति और पूंजीवाद का गठजोड़ विकास के मुद्दे पर खुली और व्यापक बहस नहीं चाहता क्योंकि इससे उसके निहित स्वार्थ और विस्तार की संभावनाओं पर चोट पहुंचेगी.

नेताओं के भाषणों में खींचा जाने वाला विकास का सतरंगी चित्र जमीनी सच्चाइयों से बिलकुल मेल नहीं खाता. विकास के जुमले यथार्थ की धरातल पर लाचार से दीखते है और विकास के नाम पर बाँधा गया पुल बहुत ही खोखला जान पड़ता है. जिस देश में अभी भी अस्सी प्रतिशत लोग रोटी की लड़ाई लड़ते हों. लगभग 2000 लोग प्रतिवर्ष गरीबी और भूख के चलते अपनी किडनी बेचने पर मजबूर हों. जहाँ गंदे नालों का अस्सी प्रतिशत पानी बिना किसी उपचार के नदियों जल के मुख्य श्रोत में डाल दिए जाते हों और फिर देश के बहुत सारे हिस्सों में वही पानी पिया जाता हो और लाखों लोग बिमारियों से मौत के शिकार हो जाते हों. केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट 2011के अनुसार देश में 8000 शहरों में से केवल 160 शहरों में गंदे पानी की निकासी के लिए उपचार केंद्र है बाकी सारे शहर गन्दा पानी नदियों में बिना किसी उपचार के ही डाल रहे हैं. जिससे जैविक जीवन और प्राकृतिक संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

हमारे देश में प्रतिवर्ष 2.1 करोड़ टन गेहूं भण्डारण की व्यवस्था होने से खराब हों जाता है. जितना गेहूं हमारे यहाँ सड़ जाता है उतना आस्ट्रेलिया जैसे देश साल भर में पैदा कर पाते है. देश में पैदा किया जाने वाला लगभग 40% फल और सब्जियां हर साल भण्डारण की व्यवस्था होने की वजह से सड़ कर खराब हों जातें हैं. हमारे देश का किसान खेतों में खून जला कर ये पैदावार करता है. पर देश की राजनीति की विकास की अलग परिभाषाएं और प्राथमिकताएं होने की वजह से उसका खून और पसीनाउसकी मेहनत सड़ कर खराब हो जाती है और देश का गरीब आदमी भूख से बचने के लिए किडनियां बेचता हुआ पाया जाता है.

विश्व स्वास्थ संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जितने लोग भारत में प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटना में मरते हैं उतने और किसी देश में नहीं मरते. प्रति एक लाख व्यक्तियों में 19 की मौत की वजह सड़क दुर्घटना होती है. ये आंकडें बताते हैं कि देश में सड़क परिवहन की क्या तस्वीर है.   

देश में आज लगभग 3 करोड़ लंबित मुक़दमे विभिन्न अदालतों में पड़े हैं. जिसमे से 40 लाख मुक़दमे देश की उच्च न्यायालयों में और लगभग 66 हज़ार मुक़दमे सर्वोच्च न्यायलय में लंबित पड़े हैं. देश में 19 हज़ार जजों की तत्काल आवश्यकता है पर निकट भविष्य में नियुक्ति होती नहीं दिख रही है. अपराधी अपराध करता है, लचर न्याय व्यवस्था उसे छोड़ देती है और भ्रष्ट राजनीति उसे शरण देकर नीति नियंता बना देती है, क्या यही है लोक तंत्र में न्याय की परिभाषा ?  क्या यही है जनतंत्र में जनता की नियति 

विकास की चमकती परिभाषाओं की नहीं भारत को जमीनी काम की जरूरत है. विकास के जुमलों के बीच ये मुद्दे कहीं नहीं दीखते. राजनेता और राजनीती पार्टियां जमीन की बात करतीं हैं जमीन के लोगों की. विकास के हवाई किले चुनाव में बनाये जाते है जो चुनाव के बाद धराशाही हो जाते हैं और जनता जमीन की जमीन में ही रह जाती है. इसलिए हमें विकास का भारतीय संस्करण और सन्दर्भ गढना होगा. हमें बहुत बेबाकी से जनविकास की परिभाषा राजनीतिक विकास के बरक्स रखनी होगी और राजनीति को जननीति बंनाने के लिए संघर्ष करना होगा. हमें विकास के जुमले में यथार्थ के अर्थ तलाशने होंगे. शिक्षा, स्वास्थ, सुरक्षा, न्याय, परिवहन, भण्डारण और रोजगार वो यथार्थ के पैमाने हैं. जिनपर खरा उतरने के बाद ही कोई और विकास और उसके पैमानों की बात की जानी चाहिए. भारतीय जनता को इस बात को समझना होगा और एक समावेशी विकास की अवधारणा गढ़नी होगी. 

अनुराग अनंत  

यह लेख जनज्वार पर प्रकाशित है लिंक :- जनता के हाथों में कौन से ‘विकास’ का लाॅलीपाॅप?
यह लेख जनसत्ता दैनिक के राष्ट्रीय संस्करण में भी प्रकाशित है लिंक हवाई विकास (तिथि 1 may 2014)