Tuesday, May 29, 2012

ये कैद है कि दिखती नहीं है ..........


पंछीनदिया और पवन के झोंकों की तरह ही हमारा बचपन भी आज़ाद होता है वो न किसी शरहद के बांधे बंधता हैन किसी दीवार के रोके रुकता है और न ही किसी लकीर के बांटे बांटता है. वो जब तक रहता है अपने नैचुरल फ्लो में बहता रहता है और जब बीत जाता है तो हम  जिंदगी के किसी मोड़ पर उसकी याद में  जगजीत सिंह की तरह ..ये दौलत भी ले लोये शोहरत  भी ले लोभले छीन लो मुझसे मेरी जवानीमगर मुझको लौटा दोवो बचपन का सावन,वो कागज की कश्तीवो बारिश का पानी.... गाते हुए पाए जाते हैं. अपनी सारी दौलतशोहरत और जवानी को बचपन के सावनकागज की कश्ती और बारिश के पानी पर वार देने का एक जज्बा रह-रह कर हमारे भीतर से आवाज़ लगता है और हम किसी भी कीमत पर अपने बचपन को फिर से जीने की कभी न पूरी हो सकने वाली तम्मना के साथ जीने को मजबूर होते है. जिंदगी को अगर एक किताब मान लिया जाए तो मैं मानता हूँ की हर किसी का एक ही जवाब होगा कि वो बचपन के चैप्टर को फिर से पढना चाहता है और जिन पन्नो पर बचपन की शैतानियों के किस्से लिखे है उन पन्नो की महक से उसका रोम-रोम आज भी महक उठता है.

बचपन की बात चले और गर्मियों की छुट्टियों का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकताकम से कम मेरे साथ तो नहीं ही होगा क्योंकि  मेरे बचपन में गर्मियों की बहुत सारी यादें हैजिसमे आम के घने बगीचे हैफूलों के बाग़ हैउड़ती हुई तितलियाँ  हैबारिश हैकागज की कश्ती हैलहलहाते खेत हैमासूम से खेल-खिलौने हैखुट्टी-मिल्ली हैनानी-दादी की कहानियां हैचोरी के लड्डू हैझूठी- सच्ची अफवाहें हैगुड्डा-गुडिया हैऔर इन सब के आगे वो दोस्त है जिन्हें मैंने उतनी ही इमानदारी और सच्चाई  के साथ बनाया था. जितनी सच्चाई और इमानदारी के साथ हम साँसे लेते है और पलकें झपकाते है. जैसे पलक झपकने और  सांसों के आने-जाने की हमें कोई खबर नहीं होती और ये बस हो जाते है ठीक उसी तरह मैंने वो दोस्त बनाये नहीं थे बस बन गए थे. मैंने उन दोस्तों में कभी जात-धर्मगरीबी-अमीरीगोरा-कालासेक्स-जेंडर जैसा कुछ देखने या तलाशने की कोई कोशिश नहीं की. वो मेरे लिए बस मेरे दोस्त थे,बस दोस्त. फिर चाहे वो प्रधान जी का बेटा हो या फिर घर काम करने वाली आई की बेटी हो मेरे लिए सब बार बार थे. मैं जिस तरह किसी चुन्नूमुन्नू रामू,श्यामू के साथ रहता था ठीक उसी तरह किसी मुन्नीगुड्डीसीतागीता के साथ पाया जाता था. ये बात सिर्फ मुझ पर ही लागू नहीं थी बल्कि हम सब के सब ऐसे ही थे. और मेरे ख्याल से हर बचपन ऐसा ही होता है आपका भी रहा होगा. पर जैसे-जैसे हम बड़े होते है कई  तरह की शरहदोंदीवारों और लकीरों के शिकार होते जाते हैये हमें बच्चो से लड़का-लड़कीअमीर-गरीबहिन्दू-मुसलमानब्रह्मण-दलित और ना जाने क्या क्या बना देतीं  है. हम कहने को तो आज़ाद होते है पर अगर सही से देखें तो हम आँखों से न दिखने वाली शरहदोंदीवारों  और लकीरों  में कैद है. जिन्हें बस महसूस किया जा सकता है.जब हम सोकॉल्ड सिनिअरसोकॉल्ड सिविलाइज्ड हो जाते है तब हमें किसी से मिलने  तो छोडिये बात करने से पहले भी ये सोचना पढता है कि सामने वाला हमारे लेवल का है या नहीं इस आदमी या औरत से बात करने पर सोसाइटी का कहेगी सामने वाले की जात से लेकर कपड़े तक सब कुछ हम देखने लग जाते है और अपने लेवल और स्टैण्डर्ड  के चक्कर में ऐसा पड़ते है की वो बचपन की पंछीनदिया और  पवन के झोंके वाली आजादी कहीं गुम हो जाती है और हम एक कैदी ही रह जाते हैं.

मेरा ये दर्द आपने भी जिया होगा क्योंकि मैं ये जो आप से शेयर कर रहा हूँ ये एक भोगा हुआ यथार्थ है. ये न दिखने वाली कैद तब महसूस की जा सकती है जब आप हाइयर एजुकेशन में हों या अच्छी जॉब मे हों और गरीबी की वजह से आपका बचपन का दोस्त सब्जी का ठेला या ऐसा ही कोई काम करता हो और आप उससे वैसे ही मिलना चाहें जैसा बचपन मे मिलते थे तो आप कभी नहीं मिल सकते क्योंकि वो आपके स्टैण्डर्ड का नहीं रहा और सोसाइटी में रहना है तो स्टैण्डर्ड बना कर रहना पड़ेगा. इसी तरह जब कोई लड़की जो आपकी बचपन मे सबसे अच्छी दोस्त रही हो आपको पहचान तक नहीं पाती और रास्ते मे आँख चुराते हुए चली जाती है वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो समाज की उस सोच की शरहद मे कैद है जो किसी जवान लड़के-लड़की को दोस्त नहीं मानती. वो सोच कहती है कि लड़की एक सफ़ेद चादर होती है जिस पर एक बार दाग लग जाए तो कभी धोया नहीं जा सकता. इसीलिए वो लड़की उसी सोकॉल्ड सफेदी को बचाने के लिए ही अपने बचपन के दोस्त तक से अजनबियों की तरह व्यवहार करती है.

ऐसी ही कई और दीवारें, शरहदें और लकीरें है जो हमे रोकती, बांधती और बांटती रहती है. और हम सोसाइटी और स्टैण्डर्ड के नाम पर एक जकड़न और कैद को हंस कर जीने लिए तैयार हो जाते है. शायद यही वजह है जो हमे जकड़न और कैद के  बड़कपन से कहीं ज्यादा अच्छा मासूम और आज़ाद बचपन लगता है और हम उसे फिर से जीने के लिए हम हँसकर  अपनी सारी दौलत, शोहरत और जवानी लुटाने को तैयार हो जाते है.

तुम्हारा--अनंत 


    

Thursday, May 24, 2012

शोषण से बड़ी संघर्ष की लकीर ..................

एक बेख़ौफ़ लड़की जिसकी आँखों में गुस्से का शैलाब तैर रहा हो, कलाइयों में खनकती हुई चूड़ियों की जगह चमकती रिवाल्वर हो और होठों पर मखमली मुस्कान की जगह एक शक्ति भरी ललकार ने ले रखी हो, आपके हिन्दुस्तानी मन को चौंका  सकती है. आपके इस आश्चर्य का पैमाना तब और भी बढ़ सकता है जब उस लड़की की आड़ में एक हट्टा-कट्टा नवजवान छिप कर शरण ले रहा हो. फिल्म इश्क्ज़ादे के एक पोस्टर में मैंने जब ये तस्वीर देखी जिसमे परणीती चोपड़ा  के आड़ में अर्जुन कपूर छिपते हुए दिखाए गए हैं तो मेरे मन में एक अनजानी सी तसल्ली का भाव उठा, ये भाव क्यों आया मैं नहीं जनता बस इतना कह सकता हूँ कि किसी हिन्दुस्तानी लड़की को तस्वीर में ही सही पर इतनी  बेख़ौफ़, बेबाक और इस तरह लड़ते हुए देख कर अजब संतोष मिला था. ये तस्वीर हिन्दुस्तानी लड़की की बरसो पुरानी गढ़ी-गढ़ाई छवि की हदें तोड़ रही थी और उस परिभाषा के एकदम उलट  थी जिसमे लड़की को डरी-सहमी, सुशील,सुन्दर, संस्कारी, सहनशील और अपनी खुद की सुरक्षा के लिए भी मर्दों की मोहताज बताया गया है.ये तस्वीर  उस देश में आशा की किरण सी लगी  थी  जिस देश में हर 47 मिनट के बाद एक बलात्कार होता हो, हर 44 मिनट के बाद एक महिला का अपहरण होता हो, 60 % कामकाजी महिलाएं किसी न किसी तरह यौन शोषण का शिकार होती हो, लगभग 30  हज़ार बच्चियां वस्यावृति की गिरफ्त में हों. जहाँ स्कूल-कालेज, बस-ट्रेन, गली-सड़क, गाँव-शहर यहाँ तक ही घर में भी महिलाएं असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हों, जहाँ  सत्ता के गलियारों से लेकर खेत-खलिहानों  तक महिलाओं के शोषण की दर्द भरी कहानी फैली हो. जहाँ औरत  महज एक जिस्म हो और स्त्री-विमर्श देह से शुरू हो कर देह पर ही ख़तम हो जाता हो. जहाँ  औरत को देवी कह कर शोषण किया जाता हो और हर  तरह के बलिदान के लिए हंस कर तैयार रहने को विवश  किया जाता हो, वहां किसी महिला की ऐसी तस्वीर चौंकाती भी है  और तसल्ली भी देती है जिसमे वो अपनी सुरक्षा के लिए किसी मर्द  की मोहताज़ नहीं है बल्कि किसी मर्द को भी सुरक्षा देने का माद्दा रखती है और ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार है.

हमारी सोसाइटी में वूमेन आइडेन्टिटी को लेकर काफी कंट्राडिक्शन है. एक तरफ हम उसे शक्तिस्वरूपा कहते हुए पूजते है तो दूसरी तरफ हम उसे उसके अबलापन और कमजोरी का एहसास कराते हुए उसकी बेहतरी के लिए चारदीवारी के भीतर अपना संसार तलाशने और गढ़ने की नसीहत देते है.पर इसके बाद भी अगर कोई औरत आजादी के एहसास को जीने के लिए अपने वजूद को तलाशते हुए समाज में आती है तो उसे हमारे उसी सभ्य समाज में बलात्कार और शोषण का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में व्याप्त  ये विरोधाभाष और स्त्रियों को कम समझने का नजरिया हमारे विकास का सबसे बड़ा बाधक है

हम अक्सर इतिहास के उन पन्नो को नजरअंदाज कर देते है जिनमे स्त्रियों के साहस, संघर्ष और शौर्य  की गाथा लिखी है. मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर को देख कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उन वीरांगनाओं की याद आ गयी जिन्होंने घर की दहलीज लांघ कर फिरंगियों के दांत खट्टे कर दिए थे और जिनके कंगनों की खनक तलवार की झंकार में बदल गयी थी. ये मेरठ की सभ्य समाज से निष्कासित कोठे वाली नर्तककियां ही थीं जिन्होंने हिन्दुस्तानी फौजियों को ताने मार कर देश के लिए लड़ने को  प्रेरित किया था. 1857 के महासंग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, अवन्ती बाई,जीनत महल, बेगम हजरत महल, जैसी  मुख्यधारा की कुलीन महिलाओं के अलावा भगवती देवी, इन्दर कौर, जमीला बाई, उदा पासी, आशा देवी, बख्तावारी देवी, जैसी पिछड़ी और दलित महिलाएं भी हथियार उठा कर देश के लिए लड़ रही थी. 12 मई को प्रबुद्धनगर में बख्तावारी देवी अंग्रेजों  के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं उन्होंने कैराना की महिलाओं का एक जत्था बना रखा था .आशा देवी भी इन्ही क्रांतिकारी महिलाओं में शामिल थी. बख्तावारी देवी  और आशा देवी ने अपनी महिला सेना के साथ शामली तहसील पर धावा बोल दिया जहाँ शोभा देवी ने पहले से ही महिलाओं की एक सेना बना रखी  थी जिसमे करीब 250  महिलाएं शामिल थीं ये सभी महिलाये अंग्रेजों से खूब लड़ीं और अपने अप्रतिम शौर्य की अमिट गाथा कह गयी. इस विद्रोह की सजा के तौर पर लगभग 250 महिलाओं को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. असगरी बेगम को जिन्दा जला दिया गया और शोभा त्यागी को आधा जमीन में गाड़ कर  कुत्तों से नुचवाया गया. इससे कहीं बड़ी,गहरी और गाढ़ी जुल्म  की  दास्तान लिखी गयी पर हिन्दुस्तानी महिलाएं न डिगीं और न  ही टूटीं बल्कि संघर्ष की राह  पर देश की रक्षा के लिए बलिदान हो गयी.

पित्रसत्तात्मक समाज महिलाओं के योगदान को कम करके आंकता या नजरअंदाज करता है पर अफ़सोस तो तब होता है जब खुद वूमेन  कमुनिटी अपने इस स्वर्णिम साहस, संघर्ष और शौर्य के इतिहास से कटी हुई पायी जाती है आज जरूरत है कि देश की लड़कियां  उन लाखों शहीद विरंगानायों  से प्रेरणा ले जो अपनी सुरक्षा  के लिए किसी मर्द के कन्धों की  मोहताज नहीं थीं बल्कि सारे  देश की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हुईं थीं.
मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर में अतीत के सहस से प्रेरणा लेती हुई भविष्य की उस  हिन्दुस्तानी लड़की की झलक मिली थी जो शोषण से बड़ी संघर्ष की लकीर खींचने पर यकीन रखती है. 

तुम्हारा--अनंत