Tuesday, May 27, 2014

नरेन्द्र मोदी और उनका गिलसिया आशावाद !!

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही भारत ने कुछ ऐसा देखा जैसा उसने कभी पहले नहीं देखा था, जब नरेन्द्र मोदी ने संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेका उस वक्त वो जनता को कोई राजनेता नहीं बल्कि लोकतंत्र के पुजारी से प्रतीत हुए. ये बात अलग है कि संसद के लोकतंत्र और सड़क के लोकतंत्र, के बीच का लोकतांत्रिक द्वन्द और अंतर, उस समय जनता के जहन में नहीं था. इससे आगे जब मोदी अडवानी के “कृपा” शब्द कहने पर रोये तो पूरा देश आंसुओं में बहने लगा. अखबारों, चैनलों से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह मोदी के आंसूओं का ही समंदर नज़र आया. कहने वालों ने कहा ये अद्भुत है, देश को पहला देशभक्त प्रधानमंत्री मिला है.

भारत का नवयुग इन्ही आंसुओं की स्याही से लिखा जायेगा. मोदी एक राजनेता है, इसलिए उनके आंसुओं की राजनीतिक व्याख्या भी होनी चाहिए पर भारत एक ऐसा देश है जहाँ भावना पर राजनीति बुरी बात मानी जाती है. इसीलिए जब मोदी के आंसुओं की व्याख्या और आलोचना हुई तो लोग हत्थे पर से उखड गए, बुद्धिजीवियों ने समझाने की कोशिश की तो फेसबुक पर भाऊक भीड़ ने भाऊकता के तीर चालाने शुरू कर दिए. किसी खोजी ने एक वीडियो खोज कर शेयर किया, ये दिखने के लिए, कि हिटलर भी अपनी तकरीरें देते समय रोया करता था. पर जब उसने विध्वंस का महाकाव्य लिखा तो मानवता चीख कर रोने लगी थी. मानव मर्यादा की हर एक सीमा इसी भाऊक राजनेता ने पार की थी. क्रूरता के इतिहास में सबसे चमकदार नाम हिटलर भी तो महान वक्ता, कथित देशभक्त और भाऊक व्यक्ति था. वो भी अपने भाषणों में जी खोलकर रोता था. इसीलिए रोना और संसद की सीढ़ियों मत्था टेकना सरल ह्रदय होने का प्रमाण कतई नहीं है, पर भारत में तर्क के पहिये की सारी तीलियाँ पल भर में तोड़ दीं जातीं हैं और विवेक के रथ को आस्था और भाऊकता के दलदल में धसा दिया जाता है. भारत में तर्क और विवेक की यही नियति है. इसीलिए मैं मोदी के रोने की व्याख्या या आलोचना में नहीं जाऊंगा.

मुझे जिस बात ने लिखने को विवश किया वो मोदी रुदन कांड के बाद की घटना है. जिसमे मोदी आशा और विकास के महापर्व में प्रवेश करते हैं. वो उस काल खंड में विकास, उर्जा और आशावाद का मोदीवादी नजरिया पेश करते हुए, एक पानी का आधा भरा, आधा खाली गिलास उठाते हैं, और कहते हैं भाइयों-बहनों! इस दुनिया में इस गिलास को देखने वाले दो किस्म के लोग हैं, एक किस्म के लोग इसे आधा भरा हुआ कहेंगे, और दूसरी किस्म के लोग इस गिलाफ को आधा खाली कहेंगे. भाइयों-बहनों ! मेरा नजरिया तीसरे प्रकार का है. मैं इस गिलास को आधा पानी से भरा और आधा हवा से भरा हुआ देखता हूँ. मोदी ये कहकर देश के सामने आशावाद का मोदी संस्करण पेश करते हैं और पूरे देश की आँखे चमक उठतीं हैं. युवाओं को पारम्परिक आशा और निराशा की परिभाषा के इतर मोदिमयी आशावाद भाता है और एक बार फिर सोशल नेटवर्किंग साइटों और टीवी चैनलों पर मोदीमयी आशा का राष्ट्रीय संचार हो उठता है.

मोदी जी मुझे आपके आंसुओं और आस्था से न कोई वास्ता है और न कोई सवाल. हलाकि इसके पीछे के राजनितिक निहितार्थ मैं समझता हूँ, पर मुझे आपके आशावाद की गिलसिया परिभाषा और नजरिये पर आपत्ति है और मेरा ये लेख भी आपके इसी गिलसिया आशावाद पर संवाद का एक प्रयास है. जब आप गिलास को आधा पानी से भरा और आधा हवा से भरा कहते हैं. 

उस वक्त आप उस सवाल को बहस के परिधि से कहीं दूर फेंक रहे होते हैं, जो देश की अस्सी करोड जनसँख्या पूछ रही है. पसीने में डूबा हुआ किसान और और खून जलाता हुआ मजदूर पूछ रहा है. जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ता हुआ आदिवासी पूछ रहा है, यही कि जिनके हिस्से में पानी है उन्हें हवा से संतोष क्यों करना पड़ रहा है ? उनके हिस्से का पानी कहाँ गया और क्यों इस गिलसिया व्यवस्था में कुछ के हिस्से में पानी और बहुतों के हिस्से में हवा लिखी गयी है ? सवाल ये भी है कि आजादी के पैसठ साल से भी ज्यादा समय में अबतक सब को पानी मुहैया क्यों नहीं कराया गया.

ये सारे सवाल समतामूलक समाज की चेतना से संचालित सवाल है जिन्हें आपका गिलसिया आशावाद, निराशावाद का प्रतीक बताने पर तुला है. आपका गिलसिया आशावाद का ये तर्क एक तिलिस्म गढता है और उस तिलिस्म की चमक में देश का मध्यमवर्गीय युवा अभिभूत अवस्था में पहुँच जाता है. वो भाग-भाग कर फेसबुक पर आता है. आपके कसीदे पड़ता है. आपको नवयुग का नवनिर्मता कहता है. वो इस सच्चाई को देखना ही नहीं चाहता कि आपके इस तिलिस्म ने बड़े ही करीने से असमानता को रेखांकित करने वाले सवालों को हांसिए पर ढकेल दिया है.

इस गिलसिया आशावाद के महापर्व में भी, जो लोग खाली को खाली कहने की कोशिश कर रहें हैं. वो पानी वालों की राजनीति को समझते हैं और उनका सत्ता की हवा वाली खैरतों के प्रति विद्रोह है. उन्हें भी सामान पानी चाहिए जैसे दूसरों को मिला है, मोदी जी ! ये व्यवस्था अगर एक गिलास है तो पानी पर सब का सामान अधिकार होना चाहिए. आप अडानी और आम आदमी के अधिकारो और सीमाओं के अंतर के सवाल पर वर्ग चेतना से जन्मे विमर्श को, पूंजीपति, सर्वहारा से इतर एक तीसरी विमा पर लेजाकर उस निर्जन प्रदेश में बंदी बना देना चाहते हैं. जहाँ विकास और आशावाद के शोर के बीच उसका जनचेतना से सम्बन्ध विच्छेद किया जा सके. मोदी की लहर विकास का शहर, गावों, नदियों, पहाड़ों, जंगलों और जमीनों की कीमत पर बना सके और विरोध के स्वर, देशभक्ति के नारों और मोदी विजय की शंखनाद के तले दबा दिए जाएँ.

मोदी जी ! मुझे गिलास में खालीपन देखने वाले ज्यादा आशावादी लगते हैं क्योंकि वो गिलास के खाली होने की वजह के खिलाफ लड़ रहे हैं और उन्हें इस बात पर यकीन भी है कि एक दिन उनका संघर्ष इस गिलसिया व्यवस्था में सबके लिए पानी सुनिश्चित कर पायेगा. ये संघर्ष का आशावाद है, ये समतामूलक समाज की संकल्पना से संचालित आशावाद है. ये आपके तीसरी विमा वाले तिलस्मी आशावाद और विकास से बिलकुल भी मेल नहीं खाता, बल्कि विद्रोह की मुद्रा में है.

मोदी जी ! देश में आज करोड़ों लोग अपने घर से बेदखल कर दिए गए हैं. वो अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं. वो एक तरफ माओवादियों के वैचारिक उन्माद के शिकार हैं तो दूसरी तरफ सत्ता और पूंजीवाद के गठजोड़ के मारे हैं. सैन्यबल उन्हें नक्सली कह कर मार देता है और नक्सली उनकी पुलिसिया जासूस समझ कर हत्या कर देते हैं. एक भयानक संघर्ष और सुनिश्चित मृत्यु ही जैसे उनकी नियति हो चली है. आपका ये गिलसिया आशावाद उनके लिए क्या कुछ कर सकेगा ? आपका विकास मॉडल, अडानीयों और अम्बानियों को एक रुपये में जमीन बाँट कर विकास लाता है. आप नर्मदा पर बाँध किसानों के नाम पर बनाते हैं और उनके जिवंत गाँव पानी में समाधी लेने को अभिशप्त हो जाते हैं पर जब पानी देने की बारी आती है तो नर्मदा का पानी बिजली बनकर आपके विकास के आंकडो को चमकाने का काम करता है और किसान आत्महत्या करने को अभिशप्त पाया जाता है. 

मोदी जी! क्या आपको मालूम है कि देश में खेती लगातार जोखिम का काम होता जा रहा है और किसान खेती छोड़ कर शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं. देश के लगभग 42 प्रतिशत किसान खेती छोडना चाहते हैं. सकल घरेलु उत्पाद में खेती का योगदान लगातार घटता जा रहा है. वो देश, जहाँ किसान को दूसरा भगवान माना जाता है, वहाँ पिछले पन्द्रह सालों में 2.90 लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली है. आप केंद्र ने नहीं थे, इसलिए मैं आपको इसका दोष नहीं दे सकता पर तस्वीर गुजरात की भी कुछ ऐसी ही है. 

आंकड़े कहते हैं कि गुजरात में 2003 से 2012 के बीच 4874 किसानों ने आत्महत्या की है. लेकिन गुजरात सरकार ने आधिकारिक बयान देते हुए, मात्र एक किसान की फसल खराब होने की वजह से मौत होने की बात कही है. लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही तस्वीर पेश करती है जिसे देख कर गुजरात सरकार के संवेदनहीन रवैये पर अफ़सोस होता है. कृषि पर जब मानव श्रम की निर्भरता कम हुई है ऐसे में लघु उद्योग और कुटीर उद्योग को बढ़ाने की प्रवित्ति होनी चाहिए पर मोदी जी आपकी नीति बिलकुल उलट है. आप बड़े कल कारखाने लगाने पर विस्वास रखते हैं. गांधी आपके लिए पुराने समय की बात हैं. आंकड़े कहते है कि आपके दस साल के शासन में गुजरात में 60,000 से ज्यादा छोटे उद्योग बंद कर दिए गए. गुजरात में श्रम कानूनों का खुला उल्लंघन होता रहा और सरकार विकास के कीर्तिमान लिखती रही. 

मोदी जी, आपने पूरे देश को रैलियों से मथ दिया. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कमरू कामच्छा तक आपने रैलिय की. पाकिस्तान से लेकर चीन तक को भाषणों में ठिकाने लगा दिया. अमेरिका को अपने चरणों में झुका दिया, सोनिया, राहुल समेत पूरी कांग्रेस पर आप आग बन कर बरसे. ममता से लेकर माया तक, केजरीवाल से ले कर नितीश यादव तक सब को आपने अपने भाषणों में निपटा दिया, पर आपने किसानों की समस्या पर किसी नीति का कोई खाका नहीं खींचा. आपने मजदूरों के हक में श्रम कानूनों को लागु करने के लिए कुछ नहीं कहा. 

आदिवासियों के संघर्ष और संकट पर आप चुप रहे. आप भाषण देते गए, मीडिया की माया विकास की छाया देश भर में फैलता गया और जबतक व्यापक बहस का माहौल बनता तबतक पाकिस्तान चला जाऊंगा, भेज दूंगा जैसे बयानों का समय शरू हो चूका था. अंतिम समय में शोधकर्ताओं और बुद्दिजीवियों ने जब गुजरात के विकास मॉडल की पड़ताल शुरू की तब गुजरात सरकार ने आंकड़े बेवसाईट से हटा लिए. मोदी जी आप राजनीतिक अकाल के युग के प्रणेता हो, जहाँ आपकी जीत नहीं हुई है बल्कि बाकियों की हार हुई है.

असली मुकाबला अब आपका भारत के जन समस्याओं से है, किसान मजदूर और आदिवासियों की समस्या आपके गिलसिया आशावाद और तिलिस्मी विकास से नहीं हल होने वालीं और ये झूझने वाले लोग अपना हक लिए बिना अब मानेंगे भी नहीं. अब इन्हें हवा से संतोष नहीं है, ये अपने हिस्से के पानी की हर एक बूँद का हिसाब मांग रहें हैं. आप कहते हैं कि अच्छे दिन आने वाले हैं, ये कहते है अच्छे दिन आयेगे. दोनों के बीच में संघर्ष है. आपके गिलसिया आशावाद और जनता की समता पर आस्था का संघर्ष.

यह लेख जनज्वार पर नए लोकत्रंत का 'अश्रुपूर्ण' आगमन नाम से प्रकाशित हो चूका है ! 

यह लेख दैनिक भारतीय बस्ती में "नरेन्द्र मोदी का आशावाद और चुनौतियाँ"  शीर्षक से तारीख 2-June-2014 को प्रकाशित  हो चूका है !!