Thursday, December 27, 2012

मेरी यादों में साल 2012......


मैं साबरमती के किनारे, डूबते हुए सूरज से लाल होती नदी को देखते हुए, एक उठान पर बैठा हुआ हूँ. साल 2012 इतिहास होने वाला है पर इससे पहले वो एक फिल्म बनकर मेरी आँखों पर से गुजरना चाहता है. मुझे याद आता है कि...

वो साल 2011 की अंतिम रात थी. मैं इलहाबाद के सेंट जोसफ कालेज के बाहर खड़ा हुआ था. भीतर भारत-पाक भाईचारा सम्मलेन चल रहा था. जिसमे भाईचारा जैसा कुछ नहीं था. मैं ऊबकर बहार सड़क के किनारे आ गया था और वहीँ नए साल का इंतज़ार कर रहा था. 5-10 मिनट में साल 2012 आने वाला था. सड़क अमूमन इस वक्त तक सो जाया करती थी पर उस दिन वो मानो उसी वक्त जगी थी. कालेज के बाहर अधनंगे बच्चे ठिठुरते हुए खड़े हुए थे इस यकीन के साथ कि अंदर से जो भी आयेगा उन्हें केक, टाफी, और पैसे देगा. पर उनका यकीन साल के शुरु होते ही टूट गया. जिसकी कोई आवाज़ नहीं हुई. सड़क के एक किनारे से रिक्से वालों की लाइन लगी थी. जिसमे हर उम्र के आदमी थे. वो अपनी सवारी की आस में टकटकी बांधे, खुद में सिकुड़े हुए खड़े थे. मैं इन कांपते हुए बच्चों, ताकते हुए रिक्शेवालों और थिरकते हुए महमानों के अपने-अपने नए सालों की तासीर नापने में लगा था. और सोच रहा था कि नए साल का क्या मतलब है? उन लोगों के लिए जिनके लिए रोटी का सवाल सबसे बड़ा सवाल है.... मैं अभी सोच ही रह था कि मेरी सोच में खलल डालती, फर्राटा भरती हुई, अंग्रेजी और हिंदी की मिलीजुली भाषा में गलियां गाती, यांगिस्तानियों की एक टोली गुजर गयी जिसने लहराते हुए हांथों से सड़क के किनारे खड़े लगभग सभी रिक्शे वालों को एक-एक चपत लगाई थी. और एक बुजुर्ग रिक्शे वाले के रिक्शे पर एक लात जमाई थी. जिससे रिक्शा बुरी तरह टूट गया था. मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि ये वही यूथ है जो अन्ना के एक इशारे पर दिल्ली के सड़कों पर सैलाब बन गया था. उस वक्त न जाने क्यों मुझे उस बुजुर्ग की सूरत में अन्ना दिखने लगे थे. मैं घर आया था और एक कविता लिखी थी. जो अब कहाँ है मुझे याद नहीं. उन ताकते, थिठुरते, पिटे हुए लोगों का दर्द मैंने उस कविता के रूप में कहीं गुमा दिया है. मेरे लिए साल 2012  कुछ यूं आया था. एक सच्चाई को आइना दीखता हुआ कि ‘’कदम अभी ठीक से संभले नहीं हैं, हम अभी उतने भी भले नहीं है’’.

साल 2012 को अगर “दिल्ली वाला साल” कहा जाये तो गलत नहीं होगा. वो दिल्ली जहाँ इस साल जनता ने “मैं अन्ना हूँ” से ले कर “मैं हूँ आम आदमी” तक का सफर तय किया. बिजली की तारों को पर कटती-जुड़ती राजनीती और अपने नाम (आम आदमी पार्टी) पर बनती हुई पार्टी देखी.  इस साल दिल्ली का शर्म से झुलसता हुआ चेहरा देखा, जिसमे पूरा देश जल उठा. ये वो वक्त था जब बलात्कार की घटनाओं से आजिज आ कर देश का युवा (वही युवा जो रात के अंधेरों और शराब के नशे में बुजुर्ग-मेहनतकश को चपत भी लगा सकता है) “वी वांट जस्टिस” के नारे लगा रहा था. पुलिस उनपर लाठियां बरसा रही थी और एक बुजुर्ग कांस्टेबिल की मौत पर कूटनीति रची जा रही थी. 

पूरे साल महिला जाति की एक संघर्ष करती हुई तस्वीर आँखों के सामने बनती है. चाहे वो छत्तीसगढ़ के जंगलों में सिस्टम से लड़ती मार खाती “सोनी सोरी” हो, पकिस्तान में तालिबानियों से लोहा लेती “मलाला युसुफजई” हो या फिर दिल्ली की गलियों में गुस्से से तमतमाई लड़कियों की आवाज़ में घुल कर बोलती हुई “दामनी”. हर कहीं संघर्ष करती हुई स्त्री दिखती है, सो कहने को इसे “महिला संघर्ष वर्ष” कहा जाना चाहिए.

इस साल के परदे पर राजेश खन्ना साहब और यश चोपड़ा का जाना भी याद आता है. वो नायक और निर्देशक जिसने पूरे देश को रूमानी होना सिखया था. वो प्यार के कलाकार बेइन्तहां प्यार अपने दमन में बटोर कर वहाँ चले गए जहाँ से कोई नहीं आता. इसके साथ ही ये साल साक्षी रहा है क्रिकेट के भगवान (सचिन तेंदुलकर) के वनडे मैचों संन्यास लेने का भी ,और इसी के साथ 2012 ने  उस इतिहास को अपने पन्नों में  दर्ज किया जो भविष्य में भी कभी इतिहास नहीं हो पायेगा.

साल 2012 दुनिया के अंत होने की अफवाह का भी अंत बन कर बीत रहा है. और ये 12-12-12 की अंतिम गणितीय तारीख का भी इतिहास अपने भीतर ले कर स्वयं इतिहास होने वाल है. पर ये जाते हुए हमें दे जा रह है हमरा नया दोस्त 2013. इस उम्मीद के साथ की हम केक, टाफी की राह देखते बच्चों की आस नहीं टूटने देंगे. गरीबों को और मेहनतकशों को आँखों में आंसू नहीं आने देंगे. अब अपने देश को फिर कभी शर्मिंदा न होने देंगे. और उसे एक ऐसा देश बनायेगे जहाँ किसी लड़की को ये न कहना पड़े कि ”अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो” और देश का हर एक कंठ पूरे गर्व और सम्मान के साथ गा सकेगा “सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा......

अनुराग अनंत
     

Monday, December 24, 2012

मेरे भीतर एक कायर है, उसे मार देना चाहिए


लखनऊ से अहमदाबाद के लिए सीधे ट्रेन नहीं मिल पाई थी, सो ब्रेक जर्नी ही एक रास्ता था. लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद जाना तय किया था हमने. हम PHD में एडमिशन के बाद यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने जा रहे थे, हम तीन लोग थे पर मैं बिलकुल अकेला ही था. वो दोनों अपने आप में मगन थे और मैं अपने आप में मस्त. ट्रेन के बाहर का नज़ारा भी ट्रेन की ही रफ़्तार से ट्रेन की उलटी दिशा में भाग रहा था. खेत, पेड़, नदी, पहाड़ और आदमी सब को पहिये लग गए थे. मैं उन भागते हुए दृश्यों को अपनी ठहरी हुई आँखों से देखते हुए न जाने कब सो गया मुझे पता ही नहीं चला. दिल्ली आने वाली थी, घडी ने यही कोई साढ़े पांच या छ: बजाये होंगे कि ठंढी हवाओं ने जगा दिया था. लाल किला एक्सप्रेस, लाल किले के पीछे से गुजर रही थी और रेल की पटरियों के किनारे बसी बस्तियों के घरों के भीतर तक हमारी निगाहें घुस चुकी थी. कहने के लिए तो उन झोपडियों में दीवारें थी पर सब कुछ दिख रहा था. उनका सोना, रोना, लड़ना, नहाना, धोना सब कुछ बेपर्दा था. जिंदगी का बेपर्दा होना कैसा होता है. मैंने पहली बार वहीँ महसूस किया था. निजता जैसा कोई शब्द उन झोपडी में रह रहे लोगों ने शायद ही कभी सुना हो. जिंदगी वहाँ शर्म के बंधनों से आजाद थी, या यूं कहें उनकी और हमारी शर्म की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर था. जो हमारे लिए शर्म है उनके लिए क्या हैं मैं नहीं जनता, पर शर्म बिलकुल नहीं है. जिंदगी जीने के ज़ज्बे, जरूरत, या मजबूरी (आप जो भी कहना चाहें) के आगे शर्म बहुत छोटी चीज़ होती है.  मेरे लिए ये बात भी बिलकुल साफ़ हो गयी थी. 

रेल कुछ आगे बढ़ चुकी थी और अब जिस इलाके से गुजार रही थी. वहाँ कूड़े-कचरे का अम्बार लगा था. आँखों में समाई लाल किले की सूरत कचरे में बचपन गुजारते और रोटी तलाशते बच्चों की तस्वीर के आगे फीकी पड़ गयी थी. लाल किले की प्राचीर से चढ कर भाषण देते प्रधानमंत्री को शायद ये बच्चे कभी नहीं दिखे होंगे. नहीं तो उन्हें भी उतनी ही निराशा होती जितनी मुझे हर बार ये महसूस करके होती है कि सन सैतालिस (1947) में जो आज़ादी मिली वो झूठी थी. मैं जब भी ये सोचता हूँ. मुझे देश के वजीर-ए-आला की हर दलील झूठी और विकास का हर आंकड़ा बेमानी जान पड़ता है. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि जब वो लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होते होंगे, डाइस के पीछे उनके पैर, ये सारे झूठे और बेमानी शब्द बोलते हुए कांपते होंगे पर राजधर्म में फंसा हुआ आदमी अधर्म करने को अभिशप्त होता है. यही उसकी नियति होती है.

खैर देश के प्रधानमंत्री के बारे में सोचते सोचते मैं रेल में सवार आगे बढ़ ही रहा था कि तभी मेरी नज़र कचरे के ढेर के बीच करीब 14-15  साल के लड़के-लड़की पर पड़ी. वो प्रोयोगशाला में विज्ञान के प्रयोग करने की उम्र में कचरे के ढेर में शरीर के प्रयोग कर रहे थे. सुबह जब देश में उनकी उम्र के कई बच्चे हाँथ में किताबें थाम कर तेज आवाज़ में वर्ड मीनिंग, पहाड़ा, और गणित के सूत्र रट रहें होंगे, वो जिंदगी की बेजान और बेरंग तस्वीर में एक फीका सा रंग भरने में लगे थे. वो रंग जो अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुंठा और नशे में रंगीन लगता है, पर है बिलकुल भी नहीं. वहाँ पहली बार लगा कि इनके लिए जीवन महज़ भूख भर बचा है, पर ऐसा कैसे हुआ और किसने किया? सवाल गहराता गया और मैं डूबता गया. जब थोडा निकला तो पाया कि पुरानी दिल्ली स्टेशन आ चुका था.

अहमदाबाद के लिए ट्रेन 8 घंटे बाद थी सो फ्रेश हो कर और कुछ देर आराम करने के बाद दिल्ली घूमने को बाहर निकल पड़ा. अभी सीढ़ी से बाहर की ओर निकल ही रहा था कि देखा पुलिस वाले ने दो अधेड़ों के साथ एक 14-15 साल के बच्चे को किनारे कर रखा था और उनकी माँ बहनों को इज्ज़त दे रहा था. मैं कुछ साफ़ समझ पता कि उसने उस बच्चे की मुट्ठी में बंद पसीने में डूबी, तुड़ी-मुडी 500 नोट छीन ली और डाँट कर भगा दिया. मैंने बढ़कर बच्चे से पुछा तो उसने बताया कि वो अपने पिता के मरने के बाद घर का खर्च चलने के लिए, गांव के कुछ लोगों के साथ दिल्ली मजदूरी करने बिहार से आया है. ये रूपये उसकी माँ ने बचा रखे थे और उसे काम न मिलने तक अपना पेट भरने के लिए दिए थे. जिसे पुलिस वाले ने छीन लिया. ये कहते हुए वो बच्चा (जिसे परिस्थियों ने जवान या यूं कहें की बूढा बना दिया था) बच्चों की तरह रोने लगा. तभी पीछे से वो पुलिस वाला आ गया और उसने उस बच्चे को एक लाठी जमाई और कहा कि “अबे! जाता है कि हवालात ले चलूँ !... वो लड़का सकपका के आंसू पोछते हुए चला गया. मैं अभी कुछ समझ नहीं पाया था कि पुलिस वाले ने मुझसे कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में ? उसने कहा कि गंजा अफीम बेचते हो साले! और रंगबाजी दिखाते हो, और हवा में लाठी तान ली ! मुझे डरना नहीं चाहिए था पर मैं डर गया. मेरे दिमाग में संविधान के प्रस्तावना से लेकर लोकतंत्र के परिभाषा तक सकुछ अचानक नाच गया. मैं, हम भारत के लोग,......या जनता द्वरा जनता के लिए जनता की सरकार...जैसा कुछ बोलना चाहता था. पर मैंने सकपकाते हुए कहा कि महोदय मैं पत्रकार हूँ और फिलहाल जनसंचार विषय में शोध कर रहा हूँ. आप मुझे गलत समझ रहे हैं. उस हवलदार को जैसे मेरे पत्रकार होने ने भीतर से रोक दिया हो, पर उसके मुंह से गाली नहीं रोक सका. उसने मेरी माँ और बहन की तारीफ़ की और भाग जाने को कहा. मैंने वहाँ से नहीं जाना चाहता था. और वहीँ पर अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला, गाँधी या अन्ना हो जाना चाहता था. मैं संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देना चाहता था और खुद के आजाद होने पर दलील देना चाहता था. मैं वहाँ आज़ादी जीना चाहता था पर मैं वहाँ से चुपचाप चला आया. आमआदमी की सीमायें वहाँ मुझसे जीत गयीं और मैं हार गया. मेरी आँखों में मेरा घर परिवार नाचने लगा था, मेरी जिम्मेदारियां कोई मेरे कानों में आवाज़ मार-मार कर मुझे याद दिलाने लगा. मैंने पाया मैं कैद हूँ. और मैं डर गया मैंने महसूस किया कि संविधान से ले कर लोकतंत्र तक की सारी समझ किताबी है और जमीन पर जिंदगी घर-परिवार और जिम्मेदारियों का दूसरा का नाम है. मैंने वहाँ जाना कि एक आमआदमी के लिए हवालात भी एक ऐसा शब्द हो सकता है जिसे सुन कर आत्मा तक काँप उठे. 

उस वक्त मैंने पाया मेरा कुछ हिस्सा वहीँ हवलदार मुंह से निकले हवालात शब्द में कैद हो गया है. मेरा वो हिस्सा  मुझे आज भी आवाज़ दे रहा है और कह रहा है कि मेरे भीतर एक कायर रहता है. मुझे उसे मार देना चाहिए. जब-जब वो आवाजें आती हैं मेरे वजूद का हर एक हिस्सा परेशान हो उठता है. उस वक्त मुझे ये आज़ादी झूठी लगती है और मैं एक कैदी सा महसूस करने लगता हूँ. 

यह लेख मोहल्ला लाईव (http://mohallalive.com) पर प्रकाशित है 
लिंक http://mohallalive.com/2013/12/09/a-travelogue-by-anurag-anant/

तुम्हारा-अनंत

Tuesday, December 11, 2012

डर के आगे जिंदगी है.......


मेरे एक दोस्त ने कहा कि यार 21-12-12 को दुनिया ख़तम हो रही हैकितना डर लगता है न ये सोच कर... मैंने उसकी बात बीच में ही काट कर कहायार ये क्यों सोचता है कि हम 21-12-12 को सारे  संसार के साथ मारे जाने वाले लोग हैंतू ये क्यों नहीं सोचता कि हम वो है जिन्हें अपनी सदी का एक सबसे अहम दिन 12-12-12 देखने का मौका मिलाये अजूबी तारीख जीने वाले हम बिरलों में सामिल हो गए है ये कहते हुए मेरे चेहरे में हंसी थी और उसके चेहरे में जा जाने कैसा खौफ,  

मैंने अपने उस दोस्त की किसी भी बात को आज तक सीरियस नहीं लिया था पर पहली बार मैंने उसके जाने के बाद उसकी कही हुई बात को गंभीरता से लेने का प्रयास किया और सोचा कि मानों मेरे जीवन का ये आखिरी दिन हैमेरे साथ आप भी सोचिये कि ये जीवन का आखरी दिन है और अब आप भी बताइए कि एक दिन में वो कौन से काम है जो आप करना चाहेंगे,माथे पर पसीना आ रहा है और दिल की धडकन तेज हो गयी है नमेरा भी यही हाल हैपर डरिए मत एक लंबी सांस खीचिये और कहिये की आप क्या करना चाहेंगेखुदा या भगवान या जिसे भी आप सबसे ज्यादा मानते हों उसके लिए आप प्लीज ये मत कहिएगा कि मैं वैष्णो माँ का दर्शन करना चाहता हूँया फिर रात भर राम नाम भजन करना चाहती हूँया फिर गीता,कुरआनबाइबलया फिर ऐसा ही कोई सो कॉल्ड पुण्य का काम करना चाहूँगा या चाहूंगी.

आप इस दुनिया  के पार उस ऊपर वाले को मुंह दिखने की फिकर में न डूब जाएँ और स्वर्ग-नर्क के चक्कर में डर कर रामरहीममंदिर मस्जिद न पुकारने लग जाएँदिल पर हाँथ रखिये और एक गहरी सांस ले कर ये सोचिये कि ऐसा क्या था जो जीत की दौड़ में दौड़ते हुए हम जिंदगी को नहीं दे पाएजिंदगी को जिंदगी बनाने की जुगत में जिंदगी को न जाने क्या बना दियामैंने अपनी जनता हूँ इसलिए मैं अपनी बात कह रहा हूँ आप अपनी जानते है सो अपनी बात कहिएगा.

मैं सबसे पहले अपने घर जाना चाहूँगा और उस लड़की से अपने दिल की बात कहना चाहूँगा जिसके घर के बहार उसकी एक झलक के इन्तजार में मैंने अपनी जवानी के चार साल गुजारे थे और उससे प्यार के ढाई अक्षर भी कभी नहीं कह पाया थावजह थी डरएक डर था कि कहीं उसके प्यार के चक्कर में कैरियर न तबाह हो जायेदूसरा डर था यार ये इतने अमीर घर की लड़की है कहीं मुझे इनकार कर दिया तो मैं टूट जाऊंगातो हाँ से भी डर और न से भी डर,और इस डर में मैं उससे दूर चला आया पर वो मेरे साथ थी मुझमें बाकी थीदूसरा काम मैं अपनी सारी मार्कशीट जला देना चाहूँगा क्योंकि इन्हें कमाते-कमाते मैंने अपने भीतर के कलाकार,कवि और इंसान को खतम खतम होते देखा थासमाज में कवियों कलाकारों और इंसानों(मानवता के लिए जीने वालेकी जो दशा और समाज में उनके प्रति जो नजरिया था उससे मैं डर गया था और  अपने चारों तरफ मार्कशीटडिग्रीयों और डिप्लोमा का एक बड़ा सा कवच बना लेना चाहता था जिसके भीतर मेरा इगो सेफ रह सके और मैं अपने घर वालों के सो-कॉल्ड ऑनर को बचा सकूँ.

तीसरा काममैं अपने बस्ती वाले दोस्तों रामूकालू मुन्नागूंजा और उनके जैसों की फ़ौज के साथ फिर से नाच गा कर पैसे मांगने वाला वही खेल खेलना चाहूँगा जिसे खेलते हुए मेरे पिताजी ने मुझे देख लिया था और बहुत मारा था. मैं बच्चे से जवान होने तक जब भी खेलना चाहता था, बस वही खेल मेरे जहन में आता था पर पिता जी और समाज के डर से नहीं खेल पायामेरे पिता जी और समाज उन बच्चों को आवारा और खराब कहते थे और मैं भी उनके डर से ऐसा ही कहने लगा था पर आज मैं उस डर के पार जा कर कहना चाहता हूँ कि वो रामू खराब नहीं था जो सड़कों में गाना गा कर पैसे लाता था और शाम को उसके घर का चूल्हा जलता थावो गूंजा भी खराब नहीं थी जो उस उम्र में लोगों के घर का सारा काम करती थी जिस उम्र में मैं अपने जूते का फीता भी नहीं बाँध पाता थावो मुन्ना भी खराब नहीं था जिसे पुलिस ने रेल में पानी का पाउच बेचते हुए पकड़ लिया था और इतना मारा था कि वो क्रिमिनल बन गया था. मैं उन सब के साथ जिंदगी के किताब के उन पन्नों को पढ़ना चाहूँगा जिसे उन्होंने अपनी मेहनत और संघर्ष की कलम से लिखा है.

इसके अलावा मैं फेसबुक के अपने उन सारे फ्रेंड को अनफ्रेंड कर बना चाहूँगाजो वर्चुअल वर्ल्ड के वर्चुअल फ्रेंड है और जिन्हें मैंने जा जाने किस लालच और किस कुंठा के चलते अभी तक अपने साथ जोड़ रखा है.

और अंतिम में मैं कुछ देर ये बैठ कर सोचूंगा कि और वो कौन सा काम था जिसे मैं किसी न किसी डर के वजह से नहीं कर पाया या कर पा रहा रहा हूँ मैं उन सब कामों को करूँगा......और अब आप बताइए कि आप क्या करेंगे.

मैंने ये सब सोचते-सोचते ही एक ऐसी जिंदगी जी ली है जिसे मैं आज तक अपने 23 साल जीवन में किसी न किसी डर की वजह से नहीं जी पाया थामैंने खुद को भी जान लिया है कि मैं डिग्रीयों और डिप्लोमायों से घिरा हुआ आदमी नहीं हूँ मैं मिटटी की सोंधी सुंगंध में सना और उसका दीवाना व्यक्ति हूँआप भी दुनिया खतम होने के डर के बहाने डर के पार जाने की कोशिश करिये सही कहता हूँ आपको वहाँ आपका सच्चा वजूद और आपकी सच्ची जिंदगी मिलेगीक्योंकि डर के आगे जिंदगी हैडर के और आगे आप.


मेरा ये लेख आई- नेक्स्ट (दैनिक जागरण) में १२-१२-१२ को प्रकाशित हुआ था. लिंक नीचे दिया गया है. 

http://inextepaper.jagran.com/74433/I-next-allahabad/12.12.12#page/11/1

तुम्हारा- अनंत 

Tuesday, November 27, 2012

कसाब को खतम करने से कसाब खतम नहीं होंगे ..


हर साल 26 से 29 नवम्बर तक के दिन कुछ भारी-भारी गुजरते हैं। मुंबई हमले में मारे गए लोगों और देश के लिए लड़ते हुए शहादत को गले लगा लेने वाले जवानों की याद में आँखें नम हो जाती हैं। पर इस साल मंजर कुछ और है। दिवाली गुजरने के लगभग एक हफ्ते बाद 22 तारीख से  देश में दूसरी दिवाली  का माहौल है, मिठाइयाँ बांटी जा रही हैं, लोग खुशियाँ माना रहे हैं, गले मिल रहे हैं, वजह ये हैं कि 21 तारीख को  मुंबई हमले के एक मात्र जिन्दा बचे आतंकवादी कसाब  को पुणे की यरवदा जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। यरवदा जेल की सूली पर लटकता कसाब का बेजान शरीर करोड़ों हिन्दुस्तानियों के सीने में गड़ी कील निकाल गया पर उसकी मौत से मेरे सीने में एक सवाल आ  कर  धंस गया है। वो ये कि कसब कौन था? आप चाहें तो मुझे गाली दे सकते हैं और मेरे देश प्रेम और सामान्य ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा कर सकते है पर फिर भी मैं बड़ी शिद्दत और संजीदगी के साथ आप हँसते गातेपटाखे फोड़ते, मिठाइयाँ बांटते, और खुशियाँ मानते लोगों से पूछना चाहूँगा कि ये कसाब कौन था, पर हाँ भगवान् या अल्ला या फिर जिसे भी आप सबसे  ज्यादा  मानते हों, उसके लिए आप मुझे ये मत बताइएगा  कि कसाब पकिस्तान के पंजाब प्रान्त के फरीदकोट का रहने वाला, नूर इलाही और आमिर का मझला बेटा था जो आतंकवादी संघटन लश्कर-ए-तोयबा के इशारे पर हमारे देश  में कत्ले-आम करने आया था। कसाब  की ये परिभाषा और पहचान तो मुझे भी मालूम है पर मैं कसाब की इस परिभाषा और पहचान के पार के कसाब की बात कर रहा हूं जिसे मैं तलाशता,पाता और महसूस करता हूँ। मैं जानता हूँ आप को कुछ समाज नहीं आ रहा है और आप झुंझला रहे हैं, मुझे भी कुछ समझ नहीं आता और मैं भी झुंझला जाता हूँ जब मैं ये सोचता हूँ कि एक 21 साल का जवान लड़का जिसने अभी ठीक से दुनिया देखी भी नहीं, दुनिया को मिटाते हुए, मिटने को तैयार कैसे हो गया।

वो जिसने मौत का भयानक खेल खेला और फांसी पर चढ़ा वो बेबस नूर इलाही और गरीब बाप आमिर का बेटा, बहन रुकाया का वीर और छोटे भाई मुनीर का जिम्मेदार बड़ा भाई नहीं हो सकता, वो पकिस्तान के लाहौर में ईंट ढोता, मजदूरी करता, घर चलता कसाब नहीं हो सकता।  ये वो नवजवान नहीं था जो अपने छोटे भाई को खूब पढना चाहता था, अपने माँ बाप को हज करना चाहता था।

एक जिम्मेदार और काबिल बेटे की तरह वो दुनिया की हर ख़ुशी अपने घर वालों को देना चाहता था पर वो अशिक्षा और बेरोजगारी की मार में पिसता गया और सपनों, उपेक्षाओं, आकाँक्षाओं, कुंठाओं और अवसाद में दबता गया। वो बहुत मेहनत करने के बाद दो वक़्त की रोटी भी घर वालों को शान से नहीं दे पा रहा था। दुनिया उसे जालिमों का अड्डा लगने लगी थी। इस बीच कौम और इस्लाम के नाम पर नफरत और मौत की राजनीत करने वाले संघटनों ने उसे ये समझाया की उसकी और उस जैसे सारे गरीबी झेलते मुसलमाओं की दुर्दशा की वजह हमारा देश भारत है, उसे हमसे लड़ाई करनी चाहिए ये लड़ाई नेकी की लड़ाई है और इसी को जिहाद कहते है। चौथी तक पढ़ा कसाब इसे सच मान बैठा और अपने घर वालों को उसके बाद पैसे देने और देखने की शर्त पर मरने-मारने के लिए तैयार हो गया। और फिर उसके  बाद उसका जो अंजाम हुआ आप सब जानते हो।

अगर आप ये सोच रहें हैं कि  कसाब से मुझे कोई सहानभूति है तो आप गलत सोच रहें हैं। उसका जो अंजाम हुआ वो होना ही था। मेरा सवाल ये है की क्या कसाब महज़ एक आतंकवादी था।  जिसे फांसी पर चढा कर मार दिया गया। या फिर कसाब कुछ और भी था। यकीनन कसाब कुछ और भी था जिसे हमने मिठाइयों की मिठास, पटाखों की आवाज, और खुशी के माहौल में भुला दिया। कसाब अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी की मार से भटकी हुई जवानी का प्रतीक था। वो गैर बराबरी और शोषण की इस व्यवस्ता का उत्पाद था। जो कुंठा, हताशा अवसाद और अंधे जूनून की चपेट में आ कर एक ऐसी अंधी सुरंग में चला गया था जहाँ रौशनी के नाम पर बारूद की चिंगारी है, आवाज़ के नाम पर दगती हुई गोलियां हैं। और जिंदगी के नाम पर कुछ है तो मौत,

मैं कसाब की मौत वाली रात चैन से सो नहीं पाया। रात भर उसका चेहरा मेरे नज़रों के सामने नाचता रहा और उसके चेहरे में मुझे चाय की दुकानों में काम करते छोटू, ईंट-बालू ढोते कल्लू, गैराज में काम करते राजू, कारखानों और ऐसी ही कई जगह ज़िन्दगी के सबसे डरावने चहरे का सामना करते करोड़ों बच्चे और नवजवान दिखे जो खून-पसीना एक करने के बाद भी अपने घर वालों को दो वक़्त की रोटी भी नहीं दे पा रहे हैं। और भटक कर लाहौर के मेहनतकश कसाब से मुंबई का आतंकी कसाब बन जा रहे हैं। नक्सलवादी, माओवादी, गली-मोहल्ले में मारपीट करते, चोरी-डकैती करते, अपराध करते, इन भटके हुए नवजवानों में मुझे कसाब दीखता है। कसाब को ख़तम करने से कसाब ख़तम नहीं होंगे, कसाब बनाने वाले  इस सिस्टम को ख़तम करना होगा जहाँ मेहनत से दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती है और भटक कर हथियार उठा लेने पर सरकारें करोड़ों खर्च कर देती है।
  
तुम्हारा--अनंत  

Friday, August 24, 2012

‘’Vibrant Gujarat’’ का असली चेहरा .....किसानो की अनदेखी


‘’Vibrant Gujarat’’ यानी जीवंत गुजरात का नारा देने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार न जाने कहाँ जीवन का संचार करने में जुटी है, अम्बानी, अदानी, और मारुती के खजानों में, अपने नेताओं और नौकरशाहों के सुरंगी पेटों में, गुजरात को स्वर्ग दिखने वाले मीडिया के विज्ञापनों में, या फिर इन्द्र की सभा में मनाये जाने वाले उत्सवों की शान पर बट्टा लगाते गुजराती उत्सवों में. 
सौराष्ट्र और कच्छ क्षेत्र में फैले जिलों में अकाल से जूझता किसान कर्ज और प्रकृति की मार खाकर आत्महत्याओं से अपनी जीवन लीला का दुखांत लिख रहा है और सरकार अपने तोंद पर हाथ फेर रही. ये वो दौर है जब गुजरात में कच्छ, गांधीनगर, पाटण, अहमदाबाद, दाहोद, खेडा, पंचमहल, बडोदरा, और अमरेली, सहित करीब दस से ज्यादा जिले अकाल से जूझ रहे है. और सरकार असंवेदनशीलता की इबारत लिखने में व्यस्त है. गौरतलब है की गुजरात सरकार के मंत्रीमंडल और सचिवों की बैठक में नास्ते में परोसे जाने वाले व्यंजनों और पकवानों पर होने वाले खर्च को बढ़ाकर ढाई गुना कर दिया है. ये फैसला अगस्त के दूसरे सप्ताह से लागू हो गया है. अब बैठक में एक व्यक्ति के नास्ते पर 180 रु खर्च किये जायेंगे. पहले खर्च की सीमा 75 रु थी जो अब ढाई गुना बढ़ने के बाद 180 रु हो गयी है.

मोदी सरकार ने बढते, दौड़ते, और सबको पीछे छोड़ते गुजरात की जो भ्रामक तस्वीर मीडिया के सहारे गढ़ी है उसमे किसानो का लहू का रंग सबसे ज्यादा है. पूजीपतियों के विकास को सम्पूर्ण राज्य का  विकास मानने वाले मोदी जी को किसानो के मौत के आंकड़े नहीं दीखते तभी तो उनकी सरकार में किसानों की मौत का मखौल उड़ाते फैसले लिए जा रहे है. रुपये-रुपये के लिए तरसते किसानों की मौत पर चर्चा करने और राहत की निति बनाने बैठे नेता और नौकरशाह 180 रु का नास्ते चटकर जाते है. ये कैसा विरोधाभास और विडम्बना  है इस देश में, जहाँ योजना आयोग गरीब को ३२रु में जीने, खाने-पीने, और घर चलाने की नसीहत देता है वहीँ  नेता और नौकरशाहों अपने नास्ते पर 180 रु खर्च करते हैं. 

गुजरात में किसानों की मौत की सबसे ज्यादा घटनाएँ राज्य के कृषि मंत्री दिलीप संघाणी के गृह क्षेत्र अमरेली जिले में हुई हैं. फिर भी इस तरह का असंवेदनशील फैसला लिया गया है जोकि सरकार का किसानो के प्रति रवैये की कहानी कहने के लिए पर्याप्त है.
गुजरात परिवर्तन पार्टी(जीपीपी) के महासचिव गोरधन झड़फिया ने कहा है कि उत्सव समारोहों पर धन बर्बाद कर रही राज्य सरकार सूखे से बर्बाद फसलों से हताश किसानों को कोई सहायता नही दे रही. उनके पास उपलब्ध आकंड़ों के अनुसार वर्ष 2003 से मार्च 2007 तक करीब तीन वर्षो में ही 462 किसानों ने आत्महत्या की। उनमें वर्ष 2003 में 94, वर्ष 2004 में 98, वर्ष 2005 में 107, वर्ष 2006 में 127 एवं 31 मार्च 2007 तक के तीन माह में राज्य में 36 किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी। 

किसानों की आत्महत्या पर राजनेता राजनीती कर रहे है और किसानो के परिवार अभिसप्तों का जीवन गुजारने को विवश है. हमारे देश में किसानों और उनके परिवारों की यही नियति है शायद.
 गुजरात के आमलोगों का मानना है कि मोदी सिर्फ मार्केटिंग करने पर विस्वास रखते है वो गुजरात को एक उत्पाद मानते है और उसकी पैकजिंग और मार्केटिंग करने में जुटे रहते है. वो खुद को एक विकासवादी ब्रांड बनाना चाहते है. गांधीनगर विश्वहिंदू परिषद के कार्यकर्ता और व्यवसायी कनुभाई पटेल कहते है कि सरकार चाहती तो अब तक 84 हजार किलोमीटर में नर्मदा नहरों का काम हो गया होता। इससे 1,792 लाख एकड़ को सिंचाई के लिए पानी मिलने लगता, लेकिन सरकार ने किसानों की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया परिणामस्वरुप पिछले दस सालों में सरकार महज 2000 किलोमीटर में नहरों का काम पूरा कर पायी है. वो कहते है कि मोदी कि सरकार में आम आदमी का जीना दुस्वार हो गया है ये सरकार अदानी, अम्बानी, और मारुती के लिए योजना बनाती है आम आदमी को ये नहीं पहचानती.

सिचाई की समस्या यहाँ एक मुख्य समस्या है, नर्बदा-नहर योजना पर काम ऐसे-वैसे ढंग से चल रहा है. नर्मदा मुख्य नहर का 463 किलोमीटर का काम तो पूरा हो गया जबकि माçलया  ब्रांच व सौराष्ट्र ब्रांच का 50-50 फीसदी काम ही पूरा हुआ। कच्छ ब्रांच नर्मदा ब्रांच का काम अभी शुरू ही नही हुआ। राज्य सरकार की प्रशासनिक अकुशलता से नर्मदा का पानी खेतों की बजाए समुद्र में जा रहा है। पानी की कमी से फसलें खेतों पर खड़ी-खड़ी सूख जा रही है और किसान, जिसने महंगे बीज और खाद में कर्ज ले कर पैसे लगाये है विवश हो कर आत्महत्या कर रहा है यही वो विभत्स्य कहानी है जो लगभग पूरे सौराष्ट्र-कच्छ क्षेत्र में फैली हुई है. मोदी सरकार में यदि अभी भी कुछ संवेदना बची है तो कम से कम उसे फसल खराब होने वाले किसानों के लिए प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार रूपए का सरकारी सहायता पैकेज घोषित करना चाहिए।   


तुम्हारा अनंत 


Sunday, August 12, 2012

.मैं अपनी जगह कह के लूंगी......

फेसबुक पर एक दोस्त की दीवार से दूसरे दोस्त की दीवार पर जब मैं टहल रहा था तभी एक जगह मुझे साइना नेहवाल का स्टेटमेंट चस्पा मिला. जिसमे नजरंदाज और अस्वीकार किये जाने की पीड़ा थी. उस पीड़ा के प्रति आत्मस्वाभिमान से लैस प्रतिकार की भावना और अपने पूरे वजूद के साथ जीतने का एहसास था. कुलमिला कर कहूँ तो मुझे साइना के उस कथन में नारी संघर्ष की विजयगाथा की अनुगूंज सुनाई दी थी.


ओलम्पिक में भारतीय अस्मिता की प्रतीक बनी साइना नेहवाल ने अपना दर्द साझा करते हुआ कहा था ‘’मेरे जन्म के एक महीने बाद मेरी दादी मुझे देखने तक नहीं आई. मेरी बड़ी बहन चंद्रान्शु के बाद सात साल के इंतज़ार के बावजूद लड़की पैदा हुई थी और मेरी दादी दादा को इसी बात का अफ़सोस था. मेरे सब रिश्तेदार चाहते थे कि खेलने या किसी भी चीज में लड़कियों को प्रोत्साहन न दिया जाए. इसलिए मेरी उनमे से किसी से भी बमुश्किल ही बात हो पाती है. आज हम जिस घर में रहते है वो मेरे पैसे से ख़रीदा हुआ है और वो घर मेरे ही नाम पर है. .....,, इस पूरे कथन में साइना कहीं नहीं हैं. यहाँ महज एक लड़की या एक औरत बोल रही है. जिसने अपनी मेहनत के बल पर चुनने और ख़ारिज करने की ताकत पा ली है. वो उस तथाकथित रिश्ते-नातो और समाज को नजरंदाज कर देती है. जिन्होंने उसे कभी नजरंदाज किया था, दबाया था. वो अपने कमाए पैसे से जब अपने घर का नाम खुद के नाम पर रख रही होती है उस वक्त वो घर उसे अपने स्वतंत्र वजूद का साकार रूप दिखता है. ये एक नारी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का एहसास है


इधर साइना नेहवाल जब ये शब्द कह रही थी तभी शर्मीला ईरोम की बेटी (मणिपुर की रहने वाली) मारी कॉम टयूनेशिया की मारोया रहाली को 15-6 से हरा कर भारत के लिए लन्दन ओलम्पिक का चौथा पदक सुनिश्चित कर रहीं थी


ये वो समय था जब उधर साइना नेहवाल और मारी कॉम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का मान बढा रही थीं. और इधर हरियाणा की खाप लड़कियों से मोबाईल पर बात करने और झारखंड के फासीवादी संगठन जींस पहनने तक की आजादी छीन लेना चाहते थे.ये वो समय था जब उत्तरप्रदेश के लालगोपालगंज के एक गाँव में 11 साल की एक गूंगी बहरी लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की कीमत उस गाँव के असंवेदनशील बुजुर्ग पंचायत ने 21 हज़ार रूपए आंकी थी. इलाहाबाद जंकशन से 15 साल की एक छात्रा उठा ली गयी थी और चार दिन तक लगातार गैंगरेप झेलती रही. शाहजहाँपुर के तिलहर में घर में सो रही 14 साल की सोनी को दबंगों ने घर से उठा लिया था और बाग में ले जा कर सामूहिक बलात्कार का नरकीय अनुभव कराया था. और उस मासूम ने लोक-लाज के डर से अगली सुबह खुद को आग लगा ली थी. दिल्ली के कॉलसेंटर में काम करने वाली एक लड़की का उसके ही दोस्तों ने गेंगरेप किया था और दिल्ली-आगरा हाइवे के बल्लभगढ़ पुल पर तडपते हुए छोड़ दिया था. बागपत जिले के राठोडा गाँव में एक लड़की बंधक बना ली गयी थी और 6 दिन तक लगातार गैंगरेप की अपमान भरी नरकीय पीड़ा झेल रही थी. देवबंद में 13 वर्षीय 7वीं की छात्रा के साथ बताल्कार किया जा रहा था. ऐसी ही जाने कितनी हकीकत को आइना दिखाती तल्ख़ दर्दभरी कहानियां अखबारों में एक कॉलम और टेलीविजन में दो मिनट की रिपोर्ट में मुसलसल सिमटती जा रहीं थीं. ये वही समय था जब आंकड़ों के आदि हो चुके हम लोग सरकारी एजेंसी की एक रिपोर्ट में ये पढ़ रहे थे कि हमारे इस प्यारे देश में औरतों के साथ हर 47 मिनट में एक बलात्कार, हर 44 मिनट में एक अपहरण, 60% कामकाजी महिलाओं के साथ किसी न किसी रूप में यौनशोषण और लगभग 30,000 बच्चियां गुडिया खेलने की उम्र में जिस्म के बाज़ार में खुद एक खिलौना बन चुकी हैं.


तब कहीं न कहीं महिलाओं से प्रति बढ़ते अपराध के बिना पर ये कहने या सोचने की गुंजाईश घर कर रही थी कि इस पुरुषवादी समाज को महिलाओं की ये विजय और विस्तार रास नहीं आ रहा है. ये समाज जिसे देवी मान सकता है उसे बराबरी का हक देने में कतरा रहा है. शायद ये बात हमारे देश की युवा महिला पीढ़ी समझ चुकी है तभी तो संगीत निर्देशन के क्षेत्र में पुरुष वर्चस्व से लोहा लेते  हुए महाराष्ट्र की स्नेहा खानवलकर बिहार और बनारस की सड़कों की खाक छानती हुई गाँव-मोहल्लों, खेतों-मैदानों में झाडू की आवाज, कपडे धोने की आवाज और मुर्गे की बांग से संगीत रचतीं है और सारे समाज को चौका देती है. वो घर की चार दीवारी में सोहर-कजरी गाने वाली वूमनिया से गैंग आफ वासेपुर में ‘’ओ रे वूमनिया’’ गवाती है और गृहस्ती की उलझन में अपनी पहचान खो चुकी मिथिला की रेखा झा और बनारस की खुशबु राज को एक नई पहचान दिलाते हुए अपना बहनापा जताती है . जब स्नेहा ‘’’मैं तेरी कह के लूँगा’’’ गाती हैं तो लगता है मानो यातना और अपमान सहने वाले वो सारे कंठ जिन्हें हासिये पर ढकेल दिया गया था एक साथ कोरस में गा रहे हो कि ...’’मैं  अपनी जगह कह के लूंगी’’ और मुझे कोई नहीं रोक पायेगा न अपहरण, न बलात्कार, न यौन शोषण और न गैंगरेप, मैं अपनी मंजिल अपना वजूद पा से रहूंगी,,, कहे देती हूँ....मैं अपनी जगह कह के लूंगी.

यह लेख आई-नेक्स्ट(दैनिक जागरण)  में 14 अगस्त को प्रकाशित हुआ है.
लिंक नीचे है....
http://inextepaper.jagran.com/51775/I-next-allahabad/14.08.12#page/17/2 



तुम्हारा- अनंत 


Saturday, July 21, 2012

वो सुबह कभी तो आएगी...


बादल पूरी रौ में बरस रहे थे और मैं सड़क के किनारे एक टीन के शेड के नीचे खड़ा था एक साल पहले बनी सड़क पर एक फिट से भी गहरे गड्ढे हो गए थे और वो पूरी तरह भर चुके थे , नालियाँ चोंक हो गयी थीं, और सड़क पर एक छोटी गंगा का अवतरण हो चुका  था, पर यकीन मानिये इस गंगा को अवतरित कराने के लिए किसी भागीरथी ने कोई तपस्या नहीं की बल्कि ये  गंगा तो  नगरमहापालिका और पी.डब्लू. डी. के संयुक्त प्रताप से आम आदमी की सेवा में बह रही थी और आम आदमी हैं की  इस सेवा से हलकान हो कर प्रसाशन को मंत्रध्वनि में कोस रहा था . 
सड़क के किनारे हर छायादार जगह पर उसकी क्षमता के ज्यादा लोग खड़े हुए थे  जो की इंडिया में डिमांड और सप्लाई की कंडीशन का एक सच्चा सिम्बोलिक प्रेजेंटेशन  कर रहा था .  मैं जिस जगह आर खड़ा था वो क्षत्रफल के हिसाब से थोड़ी बड़ी थी यहाँ लगभग हर क्लास और एज ग्रुप के रेप्रेजेंटेटिव थे  जो इस वक़्त तन मन धन से बस डार्विन के सिधांत ''सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट'' को साधने में लगे हुए थे अगर कोई व्यंग चित्रकार इस समय इस सीन को देखता तो उसके मन में जो पहली कल्पना उठती वो  सम्पूर्ण भारत के आम जन मानस की सामूहिक तस्वीर की होती और वो जो इंडियन सोसाइटी की जो एब्सट्रैक्ट पेंटिंग गढ़ता वो लोक प्रियता और विवादों के सारे रिकार्ड तोड़ देती पर अफ़सोस  ये सब कुछ नहीं था वहां महज एक भीड़ थी और मैं था. 

भीड़ में लोगो ने एकांत का घेरा तोड़ कर अपने हिसाब के चहरे छाटने शुरू कर दिए थे और किस्से-कहानी, गप-सप, चर्चा विमर्श का दौर चल निकला था. स्कूल से लौटते बच्चे के बीच होम्वोर्क और कार्टून कैरेक्टर सेंट्रल थीम थे तो औरतें आस-पड़ोस की राजनीति, घर की कलह और सीरियल के उलझे हुए एपिसोड की उलझनों में उलझी हुईं थी. लड़के लड़कियों का ग्रुप खुद एक दुसरे के लिए देखने, घूरने और फुफुसने  की वजह बना हुआ था तो बुजुर्गों का खेमा नगरमहापालिका को कोसने और भगवान् के गुणगान में जुटा हुआ था. एक व्यस्त भीड़ में शायद मैं ही एक खाली आदमी था जो कोई चेहरा तलाश नहीं कर पाया था जिससे मैं अपने मन में सोसाइटी के कनफ्लिक्ट से उठने वाले सवालों को साझा कर पाता. जिससे मैं गुवाहाटी में बीच चौराहे पर  15 -20  आदमियों की सनक की शिकार 15  साल की उस मासून लड़की  की बात कर पाता जिसे शायद जवानी के दहलीज पर कदम रखने और लड़की होने की सजा दी गयी थी. टीवी पर चलती हुई न्यूज़ को देख कर ज़माने को कोसने वाली उस बड़ी भीड़ के बारे में बात कर पाता  जो अपने घरों की बेटियों  की कैरियत  की दुआ  करने के बाद  मामले को भूल जाती है. मैं दिल्ली के रोहणी इलाके की उन दो बहनों की बात करना चाहता था जो अपने पिता की मृत्यु के बाद समाज में व्याप्त महिला असुरक्षा के डर से अवसाद में चली गयीं थीं और उनके पड़ोसियों ने उनकी कोई सुध तब तक नहीं ली जब तक लगभग 30 साल की उन बहनों के महज 18  किलो वजन के बचे  हुए  शरीर में सडन नहीं दौड़ गयी और जब ये दुर्गन्ध पड़ोसियों की परेशानियों का सबब बनी तो उन्होंने पुलिस को इन्फोर्म किया. इस घटना के साए में विकास को फिर से परिभाषित करने का उठता हुआ सवाल , सेल्फसेंट्रिक अप्रोच  और माइक्रो कल्चर के दलदल में धसते हुए महानगरों में आम आदमी के गुमनाम दर्द की बदनाम कहानी के रंगों से बनता कोलाज जिसे नजरंदाज करके जीने का मतलब है अपने समय को और खुद  को धोखा देना. ऐसी ही कई और घटनाएँ और सवाल हैं  जो अखबारों में तीसरे-चौथे पन्ने पर एक दो-कॉलम तक सिमट कर दम तोड़ देते हैं और इन सवालों पर एक खुली बहस की दरकार को बाजार और पैसे की चमक से गढ़े गए विकास के औजार से हंसिये पर धकेल दिया  जाता है. 

अकेला आदमी ज्यादा देर अकेला  नहीं रह सकता इसीलिए मैंने अपने बैग से अखबार निकल लिया और उसे खोलता हूँ तो पहले ही पन्ने  पर एक बड़ी तस्वीर दिखी जिसमे  पुलिस का एक आला अफसर एक लावारिस लाश का कफ़न अपने जूते से हटा रहा था. कानून बनाने वालों और कानून चलाने वालों की नजरों में आम आदमी की जिंदगी और मौत की क्या कीमत है ये तस्वीर देख कर साफ़ हो रहा था. ये तस्वीर इंसान के भीतर इंसानियत के बचे हुए प्रतिसत की जांच करने की जरूरत को गला फाड़ कर कह रही थी. हमारा पूरा एजुकेशन सिस्टम और अफसरों की सोसलाईजेशन की  प्रोसेस इस तस्वीर से खड़े किये गए सवालों की ज़द में था और मैं एक गहरी सोच में डूबा एक गहरे मौन में उतर गया था. बारिश थम चुकी थी और भीड़ भी छंट  गयी थी जिसे जहाँ जाना था वो वहां चला गया था सिवाय मेरे, मैं अब भी यही सोच रहा था की कब इंडियन सोसाइटी को रेप्रेजेंट करने वाली ये भीड़ इन सवालों और इन घटनाओं पर खुल कर बात करेगी. कब वो दिन आएगा जब ये सारे सवाल हमारी जिंदगी में अहमियत रखने  लगेंगे और हम इनके लिए  बोलने और लड़ने लगेंगे मुझे लगता है की वो दिन अभी दूर है जब हम टीवी सेट के सामने ज़माने को कोसने की जगह अपनी पहल पर कुछ सार्थक और रचनात्मक करने समाज के बीच आयेंगे पर ये यकीन भी है की वो दिन भी आएगा जरूर आएगा . यही सब सोचते और साहिर साहब का गीत '''वो सुबह कभी तो आएगी..... गुनगुनाते हुए मैं उस टीन के शेड से बहार निकल  कर घर की ओर चल देता हूँ.   
अनुराग अनंत 

यह लेख आई-नेक्स्ट(दैनिक जागरण)  में 1 अगस्त को प्रकाशित हुआ है  लिंक नीचे है 



Tuesday, May 29, 2012

ये कैद है कि दिखती नहीं है ..........


पंछीनदिया और पवन के झोंकों की तरह ही हमारा बचपन भी आज़ाद होता है वो न किसी शरहद के बांधे बंधता हैन किसी दीवार के रोके रुकता है और न ही किसी लकीर के बांटे बांटता है. वो जब तक रहता है अपने नैचुरल फ्लो में बहता रहता है और जब बीत जाता है तो हम  जिंदगी के किसी मोड़ पर उसकी याद में  जगजीत सिंह की तरह ..ये दौलत भी ले लोये शोहरत  भी ले लोभले छीन लो मुझसे मेरी जवानीमगर मुझको लौटा दोवो बचपन का सावन,वो कागज की कश्तीवो बारिश का पानी.... गाते हुए पाए जाते हैं. अपनी सारी दौलतशोहरत और जवानी को बचपन के सावनकागज की कश्ती और बारिश के पानी पर वार देने का एक जज्बा रह-रह कर हमारे भीतर से आवाज़ लगता है और हम किसी भी कीमत पर अपने बचपन को फिर से जीने की कभी न पूरी हो सकने वाली तम्मना के साथ जीने को मजबूर होते है. जिंदगी को अगर एक किताब मान लिया जाए तो मैं मानता हूँ की हर किसी का एक ही जवाब होगा कि वो बचपन के चैप्टर को फिर से पढना चाहता है और जिन पन्नो पर बचपन की शैतानियों के किस्से लिखे है उन पन्नो की महक से उसका रोम-रोम आज भी महक उठता है.

बचपन की बात चले और गर्मियों की छुट्टियों का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहीं सकताकम से कम मेरे साथ तो नहीं ही होगा क्योंकि  मेरे बचपन में गर्मियों की बहुत सारी यादें हैजिसमे आम के घने बगीचे हैफूलों के बाग़ हैउड़ती हुई तितलियाँ  हैबारिश हैकागज की कश्ती हैलहलहाते खेत हैमासूम से खेल-खिलौने हैखुट्टी-मिल्ली हैनानी-दादी की कहानियां हैचोरी के लड्डू हैझूठी- सच्ची अफवाहें हैगुड्डा-गुडिया हैऔर इन सब के आगे वो दोस्त है जिन्हें मैंने उतनी ही इमानदारी और सच्चाई  के साथ बनाया था. जितनी सच्चाई और इमानदारी के साथ हम साँसे लेते है और पलकें झपकाते है. जैसे पलक झपकने और  सांसों के आने-जाने की हमें कोई खबर नहीं होती और ये बस हो जाते है ठीक उसी तरह मैंने वो दोस्त बनाये नहीं थे बस बन गए थे. मैंने उन दोस्तों में कभी जात-धर्मगरीबी-अमीरीगोरा-कालासेक्स-जेंडर जैसा कुछ देखने या तलाशने की कोई कोशिश नहीं की. वो मेरे लिए बस मेरे दोस्त थे,बस दोस्त. फिर चाहे वो प्रधान जी का बेटा हो या फिर घर काम करने वाली आई की बेटी हो मेरे लिए सब बार बार थे. मैं जिस तरह किसी चुन्नूमुन्नू रामू,श्यामू के साथ रहता था ठीक उसी तरह किसी मुन्नीगुड्डीसीतागीता के साथ पाया जाता था. ये बात सिर्फ मुझ पर ही लागू नहीं थी बल्कि हम सब के सब ऐसे ही थे. और मेरे ख्याल से हर बचपन ऐसा ही होता है आपका भी रहा होगा. पर जैसे-जैसे हम बड़े होते है कई  तरह की शरहदोंदीवारों और लकीरों के शिकार होते जाते हैये हमें बच्चो से लड़का-लड़कीअमीर-गरीबहिन्दू-मुसलमानब्रह्मण-दलित और ना जाने क्या क्या बना देतीं  है. हम कहने को तो आज़ाद होते है पर अगर सही से देखें तो हम आँखों से न दिखने वाली शरहदोंदीवारों  और लकीरों  में कैद है. जिन्हें बस महसूस किया जा सकता है.जब हम सोकॉल्ड सिनिअरसोकॉल्ड सिविलाइज्ड हो जाते है तब हमें किसी से मिलने  तो छोडिये बात करने से पहले भी ये सोचना पढता है कि सामने वाला हमारे लेवल का है या नहीं इस आदमी या औरत से बात करने पर सोसाइटी का कहेगी सामने वाले की जात से लेकर कपड़े तक सब कुछ हम देखने लग जाते है और अपने लेवल और स्टैण्डर्ड  के चक्कर में ऐसा पड़ते है की वो बचपन की पंछीनदिया और  पवन के झोंके वाली आजादी कहीं गुम हो जाती है और हम एक कैदी ही रह जाते हैं.

मेरा ये दर्द आपने भी जिया होगा क्योंकि मैं ये जो आप से शेयर कर रहा हूँ ये एक भोगा हुआ यथार्थ है. ये न दिखने वाली कैद तब महसूस की जा सकती है जब आप हाइयर एजुकेशन में हों या अच्छी जॉब मे हों और गरीबी की वजह से आपका बचपन का दोस्त सब्जी का ठेला या ऐसा ही कोई काम करता हो और आप उससे वैसे ही मिलना चाहें जैसा बचपन मे मिलते थे तो आप कभी नहीं मिल सकते क्योंकि वो आपके स्टैण्डर्ड का नहीं रहा और सोसाइटी में रहना है तो स्टैण्डर्ड बना कर रहना पड़ेगा. इसी तरह जब कोई लड़की जो आपकी बचपन मे सबसे अच्छी दोस्त रही हो आपको पहचान तक नहीं पाती और रास्ते मे आँख चुराते हुए चली जाती है वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वो समाज की उस सोच की शरहद मे कैद है जो किसी जवान लड़के-लड़की को दोस्त नहीं मानती. वो सोच कहती है कि लड़की एक सफ़ेद चादर होती है जिस पर एक बार दाग लग जाए तो कभी धोया नहीं जा सकता. इसीलिए वो लड़की उसी सोकॉल्ड सफेदी को बचाने के लिए ही अपने बचपन के दोस्त तक से अजनबियों की तरह व्यवहार करती है.

ऐसी ही कई और दीवारें, शरहदें और लकीरें है जो हमे रोकती, बांधती और बांटती रहती है. और हम सोसाइटी और स्टैण्डर्ड के नाम पर एक जकड़न और कैद को हंस कर जीने लिए तैयार हो जाते है. शायद यही वजह है जो हमे जकड़न और कैद के  बड़कपन से कहीं ज्यादा अच्छा मासूम और आज़ाद बचपन लगता है और हम उसे फिर से जीने के लिए हम हँसकर  अपनी सारी दौलत, शोहरत और जवानी लुटाने को तैयार हो जाते है.

तुम्हारा--अनंत 


    

Thursday, May 24, 2012

शोषण से बड़ी संघर्ष की लकीर ..................

एक बेख़ौफ़ लड़की जिसकी आँखों में गुस्से का शैलाब तैर रहा हो, कलाइयों में खनकती हुई चूड़ियों की जगह चमकती रिवाल्वर हो और होठों पर मखमली मुस्कान की जगह एक शक्ति भरी ललकार ने ले रखी हो, आपके हिन्दुस्तानी मन को चौंका  सकती है. आपके इस आश्चर्य का पैमाना तब और भी बढ़ सकता है जब उस लड़की की आड़ में एक हट्टा-कट्टा नवजवान छिप कर शरण ले रहा हो. फिल्म इश्क्ज़ादे के एक पोस्टर में मैंने जब ये तस्वीर देखी जिसमे परणीती चोपड़ा  के आड़ में अर्जुन कपूर छिपते हुए दिखाए गए हैं तो मेरे मन में एक अनजानी सी तसल्ली का भाव उठा, ये भाव क्यों आया मैं नहीं जनता बस इतना कह सकता हूँ कि किसी हिन्दुस्तानी लड़की को तस्वीर में ही सही पर इतनी  बेख़ौफ़, बेबाक और इस तरह लड़ते हुए देख कर अजब संतोष मिला था. ये तस्वीर हिन्दुस्तानी लड़की की बरसो पुरानी गढ़ी-गढ़ाई छवि की हदें तोड़ रही थी और उस परिभाषा के एकदम उलट  थी जिसमे लड़की को डरी-सहमी, सुशील,सुन्दर, संस्कारी, सहनशील और अपनी खुद की सुरक्षा के लिए भी मर्दों की मोहताज बताया गया है.ये तस्वीर  उस देश में आशा की किरण सी लगी  थी  जिस देश में हर 47 मिनट के बाद एक बलात्कार होता हो, हर 44 मिनट के बाद एक महिला का अपहरण होता हो, 60 % कामकाजी महिलाएं किसी न किसी तरह यौन शोषण का शिकार होती हो, लगभग 30  हज़ार बच्चियां वस्यावृति की गिरफ्त में हों. जहाँ स्कूल-कालेज, बस-ट्रेन, गली-सड़क, गाँव-शहर यहाँ तक ही घर में भी महिलाएं असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हों, जहाँ  सत्ता के गलियारों से लेकर खेत-खलिहानों  तक महिलाओं के शोषण की दर्द भरी कहानी फैली हो. जहाँ औरत  महज एक जिस्म हो और स्त्री-विमर्श देह से शुरू हो कर देह पर ही ख़तम हो जाता हो. जहाँ  औरत को देवी कह कर शोषण किया जाता हो और हर  तरह के बलिदान के लिए हंस कर तैयार रहने को विवश  किया जाता हो, वहां किसी महिला की ऐसी तस्वीर चौंकाती भी है  और तसल्ली भी देती है जिसमे वो अपनी सुरक्षा के लिए किसी मर्द  की मोहताज़ नहीं है बल्कि किसी मर्द को भी सुरक्षा देने का माद्दा रखती है और ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार है.

हमारी सोसाइटी में वूमेन आइडेन्टिटी को लेकर काफी कंट्राडिक्शन है. एक तरफ हम उसे शक्तिस्वरूपा कहते हुए पूजते है तो दूसरी तरफ हम उसे उसके अबलापन और कमजोरी का एहसास कराते हुए उसकी बेहतरी के लिए चारदीवारी के भीतर अपना संसार तलाशने और गढ़ने की नसीहत देते है.पर इसके बाद भी अगर कोई औरत आजादी के एहसास को जीने के लिए अपने वजूद को तलाशते हुए समाज में आती है तो उसे हमारे उसी सभ्य समाज में बलात्कार और शोषण का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में व्याप्त  ये विरोधाभाष और स्त्रियों को कम समझने का नजरिया हमारे विकास का सबसे बड़ा बाधक है

हम अक्सर इतिहास के उन पन्नो को नजरअंदाज कर देते है जिनमे स्त्रियों के साहस, संघर्ष और शौर्य  की गाथा लिखी है. मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर को देख कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उन वीरांगनाओं की याद आ गयी जिन्होंने घर की दहलीज लांघ कर फिरंगियों के दांत खट्टे कर दिए थे और जिनके कंगनों की खनक तलवार की झंकार में बदल गयी थी. ये मेरठ की सभ्य समाज से निष्कासित कोठे वाली नर्तककियां ही थीं जिन्होंने हिन्दुस्तानी फौजियों को ताने मार कर देश के लिए लड़ने को  प्रेरित किया था. 1857 के महासंग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, अवन्ती बाई,जीनत महल, बेगम हजरत महल, जैसी  मुख्यधारा की कुलीन महिलाओं के अलावा भगवती देवी, इन्दर कौर, जमीला बाई, उदा पासी, आशा देवी, बख्तावारी देवी, जैसी पिछड़ी और दलित महिलाएं भी हथियार उठा कर देश के लिए लड़ रही थी. 12 मई को प्रबुद्धनगर में बख्तावारी देवी अंग्रेजों  के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं उन्होंने कैराना की महिलाओं का एक जत्था बना रखा था .आशा देवी भी इन्ही क्रांतिकारी महिलाओं में शामिल थी. बख्तावारी देवी  और आशा देवी ने अपनी महिला सेना के साथ शामली तहसील पर धावा बोल दिया जहाँ शोभा देवी ने पहले से ही महिलाओं की एक सेना बना रखी  थी जिसमे करीब 250  महिलाएं शामिल थीं ये सभी महिलाये अंग्रेजों से खूब लड़ीं और अपने अप्रतिम शौर्य की अमिट गाथा कह गयी. इस विद्रोह की सजा के तौर पर लगभग 250 महिलाओं को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. असगरी बेगम को जिन्दा जला दिया गया और शोभा त्यागी को आधा जमीन में गाड़ कर  कुत्तों से नुचवाया गया. इससे कहीं बड़ी,गहरी और गाढ़ी जुल्म  की  दास्तान लिखी गयी पर हिन्दुस्तानी महिलाएं न डिगीं और न  ही टूटीं बल्कि संघर्ष की राह  पर देश की रक्षा के लिए बलिदान हो गयी.

पित्रसत्तात्मक समाज महिलाओं के योगदान को कम करके आंकता या नजरअंदाज करता है पर अफ़सोस तो तब होता है जब खुद वूमेन  कमुनिटी अपने इस स्वर्णिम साहस, संघर्ष और शौर्य के इतिहास से कटी हुई पायी जाती है आज जरूरत है कि देश की लड़कियां  उन लाखों शहीद विरंगानायों  से प्रेरणा ले जो अपनी सुरक्षा  के लिए किसी मर्द के कन्धों की  मोहताज नहीं थीं बल्कि सारे  देश की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हुईं थीं.
मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर में अतीत के सहस से प्रेरणा लेती हुई भविष्य की उस  हिन्दुस्तानी लड़की की झलक मिली थी जो शोषण से बड़ी संघर्ष की लकीर खींचने पर यकीन रखती है. 

तुम्हारा--अनंत 

Thursday, April 26, 2012

हार न मानने की ज़िद......

continuity has its own music''यानी सततता का अपना संगीत होता है, मैंने जब ये कोटेशन पढ़ा, तब ये मुझे बिलकुल समझ नहीं आया था. पर उस दिन इस कोटेशन का मतलब मुझे अचानक से समझ में आ गया जब ट्रेन में सफ़र के दौरान, मेरे आपर्टमेंट के दुसरे छोर से एक खनकती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी....ये हौसला कैसे झुके , ये आरजू कैसे रुके, मंजिल मुस्किल तो क्या, साहिल धुंधला तो क्या.....दुनिया और जिंदगी में कुछ कर दिखाने के जज्बे से लैस ''डोर'' फिल्म के इस गाने को सुन कर मैंने अपनी इच्क्षा  से अपनी नींद तोड़ ली और अपनी बर्थ पर बैठ गया, लगातार चलती हुई ट्रेन, उसके खड़कते हुए  पुर्जे, लोहे की पटरी पर दौड़ते हुए लोहे के पहिये, ट्रेन का सायरन और पैसेंजर्स की आवाज़ सबने मिल कर एक मुजिकल कोलाज़ सा बना दिया था. ये म्यूजिक continuity की म्यूजिक थी, लग रहा था कि कोई बैंड ग्रुप ट्रेन में इंविसिबल फॉर्म में अपने इन्सट्रूमेंट बजा रहा है और उनका साथ देने के लिए अपार्टमेन्ट के दुसरे छोर  से कोई गा रहा है, 

अभी गाने का मुखड़ा भी ख़तम नहीं हुआ था कि गाने का ट्रैक चेंज का दिया गया और इस बार 1940 की ''बंधन'' फिल्म का गाना ...चना जोरगरम बाबू मैं लाया मजेदार...चना जोरगरम.... गाते हुए वो मखमली आवाज़ मेरे कुछ नजदीक आती हुई सी लगी. कुछ ही देर में 12 -14 साल का वो गायक मेरी आँखों के सामने था, कमर पर चने की एक पेटी बांधे, कंधे  पर पानमसाला की लडियां, जेब में सिगरेट के पैकेट, मैले कुचैले-कपड़ों  में हँसता गाता सा बचपन, मेरे सामने जिंदगी के गीत गाते हुए खड़ा था उसकी आवाज में एक अजीब सी कशिश थी जो लोगों को अपनी  ओर खीच रही थी, मैं उस बच्चे की प्रतिभा देख कर चौंक गया था, जिस आवाज़ को पाने के लिए लोग घंटो रियाज करते हैं, हजारों रूपए टुय्शन  पर खर्च कर देते हैं वो उसने न जाने कैसे हासिल कर ली थी.

दस साल की छोटी सी उम्र में उस बच्चे के पिता की ट्रेन दुर्घटना में मौत हो गयी थी, वो अंधे थे और ट्रेन पर ही मोमफाली, पान मसाला, वगैरह बेच कर घर का खर्च चलते थे.घर पर बीमार माँ और छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी उस नन्हे कंधो पर आ गयी थी. जिंदगी से डर कर भागने के बजाय उसने लड़ना मंजूर किया और दस साल की उम्र से ही ट्रेन पर चने बेचने लगा. ये सारी जानकारी मुझे उस बच्चे से बात-चीत के दौरान मालूम चली. मैंने उससे उसके सपने के बारे में पुछा तो उसका सीधा जवाब था ''अपने छोटे भाई बहनों को पढ़ा-लिखा कर बहुत बड़ा आदमी बनाऊंगा''.
जीवन के प्रति ये उर्जावान नजरिया और स्ट्रगल की ये स्पिरिट देख कर मन में  अजीब सी इन्स्पिरेशनल वेब बहने लगी थी.खुद अनपढ़ हो कर भी अपने भाई बहनों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए उसका ये संघर्ष वाकई सलाम करने लायक था.उसकी मेरी बात अभी चल ही रही थी की दूसरा स्टेशन आ गया और वो बच्चा कोई और गीत गुनगुनाता हुआ उतर गया. पर मैं उसके जाने बाद भी उसके होने को महसूस करता रहा और ये सोचता रहा ही छोटी सी उम्र में लाइफ के इतने बड़े चैलेन्ज का  हंस कर सामना करने वाले  इस बच्चे में एक आइडियल के सारे गुण  हैं. आज जब यूथ  थोड़ी सी परेशानी से हार कर जिंदगी ख़तम कर ले रहा है तभी  ये बच्चा हँसते  हुए परेशानियों के पार जाने के लिए स्ट्रगल कर रहा है. उसकी आँखों में मुझे  डर या उदासी नहीं दिखी थी बल्कि उम्मीद और स्ट्रगल  की चमक दिखी थी. उस बच्चे को देख कर मुंह से अनायास  फूट पड़ा था. हार न मानने की ज़िद जीत तक  ले जाती है.

आप-हम सब लोग अपने आस-पास रोज न जाने कितने बच्चों को, बूढों को और विकलांगों को, काम करते हुए देखते हैं. और उसे देख कर बस यूं ही जाने देते हैं, पर जरा सोच कर देखिये कि जब कुछ न होते हुए भी ये लोग जिंदगी से बिना कोई सिकवा-शिकायत करे अपने सपनों के लिए संघर्ष कर सकते है तो हम क्यों नहीं ? मेरा यकीं मानिये जिस दिन आप ये सोच कर काम करेंगे की जब  ये 12 -14 साल का बच्चा १२ घंटे  हँसते हुए मेहनत कर सकता है तो मुझे तो और करनी चाहिए. ये सोच आपके लक्ष्य के प्रति आपके प्यार को पढ़ा देगी और आपको आपका काम आसान लगने लगेगा. वैसे भी जिस देश में बचपन 12  घंटे सिर्फ रोटी के लिए काम कर रहा हो उस देश की जवानी भला कैसे आराम  कर  सकती है.

हम किताबों में, अखबारों में, टीवी पर, रेडियो पर अपने आइडियल ढूढ़ते  है, जिनके संघर्ष और मेहनत को हम अपनी आँखों से देख नहीं पाते , हमें अपना आइडियल इन्ही   बच्चों में तलाशना चाहिए जो हमारी आँखों के सामने जी तोड़  मेहनत करते है और जिंदगी की एक नई परिभाषा गढ़ते है.इन्ही बच्चों की जमात से ही डॉ.कलाम और अब्राहम लिंकन जैसे लोग निकलते है. जो परेशानियाँ देख कर घबराते नहीं मुस्कुराते है, गाते है वही   परेशानियों के पार जीत के पास तक जाते है. उस बच्चे के जीवन में परेशानियों के खिलाफ  चल रहे  लगातार  संघर्ष में मैंने एक संगीत सुना था; संघर्ष का संगीत. ये संगीत सुन कर मैंने वही कोटेशन बोला था  जो मुझे बहुत पहले  समझ में नहीं आया था और जिसका मतलब मैंने उस बच्चे से जाना था ''continuity has its own music''


ये आलेख आई-नेक्स्ट (दैनिक जागरण ) में 24-04-2012 को प्रकाशित हुआ है; आलेख का लिंक ये रहा :----http://epaper.inextlive.com/34637/INEXT-LUCKNOW/24.04.12#page/15/1

तुम्हारा--अनंत