Monday, February 27, 2012

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले....

रात के बाद सुबह होना कोई नई बात नहीं है, और न ही रविवार के बाद सोमवार का  आना कोई आश्चर्य की बात है, 26 फ़रवरी के बाद 27 फरवरी आती है, इस बात को जान कर भी चौकने वाली कोई घटना नहीं हो सकती, पर मेरे साथ अक्सर ऐसी घटनाएं घट जाती है .मैं  चौंक जाता हूँ, मुझे आश्चर्य होता है,और हर बार मुझे ये कुछ नया सा लगता है,जब मैं ये देखता हूँ कि ये तारिख, दिन और सुबह भी साधारण सुबह, तारिख और दिन की तरह आये और चले गए. मुझे बहुत हैरानी,कोफ़्त और दुःख होता है, जब मैं ये देखता हूँ कि देश-दुनिया की छोटी से छोटी घटना की पूरी-पूरी जानकारी रखने वाला युवा अपने ही  देश के शहीदों और महापुरुषों के जन्मदिवस और शहादत दिवस भूल गया है.
अभी पिछले दिनों एक स्वयंसेवी संघटन ने इंडिया की रीनऊंड यूनिवर्सिटी और हाइयर एजुकेशनल इंस्टीटूशनस में एक सर्वे किया जिसका रिजल्ट हमें सोचने को मजबूर करता है.इस सर्वे से पता चलता है कि हमारे देश में हाइयर एजुकेशन ले रहे 80% यूथ को चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे फेमस शहीदों, तक के जन्मदिवस और शहादत दिवस के बारे भी नहीं मालूम. उनके माता-पिता, बर्थ प्लेस, एजुकेशन जैसे पॉइंट पर इन्फार्मेशन होना तो दूर कि बात है. खुदीराम बोस, उद्धम सिंह, मदनलाल ढींगरा, सूर्यसेन जैसे शहीदों के नाम तक भी कई लोगों को नहीं मालूम थे.
देश के शहीदों के प्रति ये हाल और रवैया, देश के एजुकेटेड यूथ का है. तो कम पढ़े-लिखे और न पढ़े लिखों को दोष नहीं दिया जा सकता. इस दशा में जब भी शहीदों के लिए कहा गया मशहूर शेर ...शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बके निशाँ होगा,,मैं सुनता हूँ तो मेरे दिल में इस शेर के जवाब में एक शेर और गूँज उठता है कि ''जिस भी शायर ने ये शेर कहा होगा,, बड़ा भोला रहा होगा, बड़ा नादाँ रहा होगा,, मेरी हताशा की वजह ये हैं जिस नई नस्ल के लिए ये क्रांतिकारी  शहीद हुए थे जिनकी आजादी के लिए उन्होंने अपने  प्राण गवांये थे उस नई नस्ल को अमिताभ बच्चन से ले कर मल्लिका शेरावत तक की सारी  इन्फार्मेशन है. उनकी बर्थडे डेट से लेकर उनके टेस्ट और फेवरेटस की पूरी लिस्ट उसे जुबानी रटी है, लेकिन उसके पास इतना समय नहीं है कि वो शहीदों के बारे में सोचे, बातें करे, उनको अपने भीतर उतारने के लिए संघर्ष करे, उसे इतनी भी जरूरत और फुर्सत नहीं है कि वो कम से कम उन शहीदों को उनके जन्मदिवस और शहादत दिवस पर याद कर ले.
मैकडोनाल्ड के पिज्जा और मॉल्स के ऑफर में उलझे हुए युवा को, गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड, मोबाइल, फेसबुक, बाइक,यूएसबी कार, और करियर के अलावा किसी भी चीज की कोई फिकर नहीं है,वो उस दैन्य स्तिथि में पहुँच गया है जहाँ उसकी सोच की उड़ान उस पर ही ख़तम हो जाती है, उसके सपने उसकी जद में ही दम तोड़ देते है, उसके दिल में कोई हलचल नहीं मचती है जब किसी की बहन को कोई दबंग विधायक या उसका गुंडा राजनीतिक पार्टियों के झंडे लहराते हुए अपने साथ उठा ले जाते है और उसके साथ वो करता है जिसे सुन कर भी रूह काँप जाती है, ये युवा तब ही रोमांटिक फंतासियों में खोये रहते है जब लखीमपुर खीरी की ''सोनम'' सरीखी मासूम और कम उम्र की लड़कियां पुलिसवालों और तथाकथित रक्षकों की कुंठा की  शिकार हो रही होतीं हैं,ये युवा तब भी सचिन के छक्कों  और चौकों की तारीफ में कसीदे पढ़ रहा होता है जब सरकार विकास के नाम पर किसानों और आदिवासियों की जमीने छीन रही होती है और उनके संघर्ष को बन्दूक की नोक पर दबाया जा रहा होता है. ये युवा फिल्मों के कलाकारों के सौन्दर्य के सरोवर में नहा रहा होता है और देश की कई हज़ार लड़कियां महज़ रोटी के लिए तन बेच रही होती है. हजरों-हज़ार बच्चे  चाय की दुकानों पर अपना बचपन खपा रहे होते हैं.   
सवालिया निशानों की एक बड़ी फ़ौज आज हमारे एजुकेशन सिस्टम, गवर्नमेंट, पैरेंट्स, मीडिया और यूथ को घेरे खड़ी है. और इस सवाल का जवाब मांग रही है कि दोषी कौन है ? ऐसा क्यों हो रहा है? आज ये जिम्मेदारी नवजवानों के कंधे पर सबसे ज्यादा है कि वो खुद इस बात को सिद्ध करें  कि वो सिर्फ वलेंटाइन डे सरीखे डेस की ही फ़िक्र और इंतिजार नहीं करता, उसे सिर्फ खुद की ही  फ़िक्र नहीं है बल्कि वो उन सारे मुद्दों को गंभीरता से लेता है और उनके लिए संघर्ष करता है, जिनसे प्रथम दृष्टया उसे कटा हुआ मान लिया जाता है, वो इन शहीदों और महापुरुषों के जन्म और शहादत दिवस का भी इंतिजार करता हैं ताकि वो उनके लिए अपने दिल में बसे प्यार को दिखा सके.ये जता  सके कि हम उनके ऋणी है. जिन्होंने हमें आज़ादी दिलाई.
इनफ़ोसिस के फाउंडर, वर्ल्डफेम, इंडियन साइबर आइकान, एन.आर. नारायणमूर्ति से जब भ्रष्टाचार के कारण के बारे में पूछा गया तो उन्होंने दो टूक आंसर दिया कि ....आज हमारे देश में सच्चे रोल मॉडल की कमी हो गई है. ऐसे रोल मॉडल जिन्होंने समाज को कुछ देने  के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया, आज ऐसे लोग समाज में चर्चा के दायरे से बहार हो गए हैं. हम उन्हें हीरो समझ बैठे है जो किसी और के लिखे संवाद दोहराते है.किसी के निर्देशन से अभिनय करते है, टूथपेस्ट से ले कर अंदरवेयर तक बेचते है और अपनी उन्नति और विकास के अलावा कुछ और नहीं सोचते है,राजनीती, सिनेमा, खेल और सामाजिक कार्य हर क्षेत्र में ऐसे ही लोग छाए हुए है, घोटालों  पर घोटाले कर के मुस्काते हुए नेता हो या रिकार्ड की अंधी दौड़ में भागते सचिन सरीखे खिलाडी जो हिन्दुस्तान के युवा और सम्भावना से लैस शक्ति के अवसर छीन रहे हैं. ये लोग अच्छे हैं, इनमे गुण भी है, तभी ये यहाँ तक पहुंचे है , पर ये हीरो नहीं हैं. हमारे सच्चे हीरो हमारे शहीद है जिन्हें हम भूलते जा रहे है हमें फिर से उन शहीदों के नाम और उनके कामों की चर्चा को मेन स्ट्रीम में ले कर आना होगा. नारायणमूर्ति कहते हैं की उनकी सफलता का कारण ये था कि उनके रोल मॉडल ऐसे लोग थे जिन्होंने खुद  की उन्नति करने के साथ समाज को भी बहुत कुछ दिया, समाज में फैली विसंगतियों के खिलाफ लड़े, 
वो व्यक्तिगत तौर महात्मा गाँधी और सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली कुआन येव से प्रभावित हैं .जो निर्विवादित रूप से 30 साल तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे और उन्होंने अपने देश सिंगापुर को तीसरी दुनिया की त्रासदी और पिछड़ेपन से उबार कर विकसित देशों की श्रेणी  में ला कर खड़ा कर दिया.
समाज में शहीदों को याद करते रहना  इसलिए जरूरी है क्योंकि उनके जीवन से हमें देश के लिए, समाज के लिए निस्वार्थ जीने की प्रेरणा मिलती है, पर ये भी बात समझ लेनी चाहिए कि हम जिस समय और  जिस व्यवस्था में जी रहे है वो ऐसे लोगों को चर्चा का विषय नहीं होने देना चाहती , जिन्होंने दूसरों की गुलामी के लिए अपनी आजादी दांव पर लगा दी, जिन्होंने दूसरों के आंसुओं के लिए खुद की मुस्कान की बलि चढ़ा दी.ये व्यवस्था ऐसे व्यक्तित्व से युवाओं का ध्यान खीचना चाहती है .
ये लेख कोई लेख न हो कर एक आइना है जिसमे आज का युवा अपना चेहरा देख सकता है और ये महसूस कर सकता है की उसके कल और आज में कितना अंतर है. इस अंतर को बांप कर ही उसे अपने कल की सूरत गढ़नी होगी. 

27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के अल्फ्रेडपार्क  में हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी  के चीफ चन्द्रशेखर आज़ाद देश की आजादी  के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए थे और 24 दिन बाद यानी 23 मार्च 1931 को शहीदे आज़म भगतसिंह, राजगुरु, और सुखदेव को फांसी दी गयी थी. मैं उनके विषय मे इतिहासिक शैली मे, घर, गाँव और माता-पिता के नाम नहीं गिनाऊंगा, मैं उनसे जुडी एक घटना बताऊंगा या फिर यूं कहूं की उनकी शहादत के समय की घटना बताऊंगा. आज के  नवजवान को ये देखना चाहिये कि कैसे जवानी जी जाती है दूसरों के लिए लड़ते हुए समाज को आज़ाद करने के लिए कैसे जान तक की परवाह नहीं की आज़ाद ने, और उनकी शहादत का जनता ने कैसे गले लगा कर अभिनन्दन  किया.

हिदुस्तान सोसिस्लिस्ट रीपब्लिकन आर्मी  द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेवराज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फरवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की शहादत की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की शहादत की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।

आज़ाद के शहादत की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी। । बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पडा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फरवरी १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे पर उन्हें क्या पता था कि इलाहाबाद की इसी धरा पर कुछ दिनों बाद उनका भी बलिदान होगा!
इस पूरे घटनाक्रम को पढ़ कर पता चलता है की आज़ाद देशप्रेम और अपने मित्रों के लिए पूरी तरह समर्पित थे, उनके भीतर बेहद जीवंत और जीवट व्यक्ति बसता था जो किसी भी अन्याय के खिलाफ अंतिम सांस तक लड़ने की कटिबद्धता निभाता रहा.  उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियोको बचाने के लिए एड़ी चोटी का बल एक कर दिया था.
हमें अबकी बार ये तारीखें नहीं भूलनी है और ये दिखा देना है कि यूथ रोज डे, टैडी डे, चोकलेट डे, हग डे, किस डे, वलेंटाइन डे सरीखे डेस के साथ शहीदों के शहादत दिवस भी याद रखता है. वो डर्टी पिक्चर की विद्या बालन  की बात करने  के साथ-साथ उन शहीदों के संघर्षों की बात भी करता है. उसकी जुबान पर मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी जैसे गानों के साथ-साथ माई  रंग दे बसंती चोला और सरफरोसी की तम्मना जैसे गीत भी लहराते है. वो राखी सावंत के लटकों-झटकों  के साथ बक्सर के जंगलों में पुलिसिया अत्याचार भोग रही ''सोनी सोरी'' की भी आवाज़ उठता है, वो फेसबुक और किसी भी मंच जहाँ भी वो मौजूद है, से इन शहीदों के शहादत के किस्से पढता है. और उन्हें चर्चा की मुख्य धारा में लाता है, और अंत में, मेरे नवजवान दोस्तों मैं अफ़सोस के साथ कह रहा हूँ पर ये सच है कि अगर ऐसा नहीं हो पाया और युवा  ज़माने के साथ चलने के नाम पर उन शहीदों को भूलता चला गया तो वो दिन दूर नहीं जब युवा हिन्दुस्तान (यंगिस्तान) की पहचान में कसीदे की तरह पढ़ी जाने वाली लाइन ...जिस ओर जवानी चलती उस और जमाना चलता है ..उलट कर कुछ यूं  हो जाएगी कि...जिस और जमाना चलता है उस और जवानी चलती है. पर मुझे विस्वास  है कि हमारे देश का युवा  ऐसा नहीं होने देगा. उसकी  रगों  में चंदशेखर आजाद का लहू दौड़ रहा है  
तुम्हारा--अनंत 




Monday, February 20, 2012

दिल मांगे मोर फैक्टर बहुत जरूरी है ............

लतीफा फातमी और ताज मुहम्मद खान हिन्दुस्तान के विभाजन के समय पेशावर से दिल्ली चले आये थे.इस मध्यम वर्गीय परिवार में एक साधारण से बच्चे ने 2-nov-1965 को जन्म लिया.पिता फ्रीडम फाइटर थे, जिनका बेटे के जन्म के जल्द बाद ही देहांत हो गया.माँ को सरकारी मिटटी के तेल की एजेंसी मिल गयी थी जिससे परिवार की किसी तरह गुजर-बसर हो रही थी. माँ की हसरत थी की बेटा पढ़-लिख कर एक सरकारी नौकरी कर ले. लेकिन लड़के की आँखों में कुछ और ही सपने पल रहे थे.वो अपने आपको सिल्वर स्क्रीन पर दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन  की तरह देखना चाहता था.लड़के ने टी.वी.सेरियल वालों के चक्कर लगाना शरू कर देता है .उसे ''फौजी'' और ''सर्कस'' जैसे सीरियल भी मिल जाते हैं .मीडिया में उसकी चर्चा होती है इसी बीच उसकी माँ की डेथ हो जाती है. लड़का 1991 में अपने सपनो के साथ सपनो के शहर मुंबई चला आता है.और एक साल के भीतर ही राजकपूर निर्देशित फिल्म ''दीवाना'' के जरिये फ़िल्मी दुनिया में कदम रखता है.इस फिल्म में उसे फिल्म फेयर अवार्ड के लिए  बेस्ट ड़ेबुय एक्टर चुना जाता है.उस लड़के का  न कोई फ़िल्मी बेकग्राउंड था और न सिने जगत में कोई  परिचित,मगर अपनी मत्वाकांक्षा के बल पर वो साधारण पठान परिवार का लड़का,बालीवुड का किंग खान ,शाहरुख़ खान, बन जाता है.उसका नाम भी अमिताभ और दिलीप कुमार जैसे सुपर स्टार में शुमार होने लगा.
आपने जो कहानी सुनी ये पूरी कहानी नहीं थी,बल्कि मैं जो कहानी आपको सुनाने वाला हूँ उसका एक पहलु था.  दुसरे  पहलु में मैं उदय चोपड़ा  की बात करना चाहूँगा,जिनके पिता यश चोपड़ा और भाई आदित्य चोपड़ा के साथ काम करना ही सफलता की आधी गारंटी होती है. उदय चोपड़ा के पास यशराज बैनर,लम्बी चौड़ी फ़िल्मी लाबी, ''मोहबतें'' और ''धूम'' जैसी सुपरहिट फिल्मों का लांचिगपैड था,कुल मिला कर हर वो जरूरी सामान था जिससे फ़िल्मी दुनिया में अपना सिक्का चलाया जा सके.पर इन सब के बाद भी उदय फ़िल्मी दुनिया में नहीं टिक पाए,आज उन्हें लोग एक्टर मानने  को भी तैयार नहीं हैं.
इस तरह की दो पहलुओं वाली कहानी फ़िल्मी दुनिया में ही नहीं है बल्कि किसी भी क्षेत्र में ऐसी कई स्टोरीस मिल जाएँगी.जिसमे किसी को अनुकूल परिस्तिथियों में भी असफलता मिलती है तो कोई प्रतिकूल  परिस्तिथियों में भी कामयाबी की इबारत लिखता है.अब क्रिकेट को ही ले लीजिये बडौदा की एक मस्जिद के एक मुअज्जन  के दो बेटे मस्जिद के आँगन में कपडे धोने के पिटने से खेलते हुए भारतीय टीम के इरफ़ान पठान और यूसुफ़ पठान हो जाते है.गाँव के बीहड़ से निकल कर मुनाफ पटेल टीम इण्डिया की रफ़्तार बन जाता है और रांची में रेलवे के फोर्थ क्लास इम्प्लोय का बेटा महेंद्र सिंह धोनी देश के लिए वर्ल्ड कप उठता है .वहीँ भारतीय क्रिकेट के महानतम खिलाडियों  में शुमार सुनील गावस्कर का बेटा रोहन गावस्कर क्रिकेट के माहौल में पलने-बढ़ने और अपने पहले टेस्ट मैच में सेंचुरी जड़ने के बाद भी टीम का हिस्सा तक  नहीं हो पाते.
क्या आपने कभी सोचा है कि कैसे छोटे शहरों, गली-कूंचों से निकल कर गरीब और मिडिल क्लास फैमली के बच्चे देश दुनिया की  फलक पर छा जाते है ?.वो कौन सा कारण है कि शाहरुख़ खान,इरफ़ान-युसूफ पठान,और धोनी जैसे लोग अपने अपने क्षेत्र में सफलता का सोपान चखते है ? और उदय चोपड़ा और रोहन गावस्कर जैसे लोग जीत की  दौड़ में पीछे छुट जाते है.मैं अक्सर ये सोचता रहता हूँ और जब-जब मैं ये सोचता हूँ मेरे जहन ''ये दिल मांगे मोर'' जिंगल बज उठता है कुछ ज्यादा पाने कि ललक ही ''दिल मांगे मोर'' फैक्टर है इस फैक्टर को ही महत्वकांक्षा कहते है,जीत के बाद भी न रुकने का जज्बा है महत्वकांक्षा, ये ''जितनी चादर हो उतना पैर फैलाओ'' कहावत को नहीं मानती ये कहती है कि ''जितना पैर है उतनी चादर फैलाओ'' इसके लिए चाहे जितनी मेहनत करनी पड़े, ये ''कुछ मांगे मोर'' फैक्टर ही है जो किसी व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ शिखर पर ले जाता है, कुछ ज्यादा पाने के लिए अक्सर कुछ ज्यादा करना पड़ता है, शायद  यही वजह है कि उम्र के इस पड़ाव  और इतनी सफलता देखने के बाद भी अमिताभ बच्चन दिन में 20 घंटे काम करते है और सचिन तेंदुलकर 10 घंटे नेट पर प्रक्टिस करते हुए  पसीना बहाते है.
पर यहाँ ये बात अच्छे  से समझ लेनी चाहिए कि जब ये महत्वकांक्षा किसी भी कीमत पर कुछ पाने कि सिचुवेशन में पहुँच जाती है,जब महत्वाकांक्षा की अति हो जाती है,और सपनों  को पूरा करने के लिए हम अपनी मोरैलिटी दांव पर लगा देते है. तब ''ये दिल मांगे मोर'' फैक्टर डिसट्रकटिव शाबित होता है और समाज को विश्व युद्ध जैसी भयानक विपदाओं का सामना करना पड़ता है, हिटलर,नेपोलियन ,गदाफी जैसे  तानाशाह पैदा होते है, इसलिए इस बात का ध्यान हमें रखना चाहिए कि हम अपनी सफलता का रथ चलाये पर किसी के खुशियों  की फसल  रौंद  कर नहीं .
खैर मैं अपनी बात को कन्क्लूड करता चलूँ ,मशहूर अमेरिकन मनोचिकित्षक  डीन सिंमोंटन कहते है ''महावकंक्षा स्वप्न, उर्जा और दृढ निश्चय का समन्वय है जो कुछ ज्यादा पाने के लिए प्रेरित करती है,जो लोग प्रतिकूल परिस्तिथियों में सफल होते है उनकी महत्वाकांक्षा में उर्जा, दृढ निश्चय और लक्ष्य (स्वप्न) का सामंजस्य बना होता है और जो लोग सारी सुविधाओं के बावजूद सफल नहीं हो पाते वो कहीं न कहीं इनका सामंजस्य बनाने में चूक जाते है,,
मेरे लिए महत्वाकांक्षा जिन्दगी है क्योंकि ये हमेशा चलने के लिए कहती है कुछ नया, कुछ बेहतर, कुछ ज्यादा, कुछ अच्छा,पाने के लिए कहती है .
अलबर्ट आइंस्टीन के शब्दों के साथ मैं आपसे विदा लेता हूँ ''जिन्दगी एक सइकिल है जिसमे पैडल मरना बंद करने पर गिरना तय है,चलने रहने के लिए पैडल मरते रहिये''   

तुम्हारा--अनन्त 

ये लेख आई-नेक्स्ट(दैनिक जागरण) में 09-02-2012 को प्रकाशित है.

समय को जिसने न समझा ............


हैलो दोस्तों ! बड़े समय बाद वो समय फिर आ गया जब मैं और आप कुछ समय साथ गुजारेंगे तो चलिए क्यों न समय की मांग को सर आँखों पर रखते हुए कुछ समय,समय के लिए निकाला जाए वैसे भी कवि नीरज ने समय की इम्पार्टेंस के लिए कहा है कि ''समय को जिसने न समझा  उसे एक दिन मिटना पड़ा ,जो बचा तलवार से तो फूलों से कटना पड़ा...
वैसे ''समय'' वो वर्ड है जिसे यूथ को सबसे ज्यादा फेस करना पड़ता है, सोने का समय,पढ़ने का समय ,उठने का समय ,तुम्हारा समय,मेरा समय,क्लास का समय,मस्ती का समय,एक्जाम का समय,कम्पीटशन का समय,प्यार का समय,ब्रेक अप का समय,ख़ुशी का समय, गम का समय, कुछ कर दिखने का समय,न जाने कैसा-कैसा समय आता है यूथ की लाइफ में .यूथ है कि समय के नाम पर दौड़ा-दौड़ा भागा-भागा सा रहता है और समय का घोड़ा है की पीछा छोड़ने का नाम ही नहीं लेता,पर एक समय ऐसा भी था जब हम टाइमलेस टाइम में जीते थे फिर बेबीलोन के लोगों ने ग्रहों की चाल और मौसम के बदलने को बेस बनाने हुए 360 दिन को एक साल बनाया जिसे उन्होंने 12 मून मंथ्स में डिवाइड कर दिया जिस हिसाब से हर महिना तीस दिन का होता था,इजिप्टीयन्स ने 5 दिन मौज मस्ती के जोड़ दिए,और साल ३६५ दिन का हो गया ,एलेवेनथ सेंचुरी में चीनी वैज्ञानिक सू सांग ने पहली मकैनिकल वाटर क्लॉक बनाई और कुछ इस तरह इंसान ने समय को बंधने कि कोशिश की या फिर कहें कि समय में बंधना शुरू किया,सिक्सटीन सेंतुरी में रोम के साइंटिस्ट गैलिलियो ने पेंडुलम की खोज की और कनक्लूजन निकाला कि समय पल्स में चलता है इसी थेवरी पर एटीन सेंतुरी में ह्यूजिन्स ने पहली पेंडुलम क्लॉक बनाई और हम समय को अपने साथ ले कर घूमने लगे,समय टिक-टॉक कर के चलने लगा,
 समय कभी किसी के लिए नहीं रुकता अब देखिये न साल 2012 लगा नहीं कि समय ने जनवरी के आधे से ज्यादा दिनों को कंधे में लाद कर इतिहास की काली कोठरी में फेंक दिया है ये समय सेकंड,मिनट,घंटा,दिन,महिना,और साल होते हुए लगातार रहता है, हम इससे कभी मुँह नहीं मोड़ सकते ये हमारी धडकनों में,हमारी नब्ज़ में बसा है ,हमारी गलती ये है कि हम समय को बहुत कम आंकते है पर जब समय हाँथ से निकल जाता है तब हाँथ मलने के अलावा कुछ बाकी नहीं रह जाता, एक सेकंड से धावक रेस हार जाता है,माइक्रो सेकंड को नजरंदाज़ करने पर एक पाइलट मौत के मुंह में समा सकता है,एक नैनो सेकंड की भी गलत गिनती किसी वैज्ञानिक कि सालों की  साधना पर पानी फेर सकती है, एक पीको सेकंड में परमाणु बम का ब्लास्ट होता है इसका मतलब है कि जिस सेकंड को हम बस यूं ही जाने देते है उसके लाखवें,करोरवें,हिस्से में भी दुनिया  की तस्वीर बदली जा सकती है,जीवित क्या मृत भी इस समय कि पकड़ से बाहर नहीं है ,अमेरिकन वैज्ञानिक विलियार्ड लिब्बी ने 1947  में खोजा कि पिछले 50  हज़ार वर्षों के दौरान जो कुछ जीवित रहा है उसमे एक टाइम कीपर मौजीद रहा है जो समय के साथ अपने आप एक निश्चित मात्रा में ख़तम होता रहता है जिसे कार्बन-14 कहते है इसी घडी से पता लगाया जा सकता है कि मिस्त्र के मम्मी कितने पुराने है,झारखंड से निकला कोयला कितने समय का है ,हम समय से नहीं भाग सकते इश्वर ने हमारे भीतर एक घडी लगा रखी है जो हमारे शरीर में सरकेडियन रिदम के रूप में पाई जाती है जिसका कंट्रोल माइंड के हैपोथैल्मस में होता है,इतना सब बोलने के बाद भी अगर आपमें से किसी के मन में ये प्रश्न बचा रह गया है कि समय क्या है ? तो यकीन मानिये मैं भी नोबल प्राइज़ विनर  साइंटिस्ट रिचर्ड फिन कि तरह बोलने वाला हूँ ''इसके बारे में सोचना बड़ा कठिन है और अभी मैं कुछ कठीन करने के मूड में नहीं हूँ'' फिलहाल तो इलेक्शन का समय है एनालिसिस का समय है , वोट का समय है चेंज का समय है ,जल्दी करिए वर्ना आप जानते है समय किसी के लिए नहीं रुकता है ,तलवार से बचाता है  तो फूलों से कटवा देता है .......भागिए मत समय के चैलेंजस को फेस करिए ....जीत पक्की है

ये लेख आई-नेक्स्ट(दैनिक जागरण) में  24-01-2011 को प्रकाशित है

Monday, February 13, 2012

उत्तर प्रदेश में बहता ''अंडर करंट'' न जाने क्या गुल खिलायेगा.......


सतह एकदम शांत है, न कोई लहर, न कोई हलचल, न कोई हो-हल्ला, न कोई हंगामा, लेकिन वोटों की बारिश उतनी है जितनी आज से पहले कभी किसी चुनावी मौसम में नहीं हुई,चुनाव आयोग की वाह-वाही करें,अखबारों की पीठ थपथपाएं, स्वयंसेवी संगठनों की पहलकदमी और जोश की तारीफ़ की जाए या फिर अन्ना के आन्दोलन का गुण गाएँ, कुछ समझ नहीं आ रहा है,पता नहीं चल रहा कि  ये गुप्त वोट गंगा के बहने का क्या कारण है,जो अपने ही बनाए सारे रिकार्ड तोड़ने पर अमादा है. चुनावी लोकतंत्र पर से जनहताशा के बादल छटे हैं,या फिर अन्ना आन्दोलन में तंत्र पर ऊँगली उठाने वालों के जहन ने उन्हें ऊँगली रंगाने को मजबूर  किया है. 
उप्र में दो चरण के मतदान संपन हो चुका है पहले चरण में जहाँ बारिश और मौसमी खराबी के बावजूद 62 % वोट पड़े वहीँ दुसरे चरण में 59 % मतदान हुआ है, खास  बात ये है की जिन जिलों में मतदान हुए है वहाँ पिछले विधानसभा चुनाव में मतदान प्रतिशत का अर्धशतक भी नहीं लगा था, इस लिहाज से मतदान के ये आंकड़ों को गर  करिश्माई या जादूई आंकड़े कहें  तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए.ये बढ़ता मतदान किस ओर जा रहा है किसी को कोई खबर नहीं है. राजनीति के पंडितों की भविष्यवाणियाँ पुनर्विश्लेषण और पुनर्पाठ की प्रक्रिया में जा धसीं है. सारे समीकरण फिर से बनाए बिगाड़े जा रहे हैं. कुल मिला कर हर कोई इस बार मतदान में एक ''अन्दर करंट'' महसूस कर रहा है और हर किसी की ओर से उसी ''अन्दर करंट'' का रुख भांपने की कोशिश की जा रही है.