Thursday, December 27, 2012

मेरी यादों में साल 2012......


मैं साबरमती के किनारे, डूबते हुए सूरज से लाल होती नदी को देखते हुए, एक उठान पर बैठा हुआ हूँ. साल 2012 इतिहास होने वाला है पर इससे पहले वो एक फिल्म बनकर मेरी आँखों पर से गुजरना चाहता है. मुझे याद आता है कि...

वो साल 2011 की अंतिम रात थी. मैं इलहाबाद के सेंट जोसफ कालेज के बाहर खड़ा हुआ था. भीतर भारत-पाक भाईचारा सम्मलेन चल रहा था. जिसमे भाईचारा जैसा कुछ नहीं था. मैं ऊबकर बहार सड़क के किनारे आ गया था और वहीँ नए साल का इंतज़ार कर रहा था. 5-10 मिनट में साल 2012 आने वाला था. सड़क अमूमन इस वक्त तक सो जाया करती थी पर उस दिन वो मानो उसी वक्त जगी थी. कालेज के बाहर अधनंगे बच्चे ठिठुरते हुए खड़े हुए थे इस यकीन के साथ कि अंदर से जो भी आयेगा उन्हें केक, टाफी, और पैसे देगा. पर उनका यकीन साल के शुरु होते ही टूट गया. जिसकी कोई आवाज़ नहीं हुई. सड़क के एक किनारे से रिक्से वालों की लाइन लगी थी. जिसमे हर उम्र के आदमी थे. वो अपनी सवारी की आस में टकटकी बांधे, खुद में सिकुड़े हुए खड़े थे. मैं इन कांपते हुए बच्चों, ताकते हुए रिक्शेवालों और थिरकते हुए महमानों के अपने-अपने नए सालों की तासीर नापने में लगा था. और सोच रहा था कि नए साल का क्या मतलब है? उन लोगों के लिए जिनके लिए रोटी का सवाल सबसे बड़ा सवाल है.... मैं अभी सोच ही रह था कि मेरी सोच में खलल डालती, फर्राटा भरती हुई, अंग्रेजी और हिंदी की मिलीजुली भाषा में गलियां गाती, यांगिस्तानियों की एक टोली गुजर गयी जिसने लहराते हुए हांथों से सड़क के किनारे खड़े लगभग सभी रिक्शे वालों को एक-एक चपत लगाई थी. और एक बुजुर्ग रिक्शे वाले के रिक्शे पर एक लात जमाई थी. जिससे रिक्शा बुरी तरह टूट गया था. मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि ये वही यूथ है जो अन्ना के एक इशारे पर दिल्ली के सड़कों पर सैलाब बन गया था. उस वक्त न जाने क्यों मुझे उस बुजुर्ग की सूरत में अन्ना दिखने लगे थे. मैं घर आया था और एक कविता लिखी थी. जो अब कहाँ है मुझे याद नहीं. उन ताकते, थिठुरते, पिटे हुए लोगों का दर्द मैंने उस कविता के रूप में कहीं गुमा दिया है. मेरे लिए साल 2012  कुछ यूं आया था. एक सच्चाई को आइना दीखता हुआ कि ‘’कदम अभी ठीक से संभले नहीं हैं, हम अभी उतने भी भले नहीं है’’.

साल 2012 को अगर “दिल्ली वाला साल” कहा जाये तो गलत नहीं होगा. वो दिल्ली जहाँ इस साल जनता ने “मैं अन्ना हूँ” से ले कर “मैं हूँ आम आदमी” तक का सफर तय किया. बिजली की तारों को पर कटती-जुड़ती राजनीती और अपने नाम (आम आदमी पार्टी) पर बनती हुई पार्टी देखी.  इस साल दिल्ली का शर्म से झुलसता हुआ चेहरा देखा, जिसमे पूरा देश जल उठा. ये वो वक्त था जब बलात्कार की घटनाओं से आजिज आ कर देश का युवा (वही युवा जो रात के अंधेरों और शराब के नशे में बुजुर्ग-मेहनतकश को चपत भी लगा सकता है) “वी वांट जस्टिस” के नारे लगा रहा था. पुलिस उनपर लाठियां बरसा रही थी और एक बुजुर्ग कांस्टेबिल की मौत पर कूटनीति रची जा रही थी. 

पूरे साल महिला जाति की एक संघर्ष करती हुई तस्वीर आँखों के सामने बनती है. चाहे वो छत्तीसगढ़ के जंगलों में सिस्टम से लड़ती मार खाती “सोनी सोरी” हो, पकिस्तान में तालिबानियों से लोहा लेती “मलाला युसुफजई” हो या फिर दिल्ली की गलियों में गुस्से से तमतमाई लड़कियों की आवाज़ में घुल कर बोलती हुई “दामनी”. हर कहीं संघर्ष करती हुई स्त्री दिखती है, सो कहने को इसे “महिला संघर्ष वर्ष” कहा जाना चाहिए.

इस साल के परदे पर राजेश खन्ना साहब और यश चोपड़ा का जाना भी याद आता है. वो नायक और निर्देशक जिसने पूरे देश को रूमानी होना सिखया था. वो प्यार के कलाकार बेइन्तहां प्यार अपने दमन में बटोर कर वहाँ चले गए जहाँ से कोई नहीं आता. इसके साथ ही ये साल साक्षी रहा है क्रिकेट के भगवान (सचिन तेंदुलकर) के वनडे मैचों संन्यास लेने का भी ,और इसी के साथ 2012 ने  उस इतिहास को अपने पन्नों में  दर्ज किया जो भविष्य में भी कभी इतिहास नहीं हो पायेगा.

साल 2012 दुनिया के अंत होने की अफवाह का भी अंत बन कर बीत रहा है. और ये 12-12-12 की अंतिम गणितीय तारीख का भी इतिहास अपने भीतर ले कर स्वयं इतिहास होने वाल है. पर ये जाते हुए हमें दे जा रह है हमरा नया दोस्त 2013. इस उम्मीद के साथ की हम केक, टाफी की राह देखते बच्चों की आस नहीं टूटने देंगे. गरीबों को और मेहनतकशों को आँखों में आंसू नहीं आने देंगे. अब अपने देश को फिर कभी शर्मिंदा न होने देंगे. और उसे एक ऐसा देश बनायेगे जहाँ किसी लड़की को ये न कहना पड़े कि ”अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो” और देश का हर एक कंठ पूरे गर्व और सम्मान के साथ गा सकेगा “सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा......

अनुराग अनंत
     

Monday, December 24, 2012

मेरे भीतर एक कायर है, उसे मार देना चाहिए


लखनऊ से अहमदाबाद के लिए सीधे ट्रेन नहीं मिल पाई थी, सो ब्रेक जर्नी ही एक रास्ता था. लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद जाना तय किया था हमने. हम PHD में एडमिशन के बाद यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने जा रहे थे, हम तीन लोग थे पर मैं बिलकुल अकेला ही था. वो दोनों अपने आप में मगन थे और मैं अपने आप में मस्त. ट्रेन के बाहर का नज़ारा भी ट्रेन की ही रफ़्तार से ट्रेन की उलटी दिशा में भाग रहा था. खेत, पेड़, नदी, पहाड़ और आदमी सब को पहिये लग गए थे. मैं उन भागते हुए दृश्यों को अपनी ठहरी हुई आँखों से देखते हुए न जाने कब सो गया मुझे पता ही नहीं चला. दिल्ली आने वाली थी, घडी ने यही कोई साढ़े पांच या छ: बजाये होंगे कि ठंढी हवाओं ने जगा दिया था. लाल किला एक्सप्रेस, लाल किले के पीछे से गुजर रही थी और रेल की पटरियों के किनारे बसी बस्तियों के घरों के भीतर तक हमारी निगाहें घुस चुकी थी. कहने के लिए तो उन झोपडियों में दीवारें थी पर सब कुछ दिख रहा था. उनका सोना, रोना, लड़ना, नहाना, धोना सब कुछ बेपर्दा था. जिंदगी का बेपर्दा होना कैसा होता है. मैंने पहली बार वहीँ महसूस किया था. निजता जैसा कोई शब्द उन झोपडी में रह रहे लोगों ने शायद ही कभी सुना हो. जिंदगी वहाँ शर्म के बंधनों से आजाद थी, या यूं कहें उनकी और हमारी शर्म की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर था. जो हमारे लिए शर्म है उनके लिए क्या हैं मैं नहीं जनता, पर शर्म बिलकुल नहीं है. जिंदगी जीने के ज़ज्बे, जरूरत, या मजबूरी (आप जो भी कहना चाहें) के आगे शर्म बहुत छोटी चीज़ होती है.  मेरे लिए ये बात भी बिलकुल साफ़ हो गयी थी. 

रेल कुछ आगे बढ़ चुकी थी और अब जिस इलाके से गुजार रही थी. वहाँ कूड़े-कचरे का अम्बार लगा था. आँखों में समाई लाल किले की सूरत कचरे में बचपन गुजारते और रोटी तलाशते बच्चों की तस्वीर के आगे फीकी पड़ गयी थी. लाल किले की प्राचीर से चढ कर भाषण देते प्रधानमंत्री को शायद ये बच्चे कभी नहीं दिखे होंगे. नहीं तो उन्हें भी उतनी ही निराशा होती जितनी मुझे हर बार ये महसूस करके होती है कि सन सैतालिस (1947) में जो आज़ादी मिली वो झूठी थी. मैं जब भी ये सोचता हूँ. मुझे देश के वजीर-ए-आला की हर दलील झूठी और विकास का हर आंकड़ा बेमानी जान पड़ता है. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि जब वो लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होते होंगे, डाइस के पीछे उनके पैर, ये सारे झूठे और बेमानी शब्द बोलते हुए कांपते होंगे पर राजधर्म में फंसा हुआ आदमी अधर्म करने को अभिशप्त होता है. यही उसकी नियति होती है.

खैर देश के प्रधानमंत्री के बारे में सोचते सोचते मैं रेल में सवार आगे बढ़ ही रहा था कि तभी मेरी नज़र कचरे के ढेर के बीच करीब 14-15  साल के लड़के-लड़की पर पड़ी. वो प्रोयोगशाला में विज्ञान के प्रयोग करने की उम्र में कचरे के ढेर में शरीर के प्रयोग कर रहे थे. सुबह जब देश में उनकी उम्र के कई बच्चे हाँथ में किताबें थाम कर तेज आवाज़ में वर्ड मीनिंग, पहाड़ा, और गणित के सूत्र रट रहें होंगे, वो जिंदगी की बेजान और बेरंग तस्वीर में एक फीका सा रंग भरने में लगे थे. वो रंग जो अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुंठा और नशे में रंगीन लगता है, पर है बिलकुल भी नहीं. वहाँ पहली बार लगा कि इनके लिए जीवन महज़ भूख भर बचा है, पर ऐसा कैसे हुआ और किसने किया? सवाल गहराता गया और मैं डूबता गया. जब थोडा निकला तो पाया कि पुरानी दिल्ली स्टेशन आ चुका था.

अहमदाबाद के लिए ट्रेन 8 घंटे बाद थी सो फ्रेश हो कर और कुछ देर आराम करने के बाद दिल्ली घूमने को बाहर निकल पड़ा. अभी सीढ़ी से बाहर की ओर निकल ही रहा था कि देखा पुलिस वाले ने दो अधेड़ों के साथ एक 14-15 साल के बच्चे को किनारे कर रखा था और उनकी माँ बहनों को इज्ज़त दे रहा था. मैं कुछ साफ़ समझ पता कि उसने उस बच्चे की मुट्ठी में बंद पसीने में डूबी, तुड़ी-मुडी 500 नोट छीन ली और डाँट कर भगा दिया. मैंने बढ़कर बच्चे से पुछा तो उसने बताया कि वो अपने पिता के मरने के बाद घर का खर्च चलने के लिए, गांव के कुछ लोगों के साथ दिल्ली मजदूरी करने बिहार से आया है. ये रूपये उसकी माँ ने बचा रखे थे और उसे काम न मिलने तक अपना पेट भरने के लिए दिए थे. जिसे पुलिस वाले ने छीन लिया. ये कहते हुए वो बच्चा (जिसे परिस्थियों ने जवान या यूं कहें की बूढा बना दिया था) बच्चों की तरह रोने लगा. तभी पीछे से वो पुलिस वाला आ गया और उसने उस बच्चे को एक लाठी जमाई और कहा कि “अबे! जाता है कि हवालात ले चलूँ !... वो लड़का सकपका के आंसू पोछते हुए चला गया. मैं अभी कुछ समझ नहीं पाया था कि पुलिस वाले ने मुझसे कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में ? उसने कहा कि गंजा अफीम बेचते हो साले! और रंगबाजी दिखाते हो, और हवा में लाठी तान ली ! मुझे डरना नहीं चाहिए था पर मैं डर गया. मेरे दिमाग में संविधान के प्रस्तावना से लेकर लोकतंत्र के परिभाषा तक सकुछ अचानक नाच गया. मैं, हम भारत के लोग,......या जनता द्वरा जनता के लिए जनता की सरकार...जैसा कुछ बोलना चाहता था. पर मैंने सकपकाते हुए कहा कि महोदय मैं पत्रकार हूँ और फिलहाल जनसंचार विषय में शोध कर रहा हूँ. आप मुझे गलत समझ रहे हैं. उस हवलदार को जैसे मेरे पत्रकार होने ने भीतर से रोक दिया हो, पर उसके मुंह से गाली नहीं रोक सका. उसने मेरी माँ और बहन की तारीफ़ की और भाग जाने को कहा. मैंने वहाँ से नहीं जाना चाहता था. और वहीँ पर अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला, गाँधी या अन्ना हो जाना चाहता था. मैं संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देना चाहता था और खुद के आजाद होने पर दलील देना चाहता था. मैं वहाँ आज़ादी जीना चाहता था पर मैं वहाँ से चुपचाप चला आया. आमआदमी की सीमायें वहाँ मुझसे जीत गयीं और मैं हार गया. मेरी आँखों में मेरा घर परिवार नाचने लगा था, मेरी जिम्मेदारियां कोई मेरे कानों में आवाज़ मार-मार कर मुझे याद दिलाने लगा. मैंने पाया मैं कैद हूँ. और मैं डर गया मैंने महसूस किया कि संविधान से ले कर लोकतंत्र तक की सारी समझ किताबी है और जमीन पर जिंदगी घर-परिवार और जिम्मेदारियों का दूसरा का नाम है. मैंने वहाँ जाना कि एक आमआदमी के लिए हवालात भी एक ऐसा शब्द हो सकता है जिसे सुन कर आत्मा तक काँप उठे. 

उस वक्त मैंने पाया मेरा कुछ हिस्सा वहीँ हवलदार मुंह से निकले हवालात शब्द में कैद हो गया है. मेरा वो हिस्सा  मुझे आज भी आवाज़ दे रहा है और कह रहा है कि मेरे भीतर एक कायर रहता है. मुझे उसे मार देना चाहिए. जब-जब वो आवाजें आती हैं मेरे वजूद का हर एक हिस्सा परेशान हो उठता है. उस वक्त मुझे ये आज़ादी झूठी लगती है और मैं एक कैदी सा महसूस करने लगता हूँ. 

यह लेख मोहल्ला लाईव (http://mohallalive.com) पर प्रकाशित है 
लिंक http://mohallalive.com/2013/12/09/a-travelogue-by-anurag-anant/

तुम्हारा-अनंत

Tuesday, December 11, 2012

डर के आगे जिंदगी है.......


मेरे एक दोस्त ने कहा कि यार 21-12-12 को दुनिया ख़तम हो रही हैकितना डर लगता है न ये सोच कर... मैंने उसकी बात बीच में ही काट कर कहायार ये क्यों सोचता है कि हम 21-12-12 को सारे  संसार के साथ मारे जाने वाले लोग हैंतू ये क्यों नहीं सोचता कि हम वो है जिन्हें अपनी सदी का एक सबसे अहम दिन 12-12-12 देखने का मौका मिलाये अजूबी तारीख जीने वाले हम बिरलों में सामिल हो गए है ये कहते हुए मेरे चेहरे में हंसी थी और उसके चेहरे में जा जाने कैसा खौफ,  

मैंने अपने उस दोस्त की किसी भी बात को आज तक सीरियस नहीं लिया था पर पहली बार मैंने उसके जाने के बाद उसकी कही हुई बात को गंभीरता से लेने का प्रयास किया और सोचा कि मानों मेरे जीवन का ये आखिरी दिन हैमेरे साथ आप भी सोचिये कि ये जीवन का आखरी दिन है और अब आप भी बताइए कि एक दिन में वो कौन से काम है जो आप करना चाहेंगे,माथे पर पसीना आ रहा है और दिल की धडकन तेज हो गयी है नमेरा भी यही हाल हैपर डरिए मत एक लंबी सांस खीचिये और कहिये की आप क्या करना चाहेंगेखुदा या भगवान या जिसे भी आप सबसे ज्यादा मानते हों उसके लिए आप प्लीज ये मत कहिएगा कि मैं वैष्णो माँ का दर्शन करना चाहता हूँया फिर रात भर राम नाम भजन करना चाहती हूँया फिर गीता,कुरआनबाइबलया फिर ऐसा ही कोई सो कॉल्ड पुण्य का काम करना चाहूँगा या चाहूंगी.

आप इस दुनिया  के पार उस ऊपर वाले को मुंह दिखने की फिकर में न डूब जाएँ और स्वर्ग-नर्क के चक्कर में डर कर रामरहीममंदिर मस्जिद न पुकारने लग जाएँदिल पर हाँथ रखिये और एक गहरी सांस ले कर ये सोचिये कि ऐसा क्या था जो जीत की दौड़ में दौड़ते हुए हम जिंदगी को नहीं दे पाएजिंदगी को जिंदगी बनाने की जुगत में जिंदगी को न जाने क्या बना दियामैंने अपनी जनता हूँ इसलिए मैं अपनी बात कह रहा हूँ आप अपनी जानते है सो अपनी बात कहिएगा.

मैं सबसे पहले अपने घर जाना चाहूँगा और उस लड़की से अपने दिल की बात कहना चाहूँगा जिसके घर के बहार उसकी एक झलक के इन्तजार में मैंने अपनी जवानी के चार साल गुजारे थे और उससे प्यार के ढाई अक्षर भी कभी नहीं कह पाया थावजह थी डरएक डर था कि कहीं उसके प्यार के चक्कर में कैरियर न तबाह हो जायेदूसरा डर था यार ये इतने अमीर घर की लड़की है कहीं मुझे इनकार कर दिया तो मैं टूट जाऊंगातो हाँ से भी डर और न से भी डर,और इस डर में मैं उससे दूर चला आया पर वो मेरे साथ थी मुझमें बाकी थीदूसरा काम मैं अपनी सारी मार्कशीट जला देना चाहूँगा क्योंकि इन्हें कमाते-कमाते मैंने अपने भीतर के कलाकार,कवि और इंसान को खतम खतम होते देखा थासमाज में कवियों कलाकारों और इंसानों(मानवता के लिए जीने वालेकी जो दशा और समाज में उनके प्रति जो नजरिया था उससे मैं डर गया था और  अपने चारों तरफ मार्कशीटडिग्रीयों और डिप्लोमा का एक बड़ा सा कवच बना लेना चाहता था जिसके भीतर मेरा इगो सेफ रह सके और मैं अपने घर वालों के सो-कॉल्ड ऑनर को बचा सकूँ.

तीसरा काममैं अपने बस्ती वाले दोस्तों रामूकालू मुन्नागूंजा और उनके जैसों की फ़ौज के साथ फिर से नाच गा कर पैसे मांगने वाला वही खेल खेलना चाहूँगा जिसे खेलते हुए मेरे पिताजी ने मुझे देख लिया था और बहुत मारा था. मैं बच्चे से जवान होने तक जब भी खेलना चाहता था, बस वही खेल मेरे जहन में आता था पर पिता जी और समाज के डर से नहीं खेल पायामेरे पिता जी और समाज उन बच्चों को आवारा और खराब कहते थे और मैं भी उनके डर से ऐसा ही कहने लगा था पर आज मैं उस डर के पार जा कर कहना चाहता हूँ कि वो रामू खराब नहीं था जो सड़कों में गाना गा कर पैसे लाता था और शाम को उसके घर का चूल्हा जलता थावो गूंजा भी खराब नहीं थी जो उस उम्र में लोगों के घर का सारा काम करती थी जिस उम्र में मैं अपने जूते का फीता भी नहीं बाँध पाता थावो मुन्ना भी खराब नहीं था जिसे पुलिस ने रेल में पानी का पाउच बेचते हुए पकड़ लिया था और इतना मारा था कि वो क्रिमिनल बन गया था. मैं उन सब के साथ जिंदगी के किताब के उन पन्नों को पढ़ना चाहूँगा जिसे उन्होंने अपनी मेहनत और संघर्ष की कलम से लिखा है.

इसके अलावा मैं फेसबुक के अपने उन सारे फ्रेंड को अनफ्रेंड कर बना चाहूँगाजो वर्चुअल वर्ल्ड के वर्चुअल फ्रेंड है और जिन्हें मैंने जा जाने किस लालच और किस कुंठा के चलते अभी तक अपने साथ जोड़ रखा है.

और अंतिम में मैं कुछ देर ये बैठ कर सोचूंगा कि और वो कौन सा काम था जिसे मैं किसी न किसी डर के वजह से नहीं कर पाया या कर पा रहा रहा हूँ मैं उन सब कामों को करूँगा......और अब आप बताइए कि आप क्या करेंगे.

मैंने ये सब सोचते-सोचते ही एक ऐसी जिंदगी जी ली है जिसे मैं आज तक अपने 23 साल जीवन में किसी न किसी डर की वजह से नहीं जी पाया थामैंने खुद को भी जान लिया है कि मैं डिग्रीयों और डिप्लोमायों से घिरा हुआ आदमी नहीं हूँ मैं मिटटी की सोंधी सुंगंध में सना और उसका दीवाना व्यक्ति हूँआप भी दुनिया खतम होने के डर के बहाने डर के पार जाने की कोशिश करिये सही कहता हूँ आपको वहाँ आपका सच्चा वजूद और आपकी सच्ची जिंदगी मिलेगीक्योंकि डर के आगे जिंदगी हैडर के और आगे आप.


मेरा ये लेख आई- नेक्स्ट (दैनिक जागरण) में १२-१२-१२ को प्रकाशित हुआ था. लिंक नीचे दिया गया है. 

http://inextepaper.jagran.com/74433/I-next-allahabad/12.12.12#page/11/1

तुम्हारा- अनंत