Monday, October 31, 2011

बेटा! अगर हम इस उम्र में ये कर सकते है तो तुम अपनी उम्र में ...........................


ढलती उम्र की पाबंदियाँ बढ़ते  जूनून को नहीं रोक पाती ,अपने आप को साबित करने का ज़ज्बा वो उड़ान  है जिसे पंखों की  नहीं हौसलों की जरूरत पड़ती है,अभी हाल में जब १०० वर्षीय मैराथन धावक फौजा  सिंह का नाम अखबारों की सुर्खियाँ बना तब राहत इन्दौरी का वो शेर मुझे याद आ गया 
की..........               
                                     
                  '' ये कैंचियाँ हमें उड़ने से खाख़ रोकेंगे,,
                                   '' हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं ,,
                                       

सच में जिस उम्र में लोग बिमारियों की मार खा कर घरों में कैद हो जाते हैं उस उम्र में फौजा सिंह लन्दन की सड़कों में स्पोर्ट्स शूस पहने दौड़ते हुए नज़र आते है ,पंजाब के एक मामूली किसान परिवार में जन्मे फौजा सिंह पढ़े लिखे नहीं हैं और न ही उन्हें देश-दुनिया की ख़बर है ,पत्नी और बेटे की मौत के बाद वो अपने गाँव ब्यासपिंड को छोड़ कर अपने रिश्तेदारों के पास इल्फोर्ड लन्दन चले गए थे ,८९ वर्ष की उम्र में निपट अकेला एक बुजुर्ग भाषाई और सांस्कृतिक विभेद से जूझता ,पत्नी और बेटे का गम ढोता ,जब जिन्दगी के मायने तलाशने लन्दन की सड़कों पर दौड़ता है ,तब ये दौड़ उसके लिए सिर्फ दौड़ नहीं रह जाती ,वो उसकी जिन्दगी का मकसद बन जाती है  , अपनी जिन्दगी के ११ साल उन्होंने दौड़ते हुए गुजार दिए , इस दौरान उन्होंने ५ मरथन लन्दन में ,२ मैराथन टोरंटो में .और १ मैराथन न्यूयार्क में दौड़ी है ,और इस बार टोरंटो में होने वाली वाटरफ्रंट मैराथन में ४२ km ,दौड़ पूरी करके गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड में विश्व के सबसे बुजुर्ग मैराथन धावक के रूप में अपना नाम दर्ज करवाया है ,उनके इसी ज़ज्बे और जूनून को सलाम करते हुए ब्रिटेन के महरानी ने उन्हें प्राइड ऑफ़ यू.के. से नवाज़ा है ,

अगर फौजा सिंह के जीवन से दौड़ के ये ११ साल निकाल दिए जाएँ तो वो बस ८९ साल के एक अनपढ़ किसान के आलावा कुछ नहीं बचते , ये हौसले,जूनून और संकल्प के ११ साल ही थे जिन्होंने फौजा सिंह को विश्व प्रसिद्ध टर्बन टोरनेडो (पगड़ी वाला तूफ़ान ) बना डाला ,


फौजा सिंह ही अकेले ऐसे  नहीं हैं जिन्होंने उम्र की कैंचियों को चुनौती देते हुए ताकत और सामर्थ के पर कट जाने के बाद भी हौसलों से सपनों और जूनून की उड़ान उड़ी है ,विश्व के सबसे बुजुर्ग डॉ. अमेरिका के, डॉ. वाल्टर वाटसन की उम्र भी १०० वर्ष है पर वो आज भी जवानों की तरह मरीजों की सेवा करते हैं,९७ वर्ष की ज्योर्ज मोयसे दुनिया के सबसे खतरनाक और रोमांचकारी खेलों में से एक खेल स्काई  ड्राइविंग की सबसे बुजुर्ग खिलाड़ी हैं पर खेल ऐसा खेलती हैं की जवानों को भी शर्म आ जाये, अभी उन्होंने हाल में ही १००० फुट की ऊंचाई  से छलांग लगाईं है ,डोरोथी डे ला ९९ वर्ष की है और चीन में होहोत में जून २०१० में आयोजित बुजुर्गों की टेबल टेनिस प्रतियोगिता में भाग लेने वाली सबसे अधिक  उम्र की खिलाड़ी थी ,इस उम्र में भी उनकी फूर्ती और खेल देखने लायक था ,असम के भोलाराम दास न्यायधीश पद से रिटायर्ड हुए है,  उनका सपना था की वो phd  करें ,उन्होंने भी उम्र को धता बताते हुए १०० की उम्र में गुवाहाटी विश्वविद्यालय में phd  के लिए दाखिला लिया है वो विश्व के सबसे बुजुर्ग शोध छात्र हैं, ७५ वर्ष के बिरजू महराज आज भी उतनी ही उर्जा और निपुणता के साथ नृत्य करते है जैसा वो युवा काल में करते थे ,शमसाद बेगम आज ९३ वर्ष की उम्र में भी गए बिना नहीं रह पाती है और किसी जमाने में पूरे हिन्दुस्तान को नचा देने वाली ये आवाज़ आज भी कम सुरीली नहीं है ,दिल्ली मेट्रो रेल कोर्पोरेशन के cmd ईं० श्रीधरन आज ८० साल की उम्र में भी पूरी तरह सक्रिय है उन्होंने दिल्ली मेट्रो का जाल बनाने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है,८४ साल की उम्र में  ७६०० km यात्रा शुरू करके  लाल कृष्ण अडवानी ने भी सबको चौका दिया है ,अन्ना ने ७४ वर्ष की ढलती उम्र में जवानों को राह दिखाई और सामाजिक क्रांति का सूत्रपात कर डाला ,पूरी दुनिया में फौजा सिंह से ले कर अन्ना तक कई ऐसे उदहारण फैले पड़े हैं,जिन्होंने उम्र के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि पूरे हौसले और जूनून से  अपने सपनों के पूरा करने के लिए ,अपने मकसद को पाने के लिए ,अपने आपको साबित  करने के लिए लड़े, और ढलती उम्र में  जीवन के चरमोत्कर्ष को प्राप्त किया ये उन लोगों की जीवन के   प्रति  घोर आस्था और जिजीवषा का प्रतीक है ,फौजा सिंह समेत जूनून से भरपूर जीवन जीने वाला हर एक बुजुर्ग का जीवन हम युवाओं को  प्रेरणा दे रहा है  और मानो हमसे कह रहा है की बेटा! अगर हम इस उम्र में ये कर सकते है तो तुम अपनी उम्र में ...........................अब परों से नहीं हौसलों से उड़ने की बारी है 


                                     तुम्हारा--अनंत 
2 -11 -2011 को i -next में प्रकाशित ............

Sunday, October 30, 2011

समाज एक प्रयोगशाला है (अन्ना आन्दोलन का विश्लेषण और सुझाव )


मैंने कहीं पढ़ा था की समाज एक प्रयोगशाला है जहाँ सामाजिक विज्ञान के नियमों  के प्रयोग और प्रेक्षण किये जाते है ,पर ये प्रयोगशाला साधारण प्रोयागशाला से ज्यादा सतर्कता की माँग करती है कारण ये है की यदि विज्ञान की प्रयोगशाला में कोई गलत प्रयोग या  परिक्षण होता है तो दुष्परिणाम सिर्फ वैज्ञानिक को भुकतना पड़ता है पर समाज में यदि किसी प्रकार का गलत सामाजिक प्रयोग होता है तो इसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण समाज को भुगतना पड़ता है ,इसलिए ये बहुत जरूरी हो जाता है समाज में आन्दोलन बड़ी ही सतर्कता से किया जाये और पूरी रणनीत तथा तैयारी के साथ ,नहीं तो आन्दोलन का बड़ा ही विनाशकारी परिणाम सामने आता है ,जब समाज में कोई आन्दोलन होता है तो इतिहास साक्षी रहा है उस आन्दोलन में बहुत से ऐसे तत्व भी आ जाते है जिन्हें आन्दोलन की गंभीरता और मुद्दे की सार्थकता से कोई सरोकार नहीं होता वे बस अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते आन्दोलन में आ जाते हैं और जनता की शक्ति और भावना दोनों का शोषण  करते है ,भारतीय आजादी आन्दोलन भी ऐसे ही अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है मैं नाम ले कर अपने इस लेख से इतिहास के पन्ने नहीं उलटना चाहता ,हर भारतीय जो थोड़ी भी सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक समझ रखता है उसे इन मतलबपरस्त और अवसरवादियों के नाम मालूम है ,हो सकता है की उसमे भिन्नता हो पर मुझे इस बात का सत प्रतिशत   विश्वास है की हर व्यक्ति कम से कम पांच  नाम तो जरूर गिना ही देगा जो अपनी आर्थिक,राजनीतिक ,और सामाजिक उदेश्यों को लेकर आन्दोलन  में आये और उसका दोहन किया फिर उसे भ्रष्ट करके चल दिए ,परिणाम जैसे की हम सब जानते है की जिस आज़ादी के लिए जनता लड़ रही थी वो उसे नहीं मिल सकी बल्कि मिली तो आजादी के नाम की एक लालीपॉप और उसे नन्हे बच्चे की तरह चूसते रहने का आदेश ,जरा सा भी बड़ा बनने की कोशिश की तो देशद्रोही ,नक्सलवादी ,माओवादी ,आतंकवादी कुछ भी बनाये जा सकते हो ,खैर जो बात मुख्य है वो ये है की आजादी आन्दोलन में भी जो तबका अपने उद्देश्यों को ले कर आन्दोलन में आया था उसने अपने उद्देश्य पूरे किये और जिसके बल पर उसने सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक उद्देश्य पूरे किये वो जनता वैसे का वैसे ही कैदी बनी रह गयी,


मेरा सीधा संकेत उस पूंजीपति वर्ग या पूंजीवादी मानसिकता वाले लोगों की तरफ है जो की आजादी आन्दोलन में बड़े ही प्रगतिशील तेवर के साथ आये थे पर बाद में वो भी साम्राज्यवादियों और सामंतों  की भाषा बोलने लगे ,इसलिए मैं अपने राजनीतिक अनुभव के आधार  पर ये कहना चाहता हूँ , की हमें उस व्यक्ति को बहुत ध्यान से सुनना चाहिए जो हमारे भले की बात कर रहा हो ,चूँकि वो ही हमारा सबसे ज्यादा बुरा भी कर सकता है ,और उस व्यक्ति को भी बड़ी ध्यान से सुनना चाहिए जो हमारे खिलाफ बोल रहा है ,क्योंकि उसकी खिलाफत में हमारी कोई भलाई छुपी हो सकती है , न सिर्फ बात ध्यान से सुननी चाहिए बल्कि अपनी पूरी समझ के साथ उसका सामाजिक ,.राजनितिक, और आर्थिक विश्लेषण भी करना चाहिए फिर कहीं जा कर कोई कदम उठाना चाहिए ,हमें कभी नहीं भूलना चाहिए की जो जैसा दीखता है जो वास्तविकता में वैसा ही हो ये जरूरी नहीं है ,और जो जैसा है वो वैसा ही दीखता हो ये भी जरूरी नहीं है ,


अब आंदोलनों पर इतनी बात यदि मैंने लेख की भूमिका में की है तो जरूर मुझे किसी आन्दोलन की विश्लेषण प्रक्रिया में  जाना है आप समझ ही रहे होंगे और इस वक़्त अन्ना से बड़ा और प्रासंगिक आन्दोलन जनता की नज़र में और दूसरा कोई नहीं है क्योंकि  जनता आज वही देखती और सुनती है जो मीडिया उसे दिखाती और सुनाती है,खैर जो भी  हो अन्ना का आन्दोलन जनता और मीडिया का ध्यान खीचने में सफल रहा है ,पर क्या मीडिया और जनता का ध्यान खींच लेने और किसी हद तक उनका तथाकथित समर्थन प्राप्त कर लेने से कोई आन्दोलन सच्चा और सफल आन्दोलन बन जाता है ,तो जवाब है नहीं ऐसा नहीं है ,कोई प्रतिकार ,प्रतिरोध ,या प्रतिवाद आन्दोलन की शक्ल तब लेता है जब उसके नेतृत्वकर्ता और कार्यकर्ता में एकीकर हो ,मेरे कहने का सीधा मतलब ये है की जब आन्दोलन की दिशा और दशा नेता पक्ष और कार्यकर्ता पक्ष दोनों की आँखों में साफ़ हो ,उनकी राय में स्पष्टता हो , उनका आन्दोलन के मुद्दे से सीधा जुड़ाव हो ,और इन सबसे बड़ी बात है की कार्यकर्ता और नेता दोनों ही आन्दोलन के मूल्य समाज में स्थापित करने की प्रक्रिया में सदैव रत हो ,आन्दोलन जिस सामाजिक ,राजनीतिक ,और आर्थिक बुराई के खिलाफ चलाया जा रहा है असके विपरीत अच्छाई को स्थापित करने का प्रयास सतत रूप से जारी हो,तब कही जा कर आन्दोलन को सच्चा और सार्थक कहा जा सकता है .......सफलता के तो दुसरे ही मापदंड है ,जो फिर कभी किसी और लेख में चर्चा करूंगा, फिलहाल आज इस लेख में अन्ना के जन लोकपाल आन्दोलन की सार्थकता और सच्चाई की चर्चा करते हैं ,आन्दोलन के बीच बड़ी तेजी से ये प्रश्न उठाया जाने लगा की अन्ना का आन्दोलन सच्चा है की नहीं ,सार्थक है की नहीं ........मीडिया भी मानो एक अभियान तहत इस पूरी परिघटना में जूट गयी है ,पर इस पर मेरा एक सवाल ये की ये सवाल इतने बाद में क्यों ? क्या ये सवाल पहले नहीं उठाया जा सकता था ? क्या जो दोष टीम अन्ना के ऊपर है वो पहले नहीं मढ़ा जा सकता था ? क्या पहले यही लोग हीरो थे और बाद में जीरो हो गए? सरकार और मीडिया दोनों की नज़र में ?और ऐसे ही कई सवाल मेरे है जो इन सार्थक सवालों के घेरे से उठते है और मीडिया और पूरे सरकारी तंत्र के सर पर जा कर फूटते है पर मेरे सवालों को छोडिये जनता के सवाल की खबर लेते हैं क्योंकि मैं अपने सवालों का जवाब जनता हूँ और वो जवाब बस एक है की ............जनता को गुमराह करने के लिए ...........मुर्ख बनाने के लिए ..............


पर अहम् सवाल अन्ना के आन्दोलन की सार्थकता और सच्चाई का है तो मेरा मानना है की अन्ना का आन्दोलन सार्थक हो या न हो आन्दोलन का मुद्दा जरूर सार्थक है ,और सच्चाई जैसा की सभी जानते हैं की कटघरे में खड़ी है .................आन्दोलन के नेतृत्व में आपसी कलह इस बात को साफ़ करती है की अन्ना की टीम में राजनीतिक महत्वाकांक्षी तत्वों के बीच  घमासान मची हुई है जो की आन्दोलन पर एकाधिकार ज़माना चाह रहे हैं और आन्दोलन की लोकतांत्रिकता को नष्ट करना चाहते है ,वो जनता की कुंठा और रोष को अपनी ताकत बनाने की फिराक में है ,टीम अन्ना चुनावों में पार्टियों पर दबाव बना कर अपनी राजनीतिक शक्ति और सार्थकता बढ़ाना चाहती है न की इससे आन्दोलन की शक्ति और सार्थकता बढ़ाना  ,  इस प्रक्रिया से व्यवस्था परिवर्तन तो बिकुल ही नहीं होगा जैसा की केजरीवाल साहेब कहते है मैं व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहा हूँ ....
जिस तरह एक-एक करके अन्ना टीम की कोर कमेटी से मेम्बर हट रहे हैं ,वो इस बात का परिचायक है आन्दोलन के नेता पक्ष में मतभेद होने के साथ मनभेद भी है,उनमे आपस में आन्दोलन की दशा और दिशा को ले कर कोई साफ़ तस्वीर नहीं है ,और ना ही कोई वैचारिक आधारभूमि जिसपर वो आन्दोलन को टिका कर विश्राम कर सके ,टीम अन्ना ये जानती है की ये आन्दोलन नहीं ये उन्माद और आक्रोश था इसमें विचार की कमी थी ,इसीलिए अगर इसमें देरी की गयी या फिर कार्यकर्ताओं को यूँ ही छोड़ा गया तो वो भाग जायेगा और फिर से उसे घर से बहार निकालने की लिए मीडिया का सहारा लेना पड़ेगा ,इस आन्दोलन पर मेरी इतनी आलोचना का करने का कारण ये है की मैं ये महसूस कर रहा हूँ की इस आन्दोलन में भी बहुत से ऐसे तत्व आ गए है जो जनता के प्रेम ,शक्ति और भावना का शोषण कर रहे हैं , इस आन्दोलन को अब तक जिस स्तर की जो चेतना पैदा करनी चाहिए थी वो चेतना समाज तो छोडिये कार्यकर्ता स्तर के लोगों को भी नहीं हो पाई है ,जो लोग अन्ना के आन्दोलन से जुड़े है वो या तो इसे एन्जॉय कर रहे है ,या दुसरे गाँधी का दर्शन कर रहे है ,या अपनी देश भक्ति प्रूव कर रहे है ,कुछ तत्व ऐसे भी है जो इस आन्दोलन में सिर्फ उन्माद करने के लिए समर्थकों की भीड़ में घुस जाते है ,उन समर्थको ,उन आन्दोलनकारियों में मुद्दे को ले कर कोई समझ और गंभीरता नहीं है ...........कुछ लोग इस पर अक्सर कहते है समर्थकों और कार्यकर्ताओं में समझ और गंभीरता पैदा इतनी जल्दी नहीं होती है ,और वो इतना आसान भी नहीं है ..तो मैं उनसे बड़े ही आदर और प्रेम से कहता हूँ की कोई सार्थक और सफल आन्दोलन भी इनती आसानी और इतनी जल्दी नहीं होता है वो एक सतत संघर्ष का प्रतिफलन होता है न की मीडिया के धक्के से भेजे गए भोले-भाले लोगो की संख्या के दबाव से पास हुए किसी कानून से की उपज .....मुझे इस आन्दोलन से सार्थक तो आदिवासियों ,गरीबों,मजदूरों और किसानों का वो आन्दोलन लगता है जिसमे हर कार्यकर्ता के भीतर गंभीरता ,समझ ,अपनी माँग को ले कर स्पष्टता ,और इन सब से ज्यादा आन्दोलन के मुद्दे से सीधा जुड़ाव होता है ,वो अपने हक के लिए जान तक दे सकता है ,सत्ता के जुल्म सह सकता है पर यहाँ कहने को तो भ्रष्टाचार सभी भारतियों का मुद्दा है पर सभी भारतीय इससे प्रताड़ित होने के बावजूद इस मुद्दे से सीधा जुड़ाव महसूस नहीं करते, कोई माने न माने एक आम आदमी अपनी जमीन के लिए जितनी संजीदगी से लड़ सकता है उतनी संजीदगी से आज की तारिख में वो भ्रष्टाचार के लिए नहीं लडेगा ,मैं आप से पूछता हूँ की जिस तरह का कहर पुलिस सिंगूर और नंदीग्राम के किसान आन्दोलनकारियों के ऊपर कर रही थी क्या उस तरह का जुल्म आज अन्ना के समर्थक सह  सकते हैं ..........मुझे मालूम है आपका जवाब नहीं में है ,तो अंत में मैं यही कहूँगा की अन्ना का आन्दोलन सार्थक और सफल तभी होगा जब उसकी मुख्य ताकत जनता उसके सार्थकता और सफलता के लिए चिंतित होगी ,क्यूंकि आन्दोलन कैसा भी हो मुदा सार्थक है और सफल भी .........और रही बात टीम अन्ना की तो अगर टीम अन्ना इस आन्दोलन को वाकई सफल और सार्थक बनाना चाहती है तो उसे उसे अपनी दशा और दिशा पर पुनर्विचार करना होगा और जनता की  नेतृत्वक्षमता को विकसित कर के उसको मुद्दे से सीधे जोड़ते हुए उसे भी उसकी चेतना के स्तर पर आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा करने के लिए प्रेरित करना होगा ,ताकि उसका इस मुद्दे से और इस आन्दोलन दोनों से ही सीधा जुड़ाव बन सके ,साथ ही साथ उन तत्वों को पहचान कर आन्दोलन से बहार करना होगा जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आन्दोलन में जुड़े हैं ,इस काम में जनता को पहलकदमी करनी होगी उसे ही इस बात की पहचान करने की कोशिश करनी होगी की कौन सा ऐसा तत्व है जो उनकी शक्ति और भावना का शोषण करना चाहता है 

..............जैसे उदाहरण के लिए जीवन भर व्यक्तिवादी प्रेम पर आधारित ,व्यवसायिक कविता पढने वाला कवि यदि जनता का कवी और नेता बनने का दावा या कोशिश करने लगे तो जनता को इसको यूँ ही नहीं लेना चाहिए उसी वक़्त से उसे उस व्यक्ति विशेष ही नहीं पूरे आन्दोलन को पैनी निगाह से विश्लेषित करना चाहिए और यही प्रक्रिया सतत जरी रहनी चाहिए जब तक की आन्दोलन सार्थक और सफल न साबित हो जाये ,क्योंकि अगर जनता जरा सा भी चूकी तो हनन उसी का होना है .................
                                   तुम्हारा --अनंत

ये लेख प्रवक्ता में प्रकाशित है ...........

लिंक प्रवक्ता डाट काम ०:-http://www.pravakta.com/archives/31995
                    

Saturday, October 29, 2011

श्री लाल शुक्ल की मृत्यु से जन्म लेते कुछ सवाल

खबारों की खाख छानते हुए लगभग हर अखबार में मुझे एक तीखी आँखों में गड़ने वाली सच्चाई मिली की  सामंती बन्धनों ,राजनीतिक दंशों और रुढियों के खिलाफ अपनी कलम को हथियार बना कर लड़ने वाले, जुझारू आम आदमी की पीरा को स्वर देने वाले महान व्यंगकार ''श्री लाल शुक्ल ''के निधन की खबर से वो आम आदमी ही बेखबर था जिसके हकों की लड़ाई वो अपने साहित्य में जीवन भर  लड़ते रहे,लेकिन बात सिर्फ इतनी ही होती तो मैं इतना गंभीर न होता न ही इसे लेकर लिखने बैठ जाता, कभी लखनऊ की पहचान  कहलाने वाले''श्री शुक्ल ''अपने ही शहर में इस कदर बेगानियत के साथ रुखसत होंगे मैंने कभी नहीं सोचा था , आम आदमी अपनी ही समस्याओं से जुडी अभिव्यक्ति से इस कदर कैसे कट गया है ,कैसे वो उन लोगो से कट गया है जो उनके सारोकार की बातें करते हैं ,तो जवाब है ये आधुनिक पूजीवादी व्यवस्था में ऐसा एक साजिश के तहत हो रहा है , जनता की शक्ति दिग्भ्रमित है ,उसे अपने वास्तविक चरित्र का पता नहीं चल पा रहा है ,वो किस वर्ग में आती है ,उसे अपने हितों की रक्षा किस वर्ग से करनी है ,वो किस वर्ग संस्कृति की है ,कौन सा कला-वर्ग उसके अभिव्यक्ति  को स्वर दे रहा है ,वो ये निर्धारित करने में असफल महसूस करती है ,आज बाज़ार के धक्के ,विज्ञापन की खीच-तान,व्यर्थ जरूरतों के दबाव ,और अनगिनत सपनों की रंगीनियत में उलझा हुआ, बेजार सा,भटका हुआ,आम आदमी उन्हें ही अपना हीरो समझ बैठता हैं जिन्हें ये मीडिया कहती है दिखती है ,वो उस वर्ग का पोषक बन बैठता हैं जो उसका शोषक है ,वो सलमान के ठुमके पर जान लुटा देता है ,कटरीना के सौन्दर्य की चर्चा देश के हालातों से ज्यादा करता है ,और भूल जाता है हासिये पर बैठे उन लोगों को जो हंसिये की लोगों के कलाकार ,नेता ,शुभचिंतक है ,और उनके हितों को लड़ने वाले हैं ,ये उस व्यवस्था(पूंजीवादी व्यवस्था ) का चरित्र ही है की उन्हें अकेला कर दो  जो उसके  खिलाफ लड़ रहे है ,ताकि उस जनता की आवाज़ ही न उठ सके जिसका उसे शोषण करना है ,निराला , मुक्तिबोध नागार्जुन ,अज्ञेय ,पाश ,त्रिलोचन ,धूमिल ,कात्यायनी , रघुवीर सहाय ,केदारनाथ अग्रवाल और ऐसे अनेक नाम है जिन्होंने आम जनता की आवाज़ हो बुलंद किया ,उसे प्रखरता से राजनीतिक -सामाजिक पटल पर  रखा पर अफ़सोस की वही आम जनता इनके योगदान से अनभिज्ञ है उसे इनके जीवन संघर्ष तो छोडिये नाम तक नहीं मालूम है ...........तब आप ही बताइये क्या इस बात की जरूरत नहीं की हम इस बात का विश्लेषण करें की ऐसा क्यों होता जा रहा है की आम आदमी की लड़ाई लड़ने वालों का आम आदमियों से कोई जुड़ाव नहीं बचा हैं ये  हमारी यानि जनपक्षीय लोगो की हार है क्यूंकि  हमारी सबसे बड़ी ताकत जनता ही है हमें उससे सीधा संवाद स्थापित करना ही होगा ,उस संस्कृति को बचाना होगा, उस कला को बचाना होगा ,उस नेता को बचाना होगा ,और उस कलाकार को बचाना होगा जो जनता की लड़ाई लड़ता है ,हमे उन्हें अकेला नहीं पड़ने देना है ,हमें खुद ही ये निर्धारित करना है कि हम किस वर्ग में आते हैं ,हमारी कला कौन  सी है  हमारी संस्कृति कौन सी हैं  ,हमारे कलाकार कौन से है ,आज के इस घोर पूंजीवादी युग कम से कम इतनी वर्ग चेतना का होना तो बहुत जरूरी है वर्ना धीरे-धीरे जनता के लिए लड़ने वालों कि तादाद घटती जाएगी और एक समय ऐसा आएगा कि बकरी का रखवाला खुद शेर होगा तब कितनी दिन तक  बकरी बचेगी ये जनता समझ ही सकती है
                                                                                         तुम्हारा -अनंत

Saturday, October 15, 2011

जीवन उत्सव है



अबकी बार त्योहारों पर घर जाते समय पसेंजेर  ट्रेन से घर जाना पड़ा ,खाचा-खच भरी इस ट्रेन में एक किनारे दबे हुए खिड़की पर भागते  पेड़ों, खेत, खलियानों, किसानो, मजदूरों को देखते हुए एक ख्याल दिल में आया था कि इंडिया में कॉमन मैन कि लाइफ और इस पसेंजेर ट्रेन में कितनी सिमिलर्टी हैं. जब वो  किसी छोटे स्टेशन पर बड़ी देर तक रूकती तो न जाने क्यों ऐसा  लगने लगता कि मानों कोई कॉमन मैन अपनी किसी छोटी जरूरत के लिए बड़ी देर तक किसी लाइन में खड़ा हो ,पसेंजेर ट्रेन कि तरह ही कॉमन मैन रुकता, थकता ,अपने से तेज रफ़्तार वालों को पास देता डेस्टिनेशन पर पहुचने के लिए उतारू रहता हैं.जोर लगा के हईसा ! वाली स्टाइल में देश भर का बोझ अपने कंधे पर लादे एटलस कि तरह चलता ये कॉमन मैन दर्द में भी हँसने का बहाना ढूढ़  ही लेता हैं शायद यही कारण हैं कि इंडिया में जहाँ 80 -85 % लोग कॉमन मैन कि कटेगरी में आते हैं, हसने-मुस्कुराने, खेलने-खिलखिलाने का  कई मौका हैं और हर मौका एक त्यौहार. तभी तो हमारे देश को त्योहारों का का देश कहा जाता है,

यहाँ खेतों में नयी फसल उगे, या पेड़ों पर नए  पत्ते लगें मौसम बदले या फिर गृह नक्षत्र के चाल में कोई परिवर्तन हो हम उसे त्यौहार कि तरह मनाते हैं. हर देवी-देवता, कथा-कहानी ,अनाज, अग्नि, वृक्ष, कृषि, पशु, ऋतू, के साथ कई-कई त्यौहार जुड़े हुए हैं, बच्चे के जन्म  से ले कर मृत्यु तक हर कर्मकांड, संस्कार, और रश्म हम उत्सव की  तरह मनाते हैं. हमारे देश में त्यौहार रिश्तों में एक नयी उर्जा भरते हैं ,यहाँ हर रिश्ते के लिए त्यौहार है ,पति के लिए करवाचौथ तो भाई के लिए भैया दूज और रक्षाबंधन, माँ-बहन के लिए तीज तो बच्चियों के लिए नवरात्र पूजा ,पुत्र के लिए आहोई व्रत और ऐसे ही कई बड़े छोटे कई त्योहारों की चेन हैं,

हमारे आस-पास हमे हमारे जीवन से जुड़ा जो भी दिखा ,हमने उससे रिश्ता बना लिया और उस रिश्ते को जीवंत रखने के लिए उसे हमने त्योहारों से जोड़ दिया , चाहे वो घर का जानवर ही क्यों ना हो ,तभी तो हम गाय  के बछड़ों के लिए भी '' बछ्वारस'' जैसे त्यौहार मानते हैं, पीपल, बरगद, और नीम को देवी देवता मान  कर पूरे देश में करमा, वट सावित्री , शीतला सप्तमी जैसे सैकड़ो  त्यौहार मनाये  जाते हैं.
विविध रंगों के इस देश में विविध रंग के त्यौहार मनाये जाते हैं जो जीवन के रंगों से भरपूर हैं, ये उत्सव ही है जो थकी हारी जिन्दगी के सिरहाने खड़े  हो कर जब मासूम बच्चों कि तरह मुस्काते हैं तो जिन्दगी का पोर-पोर हँस पड़ता हैं, ये त्यौहार आम आदमी की  बिखरी हुई जिन्दगी को बड़े ही सलीके से समेट कर  उसे अपने परिवार, रिश्ते-नातों , समाज और प्रकृति से जोड़ते हैं. ये उसे  मशीनी पुर्जा बनने से रोकते हैं, उसे उत्साह, संकल्प,और उर्जा से भर  देते हैं, भावना, वेदना, और संवेदना जैसे मानवीय मूल्यों  को जगाते हैं,

लेकिन आज आधुनिकता की तेज चटख रंग के आगे त्योहारों का रंग दब सा गया हैं, गाँव की  मट्टी की  खुशबू से ले कर रिश्तों की  गर्माहट तक सब कुछ कम पड़ने लगा  है आज दिवाली पर  घर में दिये की  जगह चाइनीस बल्ब ने ले ली हैं, मिलने-मिलाने की  परंपरा को फेसबुक और फ़ोन ने खा लिया हैं नाटक, नौटंकी, स्वांग, लोकगीत और जीवंत लोककलाओं को टी.वी.,फिल्मों और फूहड़ गानों ने हासिये पर धकेल दिया हैं .दिया ,कुल्ल्हड़ ,बतासों ,कपास, मिठाई, रंगाई, पोताई,  के नदारद होने कि वजह से कुटीर उधोग और आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़ों को भारी  धक्का लगा है,
आज जब गोवर्धन पूजा, बछ्वारस, जैसे त्यौहार लगभग ख़त्म हो गए हैं, हम गयो भैसों को अक्सिटोंसिन (इंजेक्शन) दे कर उनके तन से दूध के साथ चर्बी और प्रोटीन तक खींच लेना चाहते हैं बछड़े की पूजा तो  छोडिये, हम उसे भूखा मार कर उसकी खाल में भूसा भर के  गाय-भैसों की भावना तक दूह लेते हैं .....यही काम आज हमने खेत खलियान नदी, पहाड़,  जल, जंगल, जानवर और जिन्दगी के साथ भी जारी कर दिया है, आज  इंसानों में रिश्तों को ले कर जो गंभीरता होनी चाहिए वो नहीं दिखती हर रिश्ते  की नीव में लालच हैं,
मोहल्ले गाँव के वे छोटे उत्सव परम्पराएँ  जैसे कुआं-पूजन, धूरा-पूजन, जलझूलिनी, नाग पंचमी,  बिसौला, अन्नकूट,गोवर्धन पूजा, और न जाने ऐसे कितने छोटे-छोटे पर सार्थक और महवपूर्ण त्यौहार इस आधुनिकता ने ख़तम कर दिये हैं,
  
यही सब कुछ सोचते हुए मैं कॉमन मैन्स की उस कॉमन ट्रेन से आखिर अपने शहर पहुँच ही गया और घर जाते हुए रिक्शे पर बैठे हुए मन ही मन ये बुदबुदाता गया की अगर इंसान को इंसान बन कर रहना हैं तो कम से कम उसे इन त्योहारों को बचा कर रखना होगा और इन्हें आधुनिकता से दूर प्रकृति की गोद में बैठ कर मानना चाहिए ...........न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा की मैं कोई ज़ज हूँ और मैंने किसी मुक़दमे का फैसला सुनाया हो .........लो मेरा घर आ गया मैं जा रहा हूँ

ये लेख आई- नेक्स्ट (दैनिक जागरण) में प्रकाशित हुआ है
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