खबारों की खाख छानते हुए लगभग हर अखबार में मुझे एक तीखी आँखों में गड़ने वाली सच्चाई मिली की सामंती बन्धनों ,राजनीतिक दंशों और रुढियों के खिलाफ अपनी कलम को हथियार बना कर लड़ने वाले, जुझारू आम आदमी की पीरा को स्वर देने वाले महान व्यंगकार ''श्री लाल शुक्ल ''के निधन की खबर से वो आम आदमी ही बेखबर था जिसके हकों की लड़ाई वो अपने साहित्य में जीवन भर लड़ते रहे,लेकिन बात सिर्फ इतनी ही होती तो मैं इतना गंभीर न होता न ही इसे लेकर लिखने बैठ जाता, कभी लखनऊ की पहचान कहलाने वाले''श्री शुक्ल ''अपने ही शहर में इस कदर बेगानियत के साथ रुखसत होंगे मैंने कभी नहीं सोचा था , आम आदमी अपनी ही समस्याओं से जुडी अभिव्यक्ति से इस कदर कैसे कट गया है ,कैसे वो उन लोगो से कट गया है जो उनके सारोकार की बातें करते हैं ,तो जवाब है ये आधुनिक पूजीवादी व्यवस्था में ऐसा एक साजिश के तहत हो रहा है , जनता की शक्ति दिग्भ्रमित है ,उसे अपने वास्तविक चरित्र का पता नहीं चल पा रहा है ,वो किस वर्ग में आती है ,उसे अपने हितों की रक्षा किस वर्ग से करनी है ,वो किस वर्ग संस्कृति की है ,कौन सा कला-वर्ग उसके अभिव्यक्ति को स्वर दे रहा है ,वो ये निर्धारित करने में असफल महसूस करती है ,आज बाज़ार के धक्के ,विज्ञापन की खीच-तान,व्यर्थ जरूरतों के दबाव ,और अनगिनत सपनों की रंगीनियत में उलझा हुआ, बेजार सा,भटका हुआ,आम आदमी उन्हें ही अपना हीरो समझ बैठता हैं जिन्हें ये मीडिया कहती है दिखती है ,वो उस वर्ग का पोषक बन बैठता हैं जो उसका शोषक है ,वो सलमान के ठुमके पर जान लुटा देता है ,कटरीना के सौन्दर्य की चर्चा देश के हालातों से ज्यादा करता है ,और भूल जाता है हासिये पर बैठे उन लोगों को जो हंसिये की लोगों के कलाकार ,नेता ,शुभचिंतक है ,और उनके हितों को लड़ने वाले हैं ,ये उस व्यवस्था(पूंजीवादी व्यवस्था ) का चरित्र ही है की उन्हें अकेला कर दो जो उसके खिलाफ लड़ रहे है ,ताकि उस जनता की आवाज़ ही न उठ सके जिसका उसे शोषण करना है ,निराला , मुक्तिबोध नागार्जुन ,अज्ञेय ,पाश ,त्रिलोचन ,धूमिल ,कात्यायनी , रघुवीर सहाय ,केदारनाथ अग्रवाल और ऐसे अनेक नाम है जिन्होंने आम जनता की आवाज़ हो बुलंद किया ,उसे प्रखरता से राजनीतिक -सामाजिक पटल पर रखा पर अफ़सोस की वही आम जनता इनके योगदान से अनभिज्ञ है उसे इनके जीवन संघर्ष तो छोडिये नाम तक नहीं मालूम है ...........तब आप ही बताइये क्या इस बात की जरूरत नहीं की हम इस बात का विश्लेषण करें की ऐसा क्यों होता जा रहा है की आम आदमी की लड़ाई लड़ने वालों का आम आदमियों से कोई जुड़ाव नहीं बचा हैं ये हमारी यानि जनपक्षीय लोगो की हार है क्यूंकि हमारी सबसे बड़ी ताकत जनता ही है हमें उससे सीधा संवाद स्थापित करना ही होगा ,उस संस्कृति को बचाना होगा, उस कला को बचाना होगा ,उस नेता को बचाना होगा ,और उस कलाकार को बचाना होगा जो जनता की लड़ाई लड़ता है ,हमे उन्हें अकेला नहीं पड़ने देना है ,हमें खुद ही ये निर्धारित करना है कि हम किस वर्ग में आते हैं ,हमारी कला कौन सी है हमारी संस्कृति कौन सी हैं ,हमारे कलाकार कौन से है ,आज के इस घोर पूंजीवादी युग कम से कम इतनी वर्ग चेतना का होना तो बहुत जरूरी है वर्ना धीरे-धीरे जनता के लिए लड़ने वालों कि तादाद घटती जाएगी और एक समय ऐसा आएगा कि बकरी का रखवाला खुद शेर होगा तब कितनी दिन तक बकरी बचेगी ये जनता समझ ही सकती है
तुम्हारा -अनंत
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