Sunday, October 30, 2011

समाज एक प्रयोगशाला है (अन्ना आन्दोलन का विश्लेषण और सुझाव )


मैंने कहीं पढ़ा था की समाज एक प्रयोगशाला है जहाँ सामाजिक विज्ञान के नियमों  के प्रयोग और प्रेक्षण किये जाते है ,पर ये प्रयोगशाला साधारण प्रोयागशाला से ज्यादा सतर्कता की माँग करती है कारण ये है की यदि विज्ञान की प्रयोगशाला में कोई गलत प्रयोग या  परिक्षण होता है तो दुष्परिणाम सिर्फ वैज्ञानिक को भुकतना पड़ता है पर समाज में यदि किसी प्रकार का गलत सामाजिक प्रयोग होता है तो इसका दुष्परिणाम सम्पूर्ण समाज को भुगतना पड़ता है ,इसलिए ये बहुत जरूरी हो जाता है समाज में आन्दोलन बड़ी ही सतर्कता से किया जाये और पूरी रणनीत तथा तैयारी के साथ ,नहीं तो आन्दोलन का बड़ा ही विनाशकारी परिणाम सामने आता है ,जब समाज में कोई आन्दोलन होता है तो इतिहास साक्षी रहा है उस आन्दोलन में बहुत से ऐसे तत्व भी आ जाते है जिन्हें आन्दोलन की गंभीरता और मुद्दे की सार्थकता से कोई सरोकार नहीं होता वे बस अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते आन्दोलन में आ जाते हैं और जनता की शक्ति और भावना दोनों का शोषण  करते है ,भारतीय आजादी आन्दोलन भी ऐसे ही अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है मैं नाम ले कर अपने इस लेख से इतिहास के पन्ने नहीं उलटना चाहता ,हर भारतीय जो थोड़ी भी सामाजिक ,राजनीतिक और आर्थिक समझ रखता है उसे इन मतलबपरस्त और अवसरवादियों के नाम मालूम है ,हो सकता है की उसमे भिन्नता हो पर मुझे इस बात का सत प्रतिशत   विश्वास है की हर व्यक्ति कम से कम पांच  नाम तो जरूर गिना ही देगा जो अपनी आर्थिक,राजनीतिक ,और सामाजिक उदेश्यों को लेकर आन्दोलन  में आये और उसका दोहन किया फिर उसे भ्रष्ट करके चल दिए ,परिणाम जैसे की हम सब जानते है की जिस आज़ादी के लिए जनता लड़ रही थी वो उसे नहीं मिल सकी बल्कि मिली तो आजादी के नाम की एक लालीपॉप और उसे नन्हे बच्चे की तरह चूसते रहने का आदेश ,जरा सा भी बड़ा बनने की कोशिश की तो देशद्रोही ,नक्सलवादी ,माओवादी ,आतंकवादी कुछ भी बनाये जा सकते हो ,खैर जो बात मुख्य है वो ये है की आजादी आन्दोलन में भी जो तबका अपने उद्देश्यों को ले कर आन्दोलन में आया था उसने अपने उद्देश्य पूरे किये और जिसके बल पर उसने सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक उद्देश्य पूरे किये वो जनता वैसे का वैसे ही कैदी बनी रह गयी,


मेरा सीधा संकेत उस पूंजीपति वर्ग या पूंजीवादी मानसिकता वाले लोगों की तरफ है जो की आजादी आन्दोलन में बड़े ही प्रगतिशील तेवर के साथ आये थे पर बाद में वो भी साम्राज्यवादियों और सामंतों  की भाषा बोलने लगे ,इसलिए मैं अपने राजनीतिक अनुभव के आधार  पर ये कहना चाहता हूँ , की हमें उस व्यक्ति को बहुत ध्यान से सुनना चाहिए जो हमारे भले की बात कर रहा हो ,चूँकि वो ही हमारा सबसे ज्यादा बुरा भी कर सकता है ,और उस व्यक्ति को भी बड़ी ध्यान से सुनना चाहिए जो हमारे खिलाफ बोल रहा है ,क्योंकि उसकी खिलाफत में हमारी कोई भलाई छुपी हो सकती है , न सिर्फ बात ध्यान से सुननी चाहिए बल्कि अपनी पूरी समझ के साथ उसका सामाजिक ,.राजनितिक, और आर्थिक विश्लेषण भी करना चाहिए फिर कहीं जा कर कोई कदम उठाना चाहिए ,हमें कभी नहीं भूलना चाहिए की जो जैसा दीखता है जो वास्तविकता में वैसा ही हो ये जरूरी नहीं है ,और जो जैसा है वो वैसा ही दीखता हो ये भी जरूरी नहीं है ,


अब आंदोलनों पर इतनी बात यदि मैंने लेख की भूमिका में की है तो जरूर मुझे किसी आन्दोलन की विश्लेषण प्रक्रिया में  जाना है आप समझ ही रहे होंगे और इस वक़्त अन्ना से बड़ा और प्रासंगिक आन्दोलन जनता की नज़र में और दूसरा कोई नहीं है क्योंकि  जनता आज वही देखती और सुनती है जो मीडिया उसे दिखाती और सुनाती है,खैर जो भी  हो अन्ना का आन्दोलन जनता और मीडिया का ध्यान खीचने में सफल रहा है ,पर क्या मीडिया और जनता का ध्यान खींच लेने और किसी हद तक उनका तथाकथित समर्थन प्राप्त कर लेने से कोई आन्दोलन सच्चा और सफल आन्दोलन बन जाता है ,तो जवाब है नहीं ऐसा नहीं है ,कोई प्रतिकार ,प्रतिरोध ,या प्रतिवाद आन्दोलन की शक्ल तब लेता है जब उसके नेतृत्वकर्ता और कार्यकर्ता में एकीकर हो ,मेरे कहने का सीधा मतलब ये है की जब आन्दोलन की दिशा और दशा नेता पक्ष और कार्यकर्ता पक्ष दोनों की आँखों में साफ़ हो ,उनकी राय में स्पष्टता हो , उनका आन्दोलन के मुद्दे से सीधा जुड़ाव हो ,और इन सबसे बड़ी बात है की कार्यकर्ता और नेता दोनों ही आन्दोलन के मूल्य समाज में स्थापित करने की प्रक्रिया में सदैव रत हो ,आन्दोलन जिस सामाजिक ,राजनीतिक ,और आर्थिक बुराई के खिलाफ चलाया जा रहा है असके विपरीत अच्छाई को स्थापित करने का प्रयास सतत रूप से जारी हो,तब कही जा कर आन्दोलन को सच्चा और सार्थक कहा जा सकता है .......सफलता के तो दुसरे ही मापदंड है ,जो फिर कभी किसी और लेख में चर्चा करूंगा, फिलहाल आज इस लेख में अन्ना के जन लोकपाल आन्दोलन की सार्थकता और सच्चाई की चर्चा करते हैं ,आन्दोलन के बीच बड़ी तेजी से ये प्रश्न उठाया जाने लगा की अन्ना का आन्दोलन सच्चा है की नहीं ,सार्थक है की नहीं ........मीडिया भी मानो एक अभियान तहत इस पूरी परिघटना में जूट गयी है ,पर इस पर मेरा एक सवाल ये की ये सवाल इतने बाद में क्यों ? क्या ये सवाल पहले नहीं उठाया जा सकता था ? क्या जो दोष टीम अन्ना के ऊपर है वो पहले नहीं मढ़ा जा सकता था ? क्या पहले यही लोग हीरो थे और बाद में जीरो हो गए? सरकार और मीडिया दोनों की नज़र में ?और ऐसे ही कई सवाल मेरे है जो इन सार्थक सवालों के घेरे से उठते है और मीडिया और पूरे सरकारी तंत्र के सर पर जा कर फूटते है पर मेरे सवालों को छोडिये जनता के सवाल की खबर लेते हैं क्योंकि मैं अपने सवालों का जवाब जनता हूँ और वो जवाब बस एक है की ............जनता को गुमराह करने के लिए ...........मुर्ख बनाने के लिए ..............


पर अहम् सवाल अन्ना के आन्दोलन की सार्थकता और सच्चाई का है तो मेरा मानना है की अन्ना का आन्दोलन सार्थक हो या न हो आन्दोलन का मुद्दा जरूर सार्थक है ,और सच्चाई जैसा की सभी जानते हैं की कटघरे में खड़ी है .................आन्दोलन के नेतृत्व में आपसी कलह इस बात को साफ़ करती है की अन्ना की टीम में राजनीतिक महत्वाकांक्षी तत्वों के बीच  घमासान मची हुई है जो की आन्दोलन पर एकाधिकार ज़माना चाह रहे हैं और आन्दोलन की लोकतांत्रिकता को नष्ट करना चाहते है ,वो जनता की कुंठा और रोष को अपनी ताकत बनाने की फिराक में है ,टीम अन्ना चुनावों में पार्टियों पर दबाव बना कर अपनी राजनीतिक शक्ति और सार्थकता बढ़ाना चाहती है न की इससे आन्दोलन की शक्ति और सार्थकता बढ़ाना  ,  इस प्रक्रिया से व्यवस्था परिवर्तन तो बिकुल ही नहीं होगा जैसा की केजरीवाल साहेब कहते है मैं व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहा हूँ ....
जिस तरह एक-एक करके अन्ना टीम की कोर कमेटी से मेम्बर हट रहे हैं ,वो इस बात का परिचायक है आन्दोलन के नेता पक्ष में मतभेद होने के साथ मनभेद भी है,उनमे आपस में आन्दोलन की दशा और दिशा को ले कर कोई साफ़ तस्वीर नहीं है ,और ना ही कोई वैचारिक आधारभूमि जिसपर वो आन्दोलन को टिका कर विश्राम कर सके ,टीम अन्ना ये जानती है की ये आन्दोलन नहीं ये उन्माद और आक्रोश था इसमें विचार की कमी थी ,इसीलिए अगर इसमें देरी की गयी या फिर कार्यकर्ताओं को यूँ ही छोड़ा गया तो वो भाग जायेगा और फिर से उसे घर से बहार निकालने की लिए मीडिया का सहारा लेना पड़ेगा ,इस आन्दोलन पर मेरी इतनी आलोचना का करने का कारण ये है की मैं ये महसूस कर रहा हूँ की इस आन्दोलन में भी बहुत से ऐसे तत्व आ गए है जो जनता के प्रेम ,शक्ति और भावना का शोषण कर रहे हैं , इस आन्दोलन को अब तक जिस स्तर की जो चेतना पैदा करनी चाहिए थी वो चेतना समाज तो छोडिये कार्यकर्ता स्तर के लोगों को भी नहीं हो पाई है ,जो लोग अन्ना के आन्दोलन से जुड़े है वो या तो इसे एन्जॉय कर रहे है ,या दुसरे गाँधी का दर्शन कर रहे है ,या अपनी देश भक्ति प्रूव कर रहे है ,कुछ तत्व ऐसे भी है जो इस आन्दोलन में सिर्फ उन्माद करने के लिए समर्थकों की भीड़ में घुस जाते है ,उन समर्थको ,उन आन्दोलनकारियों में मुद्दे को ले कर कोई समझ और गंभीरता नहीं है ...........कुछ लोग इस पर अक्सर कहते है समर्थकों और कार्यकर्ताओं में समझ और गंभीरता पैदा इतनी जल्दी नहीं होती है ,और वो इतना आसान भी नहीं है ..तो मैं उनसे बड़े ही आदर और प्रेम से कहता हूँ की कोई सार्थक और सफल आन्दोलन भी इनती आसानी और इतनी जल्दी नहीं होता है वो एक सतत संघर्ष का प्रतिफलन होता है न की मीडिया के धक्के से भेजे गए भोले-भाले लोगो की संख्या के दबाव से पास हुए किसी कानून से की उपज .....मुझे इस आन्दोलन से सार्थक तो आदिवासियों ,गरीबों,मजदूरों और किसानों का वो आन्दोलन लगता है जिसमे हर कार्यकर्ता के भीतर गंभीरता ,समझ ,अपनी माँग को ले कर स्पष्टता ,और इन सब से ज्यादा आन्दोलन के मुद्दे से सीधा जुड़ाव होता है ,वो अपने हक के लिए जान तक दे सकता है ,सत्ता के जुल्म सह सकता है पर यहाँ कहने को तो भ्रष्टाचार सभी भारतियों का मुद्दा है पर सभी भारतीय इससे प्रताड़ित होने के बावजूद इस मुद्दे से सीधा जुड़ाव महसूस नहीं करते, कोई माने न माने एक आम आदमी अपनी जमीन के लिए जितनी संजीदगी से लड़ सकता है उतनी संजीदगी से आज की तारिख में वो भ्रष्टाचार के लिए नहीं लडेगा ,मैं आप से पूछता हूँ की जिस तरह का कहर पुलिस सिंगूर और नंदीग्राम के किसान आन्दोलनकारियों के ऊपर कर रही थी क्या उस तरह का जुल्म आज अन्ना के समर्थक सह  सकते हैं ..........मुझे मालूम है आपका जवाब नहीं में है ,तो अंत में मैं यही कहूँगा की अन्ना का आन्दोलन सार्थक और सफल तभी होगा जब उसकी मुख्य ताकत जनता उसके सार्थकता और सफलता के लिए चिंतित होगी ,क्यूंकि आन्दोलन कैसा भी हो मुदा सार्थक है और सफल भी .........और रही बात टीम अन्ना की तो अगर टीम अन्ना इस आन्दोलन को वाकई सफल और सार्थक बनाना चाहती है तो उसे उसे अपनी दशा और दिशा पर पुनर्विचार करना होगा और जनता की  नेतृत्वक्षमता को विकसित कर के उसको मुद्दे से सीधे जोड़ते हुए उसे भी उसकी चेतना के स्तर पर आन्दोलन में सक्रिय भूमिका अदा करने के लिए प्रेरित करना होगा ,ताकि उसका इस मुद्दे से और इस आन्दोलन दोनों से ही सीधा जुड़ाव बन सके ,साथ ही साथ उन तत्वों को पहचान कर आन्दोलन से बहार करना होगा जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए आन्दोलन में जुड़े हैं ,इस काम में जनता को पहलकदमी करनी होगी उसे ही इस बात की पहचान करने की कोशिश करनी होगी की कौन सा ऐसा तत्व है जो उनकी शक्ति और भावना का शोषण करना चाहता है 

..............जैसे उदाहरण के लिए जीवन भर व्यक्तिवादी प्रेम पर आधारित ,व्यवसायिक कविता पढने वाला कवि यदि जनता का कवी और नेता बनने का दावा या कोशिश करने लगे तो जनता को इसको यूँ ही नहीं लेना चाहिए उसी वक़्त से उसे उस व्यक्ति विशेष ही नहीं पूरे आन्दोलन को पैनी निगाह से विश्लेषित करना चाहिए और यही प्रक्रिया सतत जरी रहनी चाहिए जब तक की आन्दोलन सार्थक और सफल न साबित हो जाये ,क्योंकि अगर जनता जरा सा भी चूकी तो हनन उसी का होना है .................
                                   तुम्हारा --अनंत

ये लेख प्रवक्ता में प्रकाशित है ...........

लिंक प्रवक्ता डाट काम ०:-http://www.pravakta.com/archives/31995
                    

1 comment:

SanDeep THakur said...

A brilliant analysis .... I have no words, dear