Friday, November 15, 2013

देह की ज्यामिति से बहार...

सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा की बात कि यदि रेप न रोक सको तो उसका आनंद लो शायद प्रतापगढ़ लालगंज को वो लड़की नहीं सुन सकी होगी जो बलात्कार का विरोध करते हुए जिन्दा जला दी गयी. खुद पर हो रही ज्यादती का आनंद कैसे लेना है उसे नहीं आता था. उसे नहीं मालूम था कि बलात्कार का भी आनंद लिया जा सकता है. नहीं तो वो लड़ते हुए जलना न स्वीकार करती बल्कि उस आनंद का पान करती जिसका जिक्र रंजीत सिन्हा साहब कर रहे थे. देश की इतनी बड़ी संवैधानिक संस्था का मुखिया कह रहा है तो जरूर कोई नुख्सा होगा जिससे बलात्कार का भी मजा लिया जा सकता हो.
प्रतापगढ़ के लालगंज में मानवता को शर्मसार करने वाली एक घटना फिर सामने आई है. इंटरमीडिएट की एक छात्रा, दो छोटे भाइयों के साथ अपने घर में अकेली थी. उसके माँ-बाप किसी काम से दिल्ली गए हुए थे. तभी एक मनचला उसके घर में घुस आया और उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश करने लगा पर विरोध के चलते नाकाम होने पर उसने लड़की को आग के हवाले कर दिया. इन सबके बीच मासूम छोटे भाई रोते रहे, और अपराधी अपराध कर के भाग निकला.  दिसंबर में दामिनी बलात्कार कांड पर खाई गयी सारी कसमें समय के साथ इतनी जल्दी धुल जाएँगी. समाज की संवेदना और चेतना इतनी जल्दी कुंठित हो जायेगी. इसका कोई अंदाजा नहीं था. " एक अकेली लड़की को खुली तिजोरी समझने वाले इस समाज में एक लड़की को हमेशा ये लगता रहा है कि वो एक वस्तु है और उसे कोई भी कभी भी चट कर सकता है, लूट सकता है, उस पर डाका डाल सकता है.

यहाँ कभी कोई सिरफिरा आशिक चेहरे पर तेजाब फेंक देता है तो कभी कोई मनचला घर में घुस कर बलात्कार करता है और नाकाम होने पर जिन्दा जला देता है. कभी भाई-बाप इज्जत के नाम पर मौत के घाट उतार देते है तो कभी पति और प्रेमी शक की बिनाह पर हत्या कर देते है. माँ-बाप के घर की कैद से ले कर सास-ससुर के घर की काल कोठरी तक सब कुछ एक जैसा ही तो है औरतों के लिए.  हम औरत के बदन के भूगोल में उलझे हुए लोग उसके दर्द के इतिहास के बारे में कभी नहीं जान सकते. क्योंकि हम अभी भी उसके बदन से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं. चाहे हम अपनी बहन की बात कर रहे हो या प्रेमिका की. उसका बदन ही हमारी बात के केंद्र में रहता है. बहन की रक्षा से लेकर राह चलती किस लड़की को छेड़ने तक उसका शरीर ही मुद्दा रहता है. खुद का शरीर भी कभी कभी महिलाओं को एक कैदखाना लगने लगता होगा.

खैर हम उनकी पीढा कैसे समझ सकते है हम तो पित्रसत्तात्मक समाज के लोग है. जहाँ लड़के के पैदा होने पर थाल बजाकर मिठाइयां बांटी जातीं हैं और लड़की पैदा होने पर माँ को गाली दी जाती है. हम रंजीत सिन्हा की मानसिकता वाले समाज के हैं. जहाँ महिलाओं को बलात्कार में आनंद तलाशने की नसीहत दी जाती है. ये देश औरत की आज़ादी और सुरक्षा के लिए जब दिल्ली की सड़कों पर कानून बनाने की मांग कर रहा था ठीक उसी समय सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर जज अपनी पोती की उम्र की मातहत का शारीरिक शोषण कर रहा था. एक अध्यात्मिक गुरु लड़कियों को बलात्कारियों को भाई कह कर पुकारने की सीख दे रहा था और देश के राष्ट्रपति का बेटा आज़ादी की मांग करती औरतों-लड़कियों को " डेंटेड-पेंटेड औरतें" कह रहा था. कितने बार बेपर्दा होगा व्यवस्था का चेहरा, कितनी बार साफ़ जताया जायेगा की ये व्यवस्था औरतों को मर्द के बराबर अभी नहीं मानती है. शरीर अभी भी औरत की आज़ादी की राह में रोड़ा है. बाहर पढाई के लिए जाना हो या फिर काम के लिए ये शरीर जाने से रोकता है. माँ-बाप, भाई, समाज  सब को इस शरीर की ही चिंता हैं. औरत की और उसके दिल की फिकर कौन करता है ? कौन ये समझता है कि उसके भीतर भी एक दिल है. जिसमे अरमान है. उसके पास भी आखें हैं. जिसमे सैकड़ों सपने हैं.
अब औरत को खुद ही  देह की ज्यामिति से बहार अपना संसार गढ़ना होगा.  इस नए संसार को गढ़ने के लिए कई बगावते करनी होगी. कई शहादतें देनी होगी. कई आसरामों, रंजीत सिन्हानों और अभिजीत मुखार्जियों से लड़ना होगा. समाज अपने हक में बदलना होगा.

अनुराग अनंत

खबर की लिंक
http://www.amarujala.com/news/crime-bureau/rape-attempt-burnt-alive-victim-uttar-pradesh/





Thursday, November 14, 2013

राजनीतिक अकाल की उपज

राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति में साधारण से साधारण व्यक्तित्व भी असाधारण लगने लगते हैं और उनकी बिना सर-पैर की नीतियां या सुझाव भी सुनहरे मॉडल कहे जाते हैं. निर्वात में जैसे हर वस्तु हलकी हो जाती है ठीक वैसे ही इस समय देश में राजनीतिक निर्वात है शायद इसीलिए सारी विचारधाराएँ हवा में तैरती हुई जान पड़ती है. इस समय विचारधारा को संशोधनवाद और प्रयोगवाद ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है. आज वाम से ले कर दक्षिण तक सब गड्ड-मड्ड हो गया है. आंबेडकर की अस्मिताई राजनीति से लेकर जेपी और लोहिया का समाजवाद तक सबकुछ बिखरा हुआ, बेतरतीब सा दीखता है. इस राजनीतिक निर्वात के समय में  छापामार राजनीति करने वालों और विचार को फैशन की तरह ओढने वालों की चल निकली है. सब उनमें देश का भविष्य तलाशने लगे हैं. उनके किये बिन सर-पैर के वादे उज्जवल भविष्य की कुंजी माने जा रहे हैं और विचारधारा की राजनीति करने वाले लोग पुरातन व पिछड़े कहे जा रहे हैं.  

देश में इंटरनेट आने के बाद राजनीति में भी व्यापक बदलाव आये हैं, लोकप्रियता के पैमाने बदले हैं. लोग इन्टरनेट में चलने वाले पोल, मिलने वाली लाइक, कमेन्ट और विजिट को अपनी लोकप्रियता का पैरामीटर बताने लगे हैं और मीडिया से लेकर आमजनता तक उस आभासी दुनिया की लोकप्रियता को कोट करने लगी है. देश में खासतौर पर पिछले दो सालों में इंटरनेट पालिटिक्स ने देश के युवाओं और बहुत हद तक मध्यम वर्ग की राजनीतिक चेतना को प्रभावित किया है. अन्ना का आन्दोलन हो, अरविन्द केजरीवाल का उदय या फिर आम आदमी पार्टी का प्रभावशाली उभार इनसब के पीछे इन्टरनेट की महती भूमिका रही है. नरेन्द्र मोदी को लोकप्रिय बनाने में भी इन्टरनेट ने बड़ी भूमिका निभाई है. इन्टरनेट पालिटिक्स के महत्व का अनुमान हम इस बात से भी लगा सकता है कि एक व्यक्ति जिसे स्वयं उसकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और गठबंधन की कई पार्टियां पसंद नहीं करती, वो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन जाता है. ये इन्टरनेट की आभासी दुनिया पर उसकी विश्वव्यापी लोकप्रियता और उसके गुजरात मॉडल की ब्रांडिंग ही थी कि पार्टी के बड़े नेताओ को भी मोदी के सामने झुकना पड़ा और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. मोदी ने इस अभियान की शुरुवात २००७-०८ में एपको वर्ल्डवाइड नाम की अमेरिकन विज्ञापन एजेंसी को खुद के छवि निर्माण के लिए नियुक्त करके कर दी थी. जिसके परिणाम हमें २०१३ में पूरी रंगत के साथ दिख रहें हैं. मोदी इन्टरनेट पालिटिक्स और तकनीक के महत्त्व को समझते हैं तभी तो उन्होंने एक पूरी टीम बना रखी है जो मोदी की इन्टरनेट पर ब्रांडिंग करती है. उनकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए अभियान चलाती है और फिर मीडिया से लेकर आमजनता तक उसी आभासी लोकप्रियता और समर्थन की आंधी में उड़ती नज़र आती है. मोदी की तरह दूसरी जो शख्सियत इन्टरनेट और तकनीक के हथियार से राजनीति का समर लड़ रही है वो है, अरविन्द केजरीवाल. एक ऐसा आदमी जो दो साल पहले राजनीति की “रा” नहीं जानता था आज “आप” के नाम पर आपको क्रांति बाँट रहा है. केजरीवाल ने आपकी क्रांति नाम से एक वेब साईट बनवाई है. जहाँ जाते ही आपको महसूस होता है की क्रांति एक उत्पाद है जिसे केजरीवाल आपको सस्ते दाम या यूं कहिये मुफ्त में दे रहे हैं. उनकी पार्टी की वेबसाईट पर ऊपर ही एक डिजिटल घड़ी लगी है जो  मतदान की तिथि को कितने सेकेण्ड बचे हैं ये बताती है. आपको वहाँ कोई सेल लगे होने का पूरा अहसास होता है. केजरीवाल और मोदी ने देश में छापामार राजनीति का नया व्याकरण गढा है. उन्होंने देश की आभासी नब्ज़ टटोली है. वो इन्टरनेट पर मौजूद आभासी लोगों को देश की जनता मान बैठे हैं. इसीलिए उनकी राजनीती, उनके सवाल और चिंताएं सबकुछ आभासी ही लगते हैं.

मोदी ने झाँसी में यूपी के मजदूरों के लिए छ: महीना काम और छ: महीना आराम का जो मॉडल बताया वो मजदूरों के प्रति उनकी खोखली समझ और पूंजीवादी शोषण के गिरफ्त में मजदूरों को धकेलने की साजिश सी जान पड़ती है. मोदी का ये मॉडल कांट्रेक्ट लेबर मॉडल का एक घिनौना रूप होगा. इसके अलावा अर्थशास्त्रीय नज़रिए से भी ये मॉडल निराधार ही है. वहीँ केजरीवाल का स्वराज का मॉडल कई सारे सवालों पर औंधे मुंह गिरता हुआ दीखता है. ये केजरीवाल के भारतीय समाज की समझ का अभाव ही है जो वो जनता को दूध का धुला मान रहे हैं  और अतिविकेंद्रिकरण की बात कर रहे हैं. इसी जनता और आम आदमी के बीच सामंती और जातिवादी सोच वाले लोग भी हैं. दलित, किसान मजदूर और स्त्री भी हैं. केजरीवाल की जनता और आम आदमी कौन है? ये साफ़ नहीं हुआ है. शायद अभी केजरीवाल को भी उनके आम आदमी की परिभाषा ठीक ठीक मालूम नहीं होगी. उनका एक बहुत प्रयोग किया जाने वाला उदाहरण है कि गांव में नल कहाँ लगेगा इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए ये वहाँ के लोग तय करेंगे कि नल कहाँ लगेगा. मेरा सवाल है कि वो गांव जहाँ आज भी ठाकुर साहब का कहा जनता का कहा होता है. वहाँ सरकार के प्रभाव न होने पर तो नल किसी ठाकुर जी के या यहाँ किसी पंडित जी के यहाँ ही लगेगा. तब तो आपका स्वराज फिर से सामंती जकड़ को नए चेहरे के साथ समाज में लाएगा. 

खैर मोदी और केजरीवाल जैसे नेता अपनी दूरदर्शिता और तकनीक के प्रयोग से राजनीतिक वितान पर एक सशक्त परिघटना तो बन कर उभरे हैं पर इनके नेतृत्व में देश की जनता कहीं नहीं है- मजदूर, किसान, दलित और स्त्री कहीं नहीं हैं. ये देश में विचारधारा आधारित राजनीतिक-अकाल की उपज है जिनसे भूखे को भूख मिलेगी और खाए अघाये को खाना.

अनुराग अनंत 

Saturday, November 9, 2013

सब कुछ सुनहरा नहीं


एक ऐसे समय में जब सबकुछ सुनहरा-सुनहरा ही बताया जा रहा हो. सांसद धंनजय सिंह के दिल्ली स्थित सरकारी आवास पर काम करने वाली महिला, राखी की मौत कई सारे भ्रम एक साथ तोडती है. इन्टरनेट के इस तिलस्मी समय में जब जाति, रंग और वर्ग के सवाल बीते दिनों की बात कही जाने लगी है. तब ये घटना एक बार फिर सच्चाई नए सिरे से बयां करती है. दासता के बदले हुए स्वरुप और लोकतान्त्रिक सामंतो का विद्रूप चेहरा बेपर्दा करती ये घटना समाज की संवेदना और चेतना से लेकर देश में लोकतंत्र की जीवंतता तक पर कई सवाल खड़ा करती है. दलितों और वंचितों की पार्टी कही जाने वाली बीएसपी से आया एक नेता, जिसका इतिहास अपराधों का इतिहास है और उसकी पत्नी अपने ही घर में काम करने वाली महिला राखी की निर्मम हत्या के आरोप में हिरासत में है. ये विचारधार का विरोधाभास और सामाजिक न्याय की लड़ाई की संकल्पना के साथ चलती हुई पार्टी का पक्षधरता और सरोकार के सवाल पर ध्वस्त होना नहीं तो और क्या है?

गौरतलब है कि राखी के बेटे शहनाज़ को पुलिस ने पूछ-ताछ के लिए बुलाया था जिसके बाद से उसका कोई पता नहीं लग रहा है. कयास लगाये जा रहे हैं कि सांसद ने उसकी हत्या या अपहरण करा दिया है. सांसद ने जिस तरह से पहले सीसीटीवी कैमरे के फूटेज गायब कराये और फिर राखी के बेटे को गायब कराया वो ये साफ़ बयां करता है कि इस सियासी सामंत के मन के कानून को ले कर कितना खौफ़ है. क्या इस देश का कानून केवल गरीब, किसान, मजदूर और मेहनतकश को ही डरा सकता है ? उनकी ही जमीने और रोटी छीन सकता है. पेट के सवालों में उलझे हुए इंसानों को डराने वाला कानून क्या कारण है कि ऐसे सियासी सामंतो के दिल में झुरझुरी तक नहीं पैदा कर पाता ? वो संविधान जो “हम भारत के लोग... से शुरू होता है. सिर्फ भारत के आम लोगों को ही डरा सकता है. सत्ता और सियासत के आगे इसके कुछ और ही मायने हो जाते है. खैर इस पूरे घटनाक्रम से जो चीज़ साफ़ दिखती है वो है  व्यवस्ता में व्याप्त सामंतवाद व उसका सामंती चरित्र. 

ये घटना ये भी दिखाती है कि कैसे घर में काम करने वाले लोगों को इस समाज में पूंजीपति, सामंती और तथाकथित पढ़े लिखे लोग अपना दास और निजी बपौती समझते है. इन मेहनतकश लोगों के लिए सुरक्षा, न्याय और लोकतंत्र जैसे शब्द कोरे लफ्फाजी के अलावा कुछ और नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के नेता जी नगर में एक एयर होस्टेस ने अपने घर में 12 साल की मेड को कमरे बंद करके आस्ट्रेलिया चली गयी थी. जिसे दो दिन बाद ने पुलिस ने बहार निकला था. ऐसे ही निर्ममता की कई कहानियां है. जो महानगरों की चमकदार गलियों के घुप्प अँधेरे में दम तोड़ देती है या दबी कुचली आवाज़ की तरह न जाने कब उठती है और कब दब जाती है.

एक देश जहाँ एक लाख छिहत्तर हज़ार करोंड़ का घोटाला लोकतंत्र के सिरमौर माननीय सांसद जी लोग करते है. वहीँ उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों से गरीब लड़कियां-औरते रोटी की तलाश में महानगरों में यौन शोषण से लेकर निर्मम हत्याओं तक का दंश भोगने को अभिशप्त हैं. और हर बार कोई धनजय सिंह, कोई पूंजीपति. कोई सामंत, थोड़ी सी कानूनी नूराकुश्ती और मीडिया उठापटक के बाद मुक्त हो जाता है फिर से वही सबकुछ करने के लिए. और इस सब के बीच हम कुछ सुनहरा है के ख्याल के साथ, आल इज वेल कहते हुए पाए जाते हैं.  


मेरा ये लेख जनसत्ता में 13-nov-2013 को छापा था यहाँ मैं नीचे लिंक दे रहा हूँ आप इसे जनसत्ता की वेबसाईट पर भी पढ़ सकते हैं. 

Monday, July 29, 2013

हमें ये बेखबरी का दौर तोडना होगा. ...

ये सावन का महीना है. बादलों की सरकार और बूंदों की व्यवस्ता चल रही है. हम भीतर से लेकर बाहर तक सावन के रंग में रंग गए हैं और इस समय मन जब तब गा उठता है....सावन का महीना पवन करे शोर..जियरा रे ऐसे नाचे जैसे बन में नाचे मोर...| मैं कल अपनी बाइक पर लौट रहा था. कि तभी बारिश होने लगी, बारिश की रिमझिम में मन यही गीत गाने लगा. सुनील दत्त और नूतन पर फिल्माया ये गीत 1967 में बनी फिल्म “मिलन” का है. ये तो मुझे पता था पर दिल अलग ही सवाल पूछ बैठा, ये गीत लिखा किसने है? फिर क्या था, मन अशांत हो गया. एक ग्लानी का भाव उमड़ उठा, और मैं सोचने लगा की ये गीत जो देश में सावन के प्रतीक गीतों में से एक है और बारिश की एक बूँद भी शरीर पर गिरते ही हर हिन्दुस्तानी दिल इसे गुनगुना उठता है, उसके ही लेखक का नाम नहीं मालूम. ऐसे ही न जाने कितने गीत हैं जो वक्त का बंधन तोड़ कर हमारी जिंदगी, हमारी खुशी, हमारे गम का हिस्सा है पर हम उन नामों को नहीं जानते जिन्होंने हमारी अनकही अमूर्त भावना को गीत के रूप में साकार किया और हमारे कई अव्यक्त भावों को अमर स्वर दिए. जब हम-आप उदास होते है और कुछ नहीं समझ आता तो अकसर “आनंद” फिल्म का गाना “ जिंदगी कैसी है पहेली हाय!...या “सफर” फिल्म का गीत “जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर..या फिर ऐसे ही अनगिनत गाने हैं जिनसे हम अपना दर्द बाँट लेते हैं. ये गीत कभी हमारे आंसूं पोछ कर काँधे का सहारा देते हैं तो कभी उदास मन में एक नई उमंग भर देते है. पर अफ़सोस हम उन नामों को नहीं जानते जिन्होंने हमें इतने अनलोम तोहफे दिए.

ऊपर जो मैंने दो गीत बताये हैं उनके बोल पढते ही आपके दिमाग में जो पहली तस्वीर बनेगी वो राजेश खन्ना की होगी क्योंकि ये गीत उनपर ही फिल्माए गए हैं पर आपके दिमाग में “योगेश” और “इंदीवर” का नाम तक नहीं आयेगा. जो इन गीतों के गीतकार है. ये हम दर्शकों की उदासीनता कहें, या फ़िल्मी दुनिया का बेजा दस्तूर. जो हिंदी फिल्मों का गीतकार हमारी जिंदगी में इतनी अहमियत रखने के बावजूद इतना उपेछित है. हम दिन रात जिस गीतकार के लिखे गीत गुनगुनाते रहते हैं उसके नाम तक को नहीं जानते और न जानने की कोशिश ही करते हैं.

 मैं जब किसी को कोई गीत गाते सुनता हूँ और उससे उसके लेखक का नाम पूछता हूँ तो 99.99% लोगों को गीतकार का नाम नहीं मालूम होता. ये एक ऐसा सच है जो कई सारी सच्चाइयों को झुठला देता है. जैसेकि अच्छे गीत ही फिल्म की जान होते है, गाने अच्छे हैं तो फिल्म कभी घाटा नहीं खा सकती या फिर अच्छे गीत फिल्म को अमर बना देते हैं. मैं पूछता हूँ अगर ऐसा है तो इन गीतों को लिखने वाले गीतकारों की हालत इतनी दयनीय और जिंदगी इतनी गुमनाम क्यों है. मुझे ये कहते हुए थोड़ी सी भी झिझक नहीं होती कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री लेखकों और गीतकारों के खून पी कर पनप रही है. ये उनके गुमनाम संघर्ष और शोषण पर टिकी हुई है. और हम, हमारे ग़मों को आवाज़ देने वालों के ग़मों से बेखबर हैं. 

कितने नाम गिनाएं जाएँ, फेहरिस्त बहुत लंबी है गुमनाम शहीदों की, योगेश, इंदीवर, राजेंद्र किशन, भारत व्यास, अनजान, प्रेम धवन, गुलशन बवरा, आरज़ू लखनवी, शैलेन्द्र, ये कल के वो नाम हैं जो हमारे आज में गुनगुनाते है. जो हमारे जिंदगी का हिस्सा हैं. आज के कुछ नाम जो अपना कल दोहरा रहे है और अपने पुरखो की तरह ही गुमनामी में ही गीत लिखे जा रहे है जैसे मिथुन, संदीप नाथ, तुराज़, संजय मासूम, इरशाद कामिल, हिमांशु कुमार, शब्बीर अहमद, निरंजन इयांगर, रजत अरोरा, अमिताभ भट्टाचार्य, जावेद बशीर, कुमार, प्रिया पंचाल,  न जाने कितने युवा गीतकार और लेखक है जो लगातार उन्दा लेखन कर रहे है पर हम उन्हें नहीं जानते. हम हिन्दुस्तानी, पटकथा लेखक और गीतकार के नाम पर जावेद और गुलज़ार से आगे ही नहीं बढ़ पाते. पर अब समय बदल चूका है. एक पूरी की पूरी खेप आ चुकी है जो बहुत ही उन्दा और जिन्दा लिख रही है. जरूरत है तो बस उनके हुनर को उनका हक देने की. उनकी वो पहचान उन्हें देने की जिसके वो हक़दार हैं. 

मैंने जितने नाम ऊपर गिनाये हैं, उन सबके गीत और फ़िल्में तो मैं यहाँ नहीं बता सकता पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि इनके लिखे गीत और संवाद, हमारी  जिंदगी का अटूट हिस्सा हैं और उनके बिना शायद हम खुद को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकते. त्यौहार नहीं मना सकते, हंस नहीं सकते, रो नहीं सकते. 

अब इन दिनों आशिकी 2 का ही मशहूर गीत “सुन रहा है न तू, रो रहा हूँ मैं.... को लें ले, जो संदीप नाथ जैसे युवा गीतकार  ने लिखा है, या "राँझना" जैसी सुपरहिट फिल्म जिसे हिमांशु कुमार ने लिखा है पर ये  हममें से कईयों को नहीं पता होगा . हमें ये बेखबरी का दौर तोड़ना होगा. और मुझे ये उम्मीद है की वो दिन जल्द ही आयेगा.

मेरा ये लेख दैनिक जागरण के (आई नेक्स्ट) में दिनांक 17-10-2013 को प्रकाशित हुआ है. लिंक नीचे है यदि चाहें तो वेबसाइट पर भी पढ़ सकते है.




Saturday, July 13, 2013

जिंदगी ज़ब्त हो गयी शायद...

समंदर पर चल कर आती हुई लहर जैसे किनारे पर सर पटक कर मर जाती है वैसे ही उस दिन मरे थे कई ज़ज्बात, आखरी बार तडपते हुए देखा था उन्होंने मुझे, मानो कुछ भी नहीं कहना चाहते वो मुझसे और मैं खड़ा था वहीँ पर जैसे खड़े रह जाते हैं स्टेशन के किनारे के पेड़, जाती हुई रेलगाड़ी को देखते हुए, सब कुछ ऐसा घटा जैसा उसे घटना चाहिए. आस-पास जो हवा थी अचानक पानी बन गयी थी और एक नाकाम कोशिश जो बहुत पहले गंगा में डूब मरने की,  की थी, कामयाब होने पर अमादा थी. दम घुट रहा था और जहन में एक गाना गूँज रहा था "तड़प तड़प के इस दिल से आह निकलने लगी कि ऐसा क्या गुनाह किया कि लुट गए हम तेरी मोहब्बत में..." मन ही मन हम जल रहे थे पर होंठों पर मुस्कान थी. कितना कठिन होता है, रोते हुए हंसना हमने जान लिया था उसी एक क्षण में. आँखों में शाम उतर आई थी और कड़ी धूप में भी ऐसा लग रहा था कि बारिश हो रही हो. सिविल लाइन की रोड जहाँ थोड़ी सी सावधानी हटने पर मौत पक्की मानी जाती थी. मेरी आँखों में बिलकुल सूनसान दिख रही थी. उस समय मुझे कोई आदमी नहीं कह सकता था. मैं बिलकुल एक कटी पतंग हो गया था. जिसे कोई लूटना वाला भी नहीं था. जिसके हाँथ में मेरी डोर थी उसी ने डोर हाँथ पर से तोड़ दी थी और मारा था एक गुलाबी फ़्लाइंग किस धीरे से, मीठी मुस्कान चिपका कर,  भाई मन तो करा था कि उसकी फ़्लाइंग किस पर एक जोरदार किक चपका दें, पर क्या करें  मरते हुए आदमी में कोई ऐटीट्यूड नहीं होता, वो या तो कराह सकता है या मुस्कुरा सकता है. मैं उस समय कराहना चाहता था पर मुस्काना पड़ा. 

 वो यूं तो मेरे सामने से चली गयी थी पर मुझे वो साइकिल चलाती हुई दिख रही थी और मैं जो पेड़ों की तरह खड़ा था. उसने भी एक रेंजर साईकिल की सवारी कर ली थी. हम छ: साल पीछे चले गए थे. शायद शाम का वक्त था और हम दोनों कोचिंग से पढ़ कर वापस आ रहे थे. मैं उसके पीछे और वो मेरे आगे थी. उसके बराबर चलने की हिम्मत मेरे में नहीं थी. पर वो अक्सर मुझे आगे अपने साथ बुला लेती थी. उसकी आँखों में रेगिस्तान और समंदर दोनों थे और इसीलिए मैं उसकी आँखों में या तो डूबने लगता था या हांफने लगता था. वो अक्सर समझ जाती थी की मैं डूब रहा हूँ या हांफ रहा हूँ और खिलखिला कर हँसने लगती थी. जब वो हँसती थी न!  तो लगता था जैसे मानो मोहल्ले की मंदिर में आरती हो रही हो. बिलकुल पवित्र हंसी थी उसकी. मैं शाहरुख खान की तरह उसका नाम पुकारना चाहता था पर "ओम नम: शिवाय" बोल बैठता था. उसका और मेरा परिवार शिव जी का भक्त था. दोनों ब्राह्मण परिवार थे.

वो निराला चौक से अपने घर के लिए मुड जाती थी और मैं हनुमान जी की मंदिर की ओर मुड जाता था. क्योंकि मैं उसके पीछे ये कह कर आता था की मुझे हनुमान जी के दर्शन करने जाना है. हर दिन विदा होते हुए "आई लव यू" कहने का मन करता था पर "जय श्री राम" कह बैठता था. वो समय, समय जैसा नहीं था, वो कबूतर का पंख था जो थोड़ी सी हवा लगने पर फुदकने लगता था. पकड़ना मुश्किल था उन दिनों मुझे भी और मेरे समय को भी.....अरे भाई  मैं जनता हूँ की मैं सिविल लाइन में खड़ा हूँ और मेरे आस-पास कोई नहीं है. जो थी वो जा चुकी है. मैं छ: साल पीछे कहीं पर उलझा हुआ हूँ. हवा पानी हो चुकी है और रोड से सारी गाडियां गयाब हो गयी है. मैं जो एक पेड़ की तरह खड़ा था वो साइकिल में सफर कर रहा हूँ और वो लड़की जो कार में अभी-अभी चली गयी है. वो साइकिल से घर लौट चुकी है. तुम मुझे वापस बुलाना चाहते हो और सिविल लाइन में फैले हुए बवाल को खतम करना चाहते हो पर मैं एक भँवर में फंस चूका हूँ और फिलहाल वापस नहीं आ पाउँगा.ये मेरी मजबूरी भी है और मेरी इच्छा भी.

         मेरी आँखों में दृश्य बदल रहे हैं और अब मैं हमारे कसबे के सबसे व्यस्त चौराहे से  कोयले की बोरी लिए हुए गुजर रहा हूँ मेरे दिमाग में एक तस्वीर है जो उस लड़की की है जिसे मैं बचपन में प्यार करता था. ये बात और है कि उस समय मुझे प्यार की स्पेलिंग भी नहीं मालूम थी. यही कोई दूसरी या तीसरी कक्षा रही होगी. उस लड़की के बाल मुझे बहुत अच्छे लगते थे और जब मैं उसे याद करता था तो मेरी आँखों में उसके बाल ही दिखाई देते थे. मैं उसे एक कविता समझता था और उसे पढना चाहता था। उसे नए सिरे से रचना चाहता था। शायद इसीलिए मैं बचपन से ही कवी बनना चाहता था, बिना ये जाने हुए की कवी कोई बनता नहीं समय लोगों को कवी बना देता है। वो जब हंसती थी तो ब्रम्हांड के सारे नियम टूट कर बिखर जाते थे और एक आह सी उठती थी. जो प्रकृति स्वयं उसके सौन्दर्य से इर्ष्या करके भर रही होती थी. वो कुल मिला के बहते हुए पानी की धारा थी और मैंने उस पर कुछ लिखना चाह था. शायद लिख भी दिया था पर पढ़ नहीं पाया और पानी आगे बह गया था। बह कर कहाँ गया पता नहीं पर मैं प्यासा हूँ, था और रहूँगा उस पानी के लिए जिसकी सतह पर मैंने समय को कविता बना कर लिख दिया था। मैंने खुद को गढ़ा था उसकी हर एक बूँद में। उस पानी की धार जैसी लड़की का नाम 'स्नेहा' था. वो कहाँ की थी पता नहीं पर रहती मेरे दिल में थी.

 कक्षा तीन तक जिंदगी अपनी रफ़्तार में चल रही थी. सुबह माँ की डाँट उठाती थी और शाम को खेल की थकान सुला देती थी. दिन मनो शुरू होते ही खतम हो जाया करता था. पढाई करना एक औपचारिकता थी जिसे मैं औपचारिक रूप से ही निभा रहा था. रोज मैडम की डाँट-मार मिलती थी और वो भी जिंदगी का हिस्सा हो गयी थी. पर स्नेहा के आने के बाद मैं पढाई को पढाई की तरह करने लगा था. क्योंकि यही एक रास्ता था उसके करीब जाने का, उससे रिश्ता बनाने का. इन सब के बीच दो साल बीत गए और मैं पांचवीं पास करके सरकारी कालेज में अपनी बारहवीं तक की पढाई के लिए चला गया. स्नेहा आठवीं तक वहीँ पढ़ती रही. स्नेहा के पास मेरा जैसे कुछ छूट गया था. मैं नहीं जनता क्या था वो? पर उसे देखने की दिल में उन दिनों एक अजीब सी उलझन रहा करती थी. मैंने तब तक प्यार का नाम भी नहीं सुना था. इसलिए मैं उसे प्यार नहीं कह पाया था. वो क्या है ? या क्या हो रहा है? मैं नहीं जनता था. मैं रोज लंच के बाद कालेज की दिवार फांद कर उसे देखने के लिए भाग आता था. मैं उसका पीछा करते हुए उसके घर तक जाता और उसे तब तक निहारता रहता जब तक वो घर के भीतर नहीं चली जाती.तीन साल तक मेरी यही दिनचर्या रही. फिर आठवीं की छुट्टियाँ हुई और वो जो उन छुट्टियों में कहीं गयी फिर कभी नहीं आई. मैं उसे तलाशता रहा पर कभी नहीं मिल सका.  





Thursday, February 7, 2013

ये समय नारी मुक्ति का इतिहास लिखने का समय हैं....

कश्मीर की वादियों में इन दिनों सबसे बड़े मुफ्ती बशीरुन्दीन अहमद की जहरीली आवाज़ गूंज रही है. आबो-हवा में संगीत, कला, प्रतिभा और सपनों का दम घोट देना वाला फ़तवा तैर रहा है. लड़कियों के एक मात्र बैंड “प्रगाश” को बंद करने के लिए कट्टरपंथियों ने लामबंदी कर ली और हदें तोड़ते हुए उन लड़कियों को सोशल नेटवर्किंग साईट पर बलात्कार तक की धमकी तक दे डाली. डरी-सहमी लड़कियों को अपना बैंड बंद करने और कभी गाना न गाने का फैसला लेना पड़ा.

इस्लामिक संघटन दुश्तकान-ए-मिल्लत ने बैंड में शामिल लड़कियों के परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया और इसी के साथ एक बार फिर साबित हो गया कि कोई भी धर्म कभी भी लड़कियों और महिलाओं को बराबर का दर्जा नहीं दे सकता. चाहे वो हिंदु धर्म हो या इस्लाम या फिर दुनिया का कोई और धर्म हो. मुझे दुःख होता है ये देख कर कि जिन प्रतिभाओं को सर आँखों पर बिठाना चाहिए था उन्हें समाज बलात्कार की धमकियाँ दे रहा है. जिनकी आवाज़ सात समंदर पार जा सकती थी वो बंद दरवाजे में गुट रहीं हैं. ये कैसा धर्म है? ये कैसा समाज है? जहाँ लड़कियां खुद ही खुद में कैद कर दी जातीं है. और उनकी आवाज़ तक नहीं निकलने दी जाती. चाहे किसी खाप का सरपंच हो या मंदिर-मस्जिद का पुजारी-मुल्ला सब के सब हांथों में जंजीरें लिए लड़कियों की प्रतिभा, क्षमता, और आजादी को कैद करने को तैयार पाए जाते हैं.  “प्रगाश” का बंद होना एक ऐसी सांकेतिक घटना है जो ये दिखाती है कि समाज में लड़कियों की आज़ादी पर कितने कड़े पहरे हैं और हमारे देश की आधी आबादी, कितने तरह-तरह की जंजीरों में कैद है

कोई लड़की बढ़ कर ये पूछ सकती है कि मेहँदी हसन, गुलाम अली, रहत फ़तेह अली खान, नुसरत फ़तेह अली खान, आतिफ असलम जैसे पुरुष गायकों पर कभी फ़तवा जारी क्यों नहीं किया गया. उनसे कभी क्यों नहीं कहा गया कि संगीत इस्लाम में हराम है. क्यों ?....क्योंकि वो पुरुष थे?
मैं जनता हूँ उस लड़की के सवालों का कोई जवाब न मुफ्ती साहब के पास होगा और न किसी धर्म के पास. जवाब सब जानते है. लड़की को “लड़की” और लड़के को “लड़का” समझने वाला समाज दोनों को बराबरी का दर्जा नहीं दिला सकता.

इस समाज में जिस दिन से कोई लड़की कन्धों पर दुपट्टा लेने लगती है उसी दिन से वो एक वस्तु हो जाती है जो छाती, कमर के नीचे, और टांगों के बीच के हिस्से में बंटी होती है. उस दिन से माँ उसे परियों की कहानियों के बजाय कपडे पहने, अपने अंगों को ढकने, बात करने, चलने, देखने, हँसने, मुस्कुराने के तरीके समझाने लगती है. तो बाप की नज़र, बागबान की नज़र से कोतवाल की नज़र हो जाती है जिसे हमेसा ये लगता है कि उसकी लड़की किसी और का धन है और उसे इसकी हिफाजत करते हुए उन्हें सौंप देना है जिनकी ये अमानत है. तभी तो बात-बात पर उसे जाता दिया जाता है कि बेटी तू पराया धन है, तुझे कहीं और जाना है. उसका भाई जो कल तक हमसाया था, वो अचानक रखवाला बन जाता है और बहन की साँसों और दिल की धडकनों तक पर पहरा देना चाहता है. और इस तरह लड़कियां अपने ही घर में कैद कर दी जातीं हैं.

मुझे याद हैं बचपन के वो दिन जब गर्मियों में लाईट चले जाने पर मोहल्ले भर की लड़कियां गली भर में दौड लगातीं थीं. सावन में झूले डाले जाते थे. लुका-छिपी से ले कर दौड़ा-भागी तक न जाने कितने खेल खेला करते थे हम. पर आज जैसे गली में कोई लड़की ही नहीं है. सब कहते है कि जमाना खराब हो गया है. मैं कहता हूँ, हम खराब हो गए हैं और हमारी सोच खराब हो गयी है. जहाँ हम लड़कियों को इंसान के बजाए खुली तिजोरीघर की इज्ज़तपराया धनखानदान की शान और एक वस्तु समझ बैठे हैं. आज जवान होते ही लड़कियों के  कट्टो,गिलहरीछम्मक-छल्लोरानीबिल्लोकंटासकटपीसमालशीलामुन्नी, जैसे न जाने कितने  नाम पड़ जातें हैं और उनके असली नाम गुमनाम हो जाते है. राह पर चलते हुए से ले कर बस में सफर करते हुए तक उन्हें उन्ही नामों से पुकारा जाता है.

ये गज़ब का खतरनाक समय है जो लड़कियों से उनकी कला, प्रतिभा, आज़ादी और पहचान सब कुछ  छीन लेना चाहता है. इस कठीन दौर में जरूरत है कि देश की महिलाशक्ति  एकजुट हो जाये और इसे अपनी मुक्ति के संग्राम की तरह समझे, हर गलत चीज़ का प्रतिकार करे, विरोध करे. तब तक, जब तक उसके पैरों की सारी बेडियाँ कट न जाएँ. ये समय नारी मुक्ति का इतिहास लिखने का समय हैं. 

अनुराग अनंत 


दैनिक जागरण (i-next) में 19-2-2013 को लेख प्रकाशित पढ़ने के लिए लिंक क्लीक http://inextepaper.jagran.com/90805/I-next-allahabad/19.02.13#page/11/1



Wednesday, January 2, 2013

स्वतंत्रता बनाम स्वछंदता


जब सारा देश नए साल का स्वागत जश्न के माहौल से नहीं बल्कि आँखों में आंसू लिए इस संकल्प के साथ कर रहा था कि अब देश की किसी भी लड़की या महिला के साथ बलात्कार जैसी आमानवीय घटनाएं नहीं होने देंगे. उसी समय गुडगाँव के एक समारोह में कला के नाम पर अश्लील कुंठाएं बेचने वाला एक गायक अपने फूहड़ गानों का दरबार सजाये बैठा था. ये वही था जो ‘’मैं हूँ बलात्कारी’’ जैसे क्रूर और अश्लील गाने गाता है और विडम्बना ये कि प्रसिद्धि और लोकप्रियता भी हासिल कर लेता है. दुःख तो तब होता है जब इसके चाहने वालों में लड़कियों की भी भारी संख्या देखी जाती है.

दिल्ली की सड़कों पर जो युवा “ वी वांट जस्टिस” के नारे लगते, पुलिस की लाठी खाते पाए जाते है वही इसके गानों और वाहियात कार्यक्रमों में थिरकते और इसकी एक दरश को तरसते भी मिलते है. हैरानी तब और बढ़ जाती है. जब देश की सरकारें इसे सरकारी कार्यक्रमों में बुलातीं है और मंचों पर मुख्यमंत्री इसके साथ नाचती हुई पायी जातीं है. सच कहता हूँ यकीन नहीं होता कि 21 वीं सदी में क्या यही कला और कलाकार हैं? अगर हाँ तो मुझे लगता है कि कला और कलाकार दोनों की संवेदना मर चुकी है. जब मैं ये सब कुछ सोच रहा हूँ तब मेरे दिमाग में कालीदास से ले कर सफ़दर हाश्मी तक के नाम आ रहे है और मन में वन्देमातरम से सरफरोशी की तमन्ना तक सब कुछ गूँज रहा है.

हिन्दुस्तान के मनोरंजन उद्द्योग, खास तौर पर फिल्मों ने महिलाओं के साथ ज्यादातर अन्याय ही किया है. एक महिला पर बीतने वाली सबसे भयानक ट्रेजडी “बलात्कार” को फिल्मों में सक्सेस कंटेंट और मसाला एलिमेंट की तरह यूज किया जाता रहा है. और लगभग हर फिल्म में महिला को उसकी सोकॉल्ड इज्ज़त लुटने के बाद हासिए  पर धकेल कर फिल्म को इज्ज़त लूटने वाले पुरुष और इज्ज़त बचने वाले पुरुष का संघर्ष मात्र दिखया जाता रहा है. इन फिल्मों और विज्ञापनों ने कहीं न कहीं महिलाओं और उनके शरीर को एक उत्पाद की तरह पेश करने और उसे मुनाफे के लिए प्रयोग करने की कोशिश की है. तभी कहीं पंखे के विज्ञापन में फ्रांक उड़ाती लड़की तो कहीं परफ्यूम के विज्ञापनों में लड़के की ओर पागलों सी भागती, लिपटती, यहाँ तक कि शर्ट फाड़ती लड़कियां दिखाई गयी है. उदाहरणों की  फेहरिस्त बहुत लंबी है.

फ़िल्मी गानों के जरिये भी महिलाओं को चिकनी चमेली बना कर पव्वा पिलाया गया तो कभी शीला और मुन्नी नाम की लाखों लड़कियों की जिंदगी में जहर घोल दिया गया. टिंकू जिया को इश्क का मंजन कराती लड़की से ले कर फेविकोल से सीने में तस्वीर चिपकाने की नसीहत देने वाली तक कोई भी लड़की इस देश की आम लड़की नहीं लगती तो फिर न जाने ये कला और कलाकार कौन सी लड़की की तस्वीर दिखा रहे है जो हमारे समाज के लिए बिलकुल ही “एलियन” है.

मुझे तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब दिल्ली बलात्कार कांड के विरोध प्रदर्शन में शामिल एक लड़की अखबार में ये बयान देती है कि हनी सिंह अश्लील गाने गाता है पर उसमे सिर्फ मनोरंजन है और कुछ नहीं...मैं जानता हूँ कि आजकल की पीढ़ी कला के नाम चल रहे “कल्चरल इम्पिरिलिजम” को नहीं समझ पा रही है. तभी तो एक छोटी सी बच्ची गुड़ियों से खेलने की उम्र में हॉट दिखना चाहती है, एक छोटा बच्चा “मैं हूँ बलात्कारी” गाना गाते पाया जाता और बड़े हो कर हनी सिंह जैसा बनना चाहता है. जिस उम्र में हम सिर्फ फ्रेंड बनाया करते थे उस उम्र में ये बच्चे बॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड बनाने में लगे है. अब इसे बदलती पीढ़ी का बदलाव कहें या बहकती पीढ़ी का बहकाव.

ये वो समय है जब पूनम पांडे, राखी सावंत और उनके प्रसिद्धि पाने के सस्ते तरीके लड़कियों को लुभाने लगे हैं और वो सत्ता, ताकत, रुतबा और दौलत के लिए फिजा मोहम्मद, भंवरी देवी, मधुमिता शुक्ला और गीतिका शर्मा बन कर अपने दुखद अंजाम अंत तक पहुँच रही है.

आज दामिनी बलात्कार कांड ने पूरे देश को जगा कर रख दिया है इसलिए जरूरी है कि हम हर विषय और हर स्तर पर चर्चा करें और जहाँ से भी हमारी वैल्यू सिस्टम में सेंध लग रही हो उसे ठीक करें. हमें स्वतंत्रता और स्वछंदता में भेद करना होगा.ये जानना होगा कि जिम्मेदार आज़ादी स्वतंत्रता होती है और बहकी हुई आज़ादी स्वछंदता. स्वतंत्रता के नाम पर समाज में गलत मूल्य स्थापित करने वाली हर चीज का प्रोटेस्ट करना होगा चाहे वो कला हो या कलाकार. तभी हम एक ऐसा हिन्दुस्तान बना पाएंगे जो सारे जहाँ से अच्छा होगा.

 तुम्हारा अनंत  



दैनिक जागरण (i-next) में 04-1-2013 को लेख प्रकाशित]  पढ़ने के लिए लिंक क्लीक करें http://inextepaper.jagran.com/79704/I-next-allahabad/04.01.13#page/11/2