Thursday, November 14, 2013

राजनीतिक अकाल की उपज

राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति में साधारण से साधारण व्यक्तित्व भी असाधारण लगने लगते हैं और उनकी बिना सर-पैर की नीतियां या सुझाव भी सुनहरे मॉडल कहे जाते हैं. निर्वात में जैसे हर वस्तु हलकी हो जाती है ठीक वैसे ही इस समय देश में राजनीतिक निर्वात है शायद इसीलिए सारी विचारधाराएँ हवा में तैरती हुई जान पड़ती है. इस समय विचारधारा को संशोधनवाद और प्रयोगवाद ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है. आज वाम से ले कर दक्षिण तक सब गड्ड-मड्ड हो गया है. आंबेडकर की अस्मिताई राजनीति से लेकर जेपी और लोहिया का समाजवाद तक सबकुछ बिखरा हुआ, बेतरतीब सा दीखता है. इस राजनीतिक निर्वात के समय में  छापामार राजनीति करने वालों और विचार को फैशन की तरह ओढने वालों की चल निकली है. सब उनमें देश का भविष्य तलाशने लगे हैं. उनके किये बिन सर-पैर के वादे उज्जवल भविष्य की कुंजी माने जा रहे हैं और विचारधारा की राजनीति करने वाले लोग पुरातन व पिछड़े कहे जा रहे हैं.  

देश में इंटरनेट आने के बाद राजनीति में भी व्यापक बदलाव आये हैं, लोकप्रियता के पैमाने बदले हैं. लोग इन्टरनेट में चलने वाले पोल, मिलने वाली लाइक, कमेन्ट और विजिट को अपनी लोकप्रियता का पैरामीटर बताने लगे हैं और मीडिया से लेकर आमजनता तक उस आभासी दुनिया की लोकप्रियता को कोट करने लगी है. देश में खासतौर पर पिछले दो सालों में इंटरनेट पालिटिक्स ने देश के युवाओं और बहुत हद तक मध्यम वर्ग की राजनीतिक चेतना को प्रभावित किया है. अन्ना का आन्दोलन हो, अरविन्द केजरीवाल का उदय या फिर आम आदमी पार्टी का प्रभावशाली उभार इनसब के पीछे इन्टरनेट की महती भूमिका रही है. नरेन्द्र मोदी को लोकप्रिय बनाने में भी इन्टरनेट ने बड़ी भूमिका निभाई है. इन्टरनेट पालिटिक्स के महत्व का अनुमान हम इस बात से भी लगा सकता है कि एक व्यक्ति जिसे स्वयं उसकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और गठबंधन की कई पार्टियां पसंद नहीं करती, वो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन जाता है. ये इन्टरनेट की आभासी दुनिया पर उसकी विश्वव्यापी लोकप्रियता और उसके गुजरात मॉडल की ब्रांडिंग ही थी कि पार्टी के बड़े नेताओ को भी मोदी के सामने झुकना पड़ा और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. मोदी ने इस अभियान की शुरुवात २००७-०८ में एपको वर्ल्डवाइड नाम की अमेरिकन विज्ञापन एजेंसी को खुद के छवि निर्माण के लिए नियुक्त करके कर दी थी. जिसके परिणाम हमें २०१३ में पूरी रंगत के साथ दिख रहें हैं. मोदी इन्टरनेट पालिटिक्स और तकनीक के महत्त्व को समझते हैं तभी तो उन्होंने एक पूरी टीम बना रखी है जो मोदी की इन्टरनेट पर ब्रांडिंग करती है. उनकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए अभियान चलाती है और फिर मीडिया से लेकर आमजनता तक उसी आभासी लोकप्रियता और समर्थन की आंधी में उड़ती नज़र आती है. मोदी की तरह दूसरी जो शख्सियत इन्टरनेट और तकनीक के हथियार से राजनीति का समर लड़ रही है वो है, अरविन्द केजरीवाल. एक ऐसा आदमी जो दो साल पहले राजनीति की “रा” नहीं जानता था आज “आप” के नाम पर आपको क्रांति बाँट रहा है. केजरीवाल ने आपकी क्रांति नाम से एक वेब साईट बनवाई है. जहाँ जाते ही आपको महसूस होता है की क्रांति एक उत्पाद है जिसे केजरीवाल आपको सस्ते दाम या यूं कहिये मुफ्त में दे रहे हैं. उनकी पार्टी की वेबसाईट पर ऊपर ही एक डिजिटल घड़ी लगी है जो  मतदान की तिथि को कितने सेकेण्ड बचे हैं ये बताती है. आपको वहाँ कोई सेल लगे होने का पूरा अहसास होता है. केजरीवाल और मोदी ने देश में छापामार राजनीति का नया व्याकरण गढा है. उन्होंने देश की आभासी नब्ज़ टटोली है. वो इन्टरनेट पर मौजूद आभासी लोगों को देश की जनता मान बैठे हैं. इसीलिए उनकी राजनीती, उनके सवाल और चिंताएं सबकुछ आभासी ही लगते हैं.

मोदी ने झाँसी में यूपी के मजदूरों के लिए छ: महीना काम और छ: महीना आराम का जो मॉडल बताया वो मजदूरों के प्रति उनकी खोखली समझ और पूंजीवादी शोषण के गिरफ्त में मजदूरों को धकेलने की साजिश सी जान पड़ती है. मोदी का ये मॉडल कांट्रेक्ट लेबर मॉडल का एक घिनौना रूप होगा. इसके अलावा अर्थशास्त्रीय नज़रिए से भी ये मॉडल निराधार ही है. वहीँ केजरीवाल का स्वराज का मॉडल कई सारे सवालों पर औंधे मुंह गिरता हुआ दीखता है. ये केजरीवाल के भारतीय समाज की समझ का अभाव ही है जो वो जनता को दूध का धुला मान रहे हैं  और अतिविकेंद्रिकरण की बात कर रहे हैं. इसी जनता और आम आदमी के बीच सामंती और जातिवादी सोच वाले लोग भी हैं. दलित, किसान मजदूर और स्त्री भी हैं. केजरीवाल की जनता और आम आदमी कौन है? ये साफ़ नहीं हुआ है. शायद अभी केजरीवाल को भी उनके आम आदमी की परिभाषा ठीक ठीक मालूम नहीं होगी. उनका एक बहुत प्रयोग किया जाने वाला उदाहरण है कि गांव में नल कहाँ लगेगा इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए ये वहाँ के लोग तय करेंगे कि नल कहाँ लगेगा. मेरा सवाल है कि वो गांव जहाँ आज भी ठाकुर साहब का कहा जनता का कहा होता है. वहाँ सरकार के प्रभाव न होने पर तो नल किसी ठाकुर जी के या यहाँ किसी पंडित जी के यहाँ ही लगेगा. तब तो आपका स्वराज फिर से सामंती जकड़ को नए चेहरे के साथ समाज में लाएगा. 

खैर मोदी और केजरीवाल जैसे नेता अपनी दूरदर्शिता और तकनीक के प्रयोग से राजनीतिक वितान पर एक सशक्त परिघटना तो बन कर उभरे हैं पर इनके नेतृत्व में देश की जनता कहीं नहीं है- मजदूर, किसान, दलित और स्त्री कहीं नहीं हैं. ये देश में विचारधारा आधारित राजनीतिक-अकाल की उपज है जिनसे भूखे को भूख मिलेगी और खाए अघाये को खाना.

अनुराग अनंत 

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