Friday, December 29, 2017

ख़याली ख़ब्त भाग 1

रात को नींद नहीं आती. मुक्तिबोध को भी नहीं आती थी. और मजाज़ को भी नहीं आती थी. रात भर मुक्तिबोध अपने चौकीदार दोस्त के साथ बीड़ी फूंकते हुए टहलते रहते थे. मजाज़ भी तो रात में जागते-टहलते खुद के दिल से ही पूछते रहते थे "ए गम-ए-दिल क्या करूँ, ए वहशत-ए-दिल क्या करूँ. खैर रात गुरु होती है जैसे जैसे घंटे बदलते जाते हैं वो अलग अलग सबक-पाठ पढ़ाती है. ठीक वैसे जैसे बचपन में स्कूल में पीरियड चेंज होता था. एक सब्जेक्ट के बाद दूसरा सब्जेक्ट पढ़ते थे. ठीक वैसे ही, रात, रात भर पढ़ाती रहती है.

रात को जो लोग जागते हैं वो दुनिया को बेहतर, ज्यादा बड़ी और खूबसूरत बनाने का सपना देखते हैं. वो कुछ रचने, कुछ सृजने के लिए, मनुष्य से मनुष्यतर होने के लिए जागते हैं. और रात को जो लोग जागते है उनमे इंसानों की फिकर थोड़ी ज्यादा होती है.

रात को प्रेमी जागते हैं, विद्यार्थी-शोधार्थी जागते हैं, पागल जागते है, कवि-कलाकार जागते हैं, वो समर्पित कार्यकर्ता भी जागते हैं जो दुनिया बदलने के लिए दीवारों पर नारे लिखते हैं, वो मजदूर भी जागते हैं जो कुर्सी पर बैठे नेताओं की झूठ को पेट की रोटी के खातिर शहर की दीवारों पर चस्पा कर देते हैं. वैश्यायें भी जागतीं हैं, समाज के विष को गले तक भर लेने के लिए. उस कुंठा को पी जाने के लिए जो अगर नहीं ख़तम की गयी तो तथाकथित इज्जतदार घरों में घुस जाएँगी. राम राम करते हुए वृद्ध भी जागते हैं और प्राश्चित की एक मध्हम सी आंच में सिकते रहते हैं. दुनिया के कल्याण और खुद के मोक्ष की सिफारिश में रफ्ता रफ्ता सांस दर सांस तमाम होते रहते हैं.

जागते तो चोर-डकैत, अपराधी भी हैं पर ये लोग थीसीस की एंटीथीसीस की तरह होते हैं. ये लोग दिन से घसिट कर रात में आ जाते हैं और चूंकि रात सबको आजादी देती है. ये लोग भी आजाद महसूस करने लगते हैं. दिन से घासिट कर रात में आने का मतलब ये कि दिन में जो काम पूरी व्यवस्था, पूरा तंत्र करता है. ये चंद अपराधी वही काम रात में करते हैं. चोरी, डकैती, लूट और अपराध का ये रूप और इसकी मात्र तो सफ़ेदपोश चोरी, डकैती, लूट और अपराध से तो बहुत कम है. दिन में तो हर कदम पर किसी न किसी तरह आपको लूटने-ठगने के लिए लोग बैठे रहते हैं. पैसे से लेकर भावनाएं तक दिन की उजाले में ही लूट ली जाती हैं. ये जो चोर-डकैत और अपराधी हैं न, ये रात का अँधेरा हैं, डर हैं और अगर ये न होते तो रात, रात जैसे नहीं होती. वो दिन हो जाती, व्यस्त, काम करती हुई. खुद को तमाम करती हुई.

ये एक उलझी हुई सी बात है. दिल के एक उलझे हुए कोने से उठती हुई भाप के जैसे. एक आईने की पीठ पर पड़ी खरोच के जैसे, न पारदर्शी, न परावर्ती, न आपको आपका चेहरा दिखा सकती है, न आरपार झंका सकती है.

अनुराग अनंत

#ख़याली_ख़ब्त