Saturday, November 9, 2013

सब कुछ सुनहरा नहीं


एक ऐसे समय में जब सबकुछ सुनहरा-सुनहरा ही बताया जा रहा हो. सांसद धंनजय सिंह के दिल्ली स्थित सरकारी आवास पर काम करने वाली महिला, राखी की मौत कई सारे भ्रम एक साथ तोडती है. इन्टरनेट के इस तिलस्मी समय में जब जाति, रंग और वर्ग के सवाल बीते दिनों की बात कही जाने लगी है. तब ये घटना एक बार फिर सच्चाई नए सिरे से बयां करती है. दासता के बदले हुए स्वरुप और लोकतान्त्रिक सामंतो का विद्रूप चेहरा बेपर्दा करती ये घटना समाज की संवेदना और चेतना से लेकर देश में लोकतंत्र की जीवंतता तक पर कई सवाल खड़ा करती है. दलितों और वंचितों की पार्टी कही जाने वाली बीएसपी से आया एक नेता, जिसका इतिहास अपराधों का इतिहास है और उसकी पत्नी अपने ही घर में काम करने वाली महिला राखी की निर्मम हत्या के आरोप में हिरासत में है. ये विचारधार का विरोधाभास और सामाजिक न्याय की लड़ाई की संकल्पना के साथ चलती हुई पार्टी का पक्षधरता और सरोकार के सवाल पर ध्वस्त होना नहीं तो और क्या है?

गौरतलब है कि राखी के बेटे शहनाज़ को पुलिस ने पूछ-ताछ के लिए बुलाया था जिसके बाद से उसका कोई पता नहीं लग रहा है. कयास लगाये जा रहे हैं कि सांसद ने उसकी हत्या या अपहरण करा दिया है. सांसद ने जिस तरह से पहले सीसीटीवी कैमरे के फूटेज गायब कराये और फिर राखी के बेटे को गायब कराया वो ये साफ़ बयां करता है कि इस सियासी सामंत के मन के कानून को ले कर कितना खौफ़ है. क्या इस देश का कानून केवल गरीब, किसान, मजदूर और मेहनतकश को ही डरा सकता है ? उनकी ही जमीने और रोटी छीन सकता है. पेट के सवालों में उलझे हुए इंसानों को डराने वाला कानून क्या कारण है कि ऐसे सियासी सामंतो के दिल में झुरझुरी तक नहीं पैदा कर पाता ? वो संविधान जो “हम भारत के लोग... से शुरू होता है. सिर्फ भारत के आम लोगों को ही डरा सकता है. सत्ता और सियासत के आगे इसके कुछ और ही मायने हो जाते है. खैर इस पूरे घटनाक्रम से जो चीज़ साफ़ दिखती है वो है  व्यवस्ता में व्याप्त सामंतवाद व उसका सामंती चरित्र. 

ये घटना ये भी दिखाती है कि कैसे घर में काम करने वाले लोगों को इस समाज में पूंजीपति, सामंती और तथाकथित पढ़े लिखे लोग अपना दास और निजी बपौती समझते है. इन मेहनतकश लोगों के लिए सुरक्षा, न्याय और लोकतंत्र जैसे शब्द कोरे लफ्फाजी के अलावा कुछ और नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के नेता जी नगर में एक एयर होस्टेस ने अपने घर में 12 साल की मेड को कमरे बंद करके आस्ट्रेलिया चली गयी थी. जिसे दो दिन बाद ने पुलिस ने बहार निकला था. ऐसे ही निर्ममता की कई कहानियां है. जो महानगरों की चमकदार गलियों के घुप्प अँधेरे में दम तोड़ देती है या दबी कुचली आवाज़ की तरह न जाने कब उठती है और कब दब जाती है.

एक देश जहाँ एक लाख छिहत्तर हज़ार करोंड़ का घोटाला लोकतंत्र के सिरमौर माननीय सांसद जी लोग करते है. वहीँ उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों से गरीब लड़कियां-औरते रोटी की तलाश में महानगरों में यौन शोषण से लेकर निर्मम हत्याओं तक का दंश भोगने को अभिशप्त हैं. और हर बार कोई धनजय सिंह, कोई पूंजीपति. कोई सामंत, थोड़ी सी कानूनी नूराकुश्ती और मीडिया उठापटक के बाद मुक्त हो जाता है फिर से वही सबकुछ करने के लिए. और इस सब के बीच हम कुछ सुनहरा है के ख्याल के साथ, आल इज वेल कहते हुए पाए जाते हैं.  


मेरा ये लेख जनसत्ता में 13-nov-2013 को छापा था यहाँ मैं नीचे लिंक दे रहा हूँ आप इसे जनसत्ता की वेबसाईट पर भी पढ़ सकते हैं. 

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