Thursday, February 7, 2013

ये समय नारी मुक्ति का इतिहास लिखने का समय हैं....

कश्मीर की वादियों में इन दिनों सबसे बड़े मुफ्ती बशीरुन्दीन अहमद की जहरीली आवाज़ गूंज रही है. आबो-हवा में संगीत, कला, प्रतिभा और सपनों का दम घोट देना वाला फ़तवा तैर रहा है. लड़कियों के एक मात्र बैंड “प्रगाश” को बंद करने के लिए कट्टरपंथियों ने लामबंदी कर ली और हदें तोड़ते हुए उन लड़कियों को सोशल नेटवर्किंग साईट पर बलात्कार तक की धमकी तक दे डाली. डरी-सहमी लड़कियों को अपना बैंड बंद करने और कभी गाना न गाने का फैसला लेना पड़ा.

इस्लामिक संघटन दुश्तकान-ए-मिल्लत ने बैंड में शामिल लड़कियों के परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया और इसी के साथ एक बार फिर साबित हो गया कि कोई भी धर्म कभी भी लड़कियों और महिलाओं को बराबर का दर्जा नहीं दे सकता. चाहे वो हिंदु धर्म हो या इस्लाम या फिर दुनिया का कोई और धर्म हो. मुझे दुःख होता है ये देख कर कि जिन प्रतिभाओं को सर आँखों पर बिठाना चाहिए था उन्हें समाज बलात्कार की धमकियाँ दे रहा है. जिनकी आवाज़ सात समंदर पार जा सकती थी वो बंद दरवाजे में गुट रहीं हैं. ये कैसा धर्म है? ये कैसा समाज है? जहाँ लड़कियां खुद ही खुद में कैद कर दी जातीं है. और उनकी आवाज़ तक नहीं निकलने दी जाती. चाहे किसी खाप का सरपंच हो या मंदिर-मस्जिद का पुजारी-मुल्ला सब के सब हांथों में जंजीरें लिए लड़कियों की प्रतिभा, क्षमता, और आजादी को कैद करने को तैयार पाए जाते हैं.  “प्रगाश” का बंद होना एक ऐसी सांकेतिक घटना है जो ये दिखाती है कि समाज में लड़कियों की आज़ादी पर कितने कड़े पहरे हैं और हमारे देश की आधी आबादी, कितने तरह-तरह की जंजीरों में कैद है

कोई लड़की बढ़ कर ये पूछ सकती है कि मेहँदी हसन, गुलाम अली, रहत फ़तेह अली खान, नुसरत फ़तेह अली खान, आतिफ असलम जैसे पुरुष गायकों पर कभी फ़तवा जारी क्यों नहीं किया गया. उनसे कभी क्यों नहीं कहा गया कि संगीत इस्लाम में हराम है. क्यों ?....क्योंकि वो पुरुष थे?
मैं जनता हूँ उस लड़की के सवालों का कोई जवाब न मुफ्ती साहब के पास होगा और न किसी धर्म के पास. जवाब सब जानते है. लड़की को “लड़की” और लड़के को “लड़का” समझने वाला समाज दोनों को बराबरी का दर्जा नहीं दिला सकता.

इस समाज में जिस दिन से कोई लड़की कन्धों पर दुपट्टा लेने लगती है उसी दिन से वो एक वस्तु हो जाती है जो छाती, कमर के नीचे, और टांगों के बीच के हिस्से में बंटी होती है. उस दिन से माँ उसे परियों की कहानियों के बजाय कपडे पहने, अपने अंगों को ढकने, बात करने, चलने, देखने, हँसने, मुस्कुराने के तरीके समझाने लगती है. तो बाप की नज़र, बागबान की नज़र से कोतवाल की नज़र हो जाती है जिसे हमेसा ये लगता है कि उसकी लड़की किसी और का धन है और उसे इसकी हिफाजत करते हुए उन्हें सौंप देना है जिनकी ये अमानत है. तभी तो बात-बात पर उसे जाता दिया जाता है कि बेटी तू पराया धन है, तुझे कहीं और जाना है. उसका भाई जो कल तक हमसाया था, वो अचानक रखवाला बन जाता है और बहन की साँसों और दिल की धडकनों तक पर पहरा देना चाहता है. और इस तरह लड़कियां अपने ही घर में कैद कर दी जातीं हैं.

मुझे याद हैं बचपन के वो दिन जब गर्मियों में लाईट चले जाने पर मोहल्ले भर की लड़कियां गली भर में दौड लगातीं थीं. सावन में झूले डाले जाते थे. लुका-छिपी से ले कर दौड़ा-भागी तक न जाने कितने खेल खेला करते थे हम. पर आज जैसे गली में कोई लड़की ही नहीं है. सब कहते है कि जमाना खराब हो गया है. मैं कहता हूँ, हम खराब हो गए हैं और हमारी सोच खराब हो गयी है. जहाँ हम लड़कियों को इंसान के बजाए खुली तिजोरीघर की इज्ज़तपराया धनखानदान की शान और एक वस्तु समझ बैठे हैं. आज जवान होते ही लड़कियों के  कट्टो,गिलहरीछम्मक-छल्लोरानीबिल्लोकंटासकटपीसमालशीलामुन्नी, जैसे न जाने कितने  नाम पड़ जातें हैं और उनके असली नाम गुमनाम हो जाते है. राह पर चलते हुए से ले कर बस में सफर करते हुए तक उन्हें उन्ही नामों से पुकारा जाता है.

ये गज़ब का खतरनाक समय है जो लड़कियों से उनकी कला, प्रतिभा, आज़ादी और पहचान सब कुछ  छीन लेना चाहता है. इस कठीन दौर में जरूरत है कि देश की महिलाशक्ति  एकजुट हो जाये और इसे अपनी मुक्ति के संग्राम की तरह समझे, हर गलत चीज़ का प्रतिकार करे, विरोध करे. तब तक, जब तक उसके पैरों की सारी बेडियाँ कट न जाएँ. ये समय नारी मुक्ति का इतिहास लिखने का समय हैं. 

अनुराग अनंत 


दैनिक जागरण (i-next) में 19-2-2013 को लेख प्रकाशित पढ़ने के लिए लिंक क्लीक http://inextepaper.jagran.com/90805/I-next-allahabad/19.02.13#page/11/1



1 comment:

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।