Thursday, January 9, 2014

अरविन्द केजरीवाल और "आप" का उदय इतिहास की पुनरावृति ही तो नहीं !!

अरविन्द केजरीवाल और  "आप" का उदय इतिहास की पुनरावृति ही तो नहीं है !! ये सवाल  भाई कश्यप किशोर मिश्र  का लेख पढ़ कर लगा. आपातकाल और राजनीतिक विकल्पहीनता की सतह से उठी कई पार्टियां भाप हो चुकी हैं तो कईयों की शक्ल पुरनियों जैसी हो गयी है. उन पार्टियों और उनके नेताओं में खून की जगह बेशर्मी का पानी बहने लगा है और खाल पर ढिठाई की परत चढ चुकी है. ये लेख इसलिए भी साझा कर रहा हूँ क्योंकि ये बखूबी दीखता है कि कैसे देश में कांग्रेस ने कई उभरती हुई पार्टियों को विरोध करके नहीं बल्कि उनका समर्थन करके खतम कर दिया. 


हिन्दू-मुस्लिम एका’ के प्रतीक पुरुष माने जाने वाले जिन्ना को जब कांग्रेस में गाँधी के सामने अपना छोटा होता कद स्वीकार नहीं हुआ, तो उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया. राजनीति से ज़िन्ना का यह संन्यास अपने आप में स्पष्ट करता था कि ज़िन्ना की राजनीति ‘व्यक्तिवादी’ थी और उनको अपनी समाजसेवा की मेहनत का ईनाम चाहिए था.
एक अंतराल के बाद ज़िन्ना अपनी दुरभसंधियों के साथ वापिस आये और ‘मुसलमान एक अलग कौम’ की अलग तान छेड़ बैठे. पता भी न चला और बस एक दशक के भीतर ज़िन्ना के पीछे-पीछे चला समूह एक अलग कौम पाकिस्तान बन गया. इस धुन के फ़रेब से जबतक पाकिस्तानी भाइयो की आँख खुलती, तबतक दो कौमियत के उसूल को तमाचा लगाते पाकिस्तान से एक अलग मुल्क बांग्लादेश बन चुका था.
ऐसा नहीं है, कि ज़िन्ना का पाकिस्तान किसी बहुत सोच-विचार का नतीज़ा था. ज़िन्ना की कल्पनाओं में जहाँ एक तरफ सदर-ऐ-मुल्क होने का ख़्वाब था, तो दूसरी तरफ अपने सप्ताहांत की छुट्टियाँ बम्बई के अपने बंगले में बिताने जैसा एकदम विरोधी ख्याल भी शामिल था.
अपने ख़्वाब की तामीर के पहले उदबोधन की बिना पर तो ज़िन्ना का पाकिस्तान, नेहरू के हिंदुस्तान के मुकाबले कई गुना ज्यादा सेकुलर होने वाला था, पर विमान से जब उन्होंने शरणार्थियों के हूजूम देखे, तो सिर पकड़ बैठ गए और बस उनके मुंह से यही निकला ‘हे भगवान् ! मैंने ये क्या कर दिया’. बीमारी के दौरान ज़िन्ना ने अपने चिकित्सक से पाकिस्तान को अपनी ज़िन्दगी की हिमालयी भूल कहा था. कम से कम ज़िन्ना, ईमानदार थे कि उन्होंने ख़ुद को गलत माना.
इधर आज़ादी के साथ ही नेहरू ने 'ट्राईस्ट विथ डेस्टिनी' के राग में आम आवाम को झूमाना शुरू किया और निर्गुट आन्दोलन के जरिये अपने लिए एक विश्व-नागरिक की पहचान का ईनाम ढूढने चल दिए. नेहरू के सपनों का ‘अंतिम अंग्रेज’ बस भारतीयों के ही नहीं, बल्कि दुनिया के दिलों पर राज करना चाहता था, पर भारत पर चीन के हुए हमले ने, नेहरू के फ़रेबी-राग को भंग कर दिया और सामान्य भारतीय जनता मानो सोते से जाग गयी. जनता की प्रतिक्रिया आये, इसके पहले नेहरू की मौत हो गई.
लालबहादुर शास्त्री ने अपने छोटे से कार्यकाल में पाकिस्तान को युद्ध में मात दी और युद्ध में जीती जमीन समझौते की मेज पर हार आये. समझौते के तुरंत बाद ताशकंद में ही शास्त्री जी की मौत हो गई और इंदिरा गाँधी परिदृश्य पर उभर आयीं. गूंगी गुड़िया इंदिरा के लिए जोड़-तोड़ का काम कामराज ने किया था.
अपने चौदह महीने के शासन के साथ इंदिरा गाँधी चौथी-लोकसभा के चुनाव का सामना कर रही थी. कांग्रेस के आतंरिक झगड़ो से आम आदमी ऊबा हुआ था. जर्जर अर्थव्यवस्था जहाँ हिंदुस्तान के मध्यम वर्ग की थाली पर असर डाल रही थी, तो निरंतर रुपये के अवमूल्यन से पैदा हुई महंगाई गरीबों को बदहाल कर रही थी. उत्तर पूर्व में मिजो आदिवासी असंतोष बगावत की शक्ल अख्तियार कर रहा था, तो मजदूर अपनी मजदूरी काम के घंटों और सुविधाओं के लिए आंदोलनरत थे.
पंजाब में भाषाई और धार्मिक अलगाववाद उभार पर था और इन सब पर भारी अकाल ने आम-आदमी के असंतोष को उभार दिया. अत्यंत सीमित विकल्पों के बाद भी भारत की जनता ने नीचले सदन में कांग्रेस से 60 सीटें छीन लीं और विधानसभा चुनावों में बिहार, केरल, उड़ीसा, मद्रास, पंजाब और पश्चिम बंगाल से कांग्रेस की सत्ता जाती रही.
अब यह ज़रूरी था कि गूंगी गुड़िया रही इंदिरा गाँधी खुलकर सामने आये. उन्होंने सबसे पहले अपने शुरू से ही मुखर विरोधी रहे, मोरारजी भाई देसाई को नवम्बर-69 में अनुशासनहीनता का आरोप लगाते कांग्रेस से निकाल बाहर किया. कांग्रेस दो हिस्से में बंट गयी, कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (ई).
किसी राजनीतिक दल के साथ संगठन वाद या विचार से इतर किसी व्यक्ति का इस तरह महत्वपूर्ण हो उठना उस वक़्त तक भारतीय राजनीति में ज़िन्ना के बाद व्यक्तिवाद का पहला उदाहरण था. इंदिरा का उभार किसी भी लिहाज से एक अत्यंत दुर्लभ राजनीतिक घटना थी, क्योंकि भारतीय राजनीति में बिना किसी वाद, विचार या संगठन के एक व्यक्ति का किसी दल को इस तरह हथिया लेना इसके पहले कभी नहीं हुआ था.
इंदिरा ने कांग्रेस-संगठन से अलग होकर कांग्रेस (ई) बनाई. यह व्यक्तिवाद की पराकाष्ठा थी और उससे एक कदम आगे जाते हुए, जैसे ख़ुद की कांग्रेस को ही मूल कांग्रेस की तरह स्थापित करने में सफल रही उसने भारतीय राजनीति में ‘चारण युग’ का सूत्रपात किया.
इंदिरा अब चतुराई से राजनीति करना सीख चुकी थी. उन्होंने एक साल अल्पमत की सरकार चलाई और दिसंबर-70 में एक साल पहले ही मध्यावधि चुनाव का शंख फूंक दिया. देश का एक बड़ा वर्ग अत्यंत निर्धन था. अपनी बदहाली के लिए वह सत्ता के विरुद्ध कोई प्रतिक्रिया करता उसके पहले ही इंदिरा ने उनके लिए अत्यंत ‘श्रुति-सुखकर’ नारा ‘गरीबी-हटाओ’ का ईजाद कर लिया.
बस इस एक अकेले नारे के साथ इंदिरा चुनाव में कूद पड़ी और जनता को भरमाने में भी सफल रहीं. चौथी लोकसभा की 283 सीटों के मुकाबले इंदिरा के पांचवी लोकसभा में 352 सांसद थे. इस बढ़त ने इंदिरा को प्रचंड आत्मविश्वास से भर दिया. दिसंबर-71 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की विजय ने इंदिरा की छवि लौह महिला की बना दी.
पर इन सबका कोई भी फ़ायदा भारत की जनता को नहीं मिल रहा था. उल्टे युद्ध की भारी लागत, तेल की बढती कीमतों और घटते औद्योगिक उत्पादन ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया था. पर इंदिरा अब जनता को बहलाना सीख चुकी थी. उनकी भंगिमायें और कार्य भावनात्मक तौर पर जनता पर असर करते थे. उन्होंने भारतीय जनता को आत्ममुग्ध करने की कसरत शुरू कर दी.
वो एक तरफ भारतीय जनता को कभी परमाणु-विस्फोट से तो कभी प्रिवी-पर्स की समाप्ति और बैंकों के निजीकरण से बहला लिए जा रही थीं, तो दूसरी तरफ एक-एक कर अपने विरोध में उठने वाली हरेक आवाज को दबाती भी जा रही थी. अब इंदिरा किसी भी विरोध से बेपरवाह एक निर्विघ्न शासक बन गयी थी, जहा प्रतिरोध के स्वर नगण्य थे.
पर इन सबसे अलग, इलाहाबाद उच्च-न्यायालय के एक अकेले फ़ैसले ने इंदिरा के आधिपत्य को चुनौती दे दी. 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी भ्रष्टाचार के आधार पर इंदिरा के 1971 के चुनाव को अवैध ठहरा दिया. इंदिरा अब तक बेलगाम हो चुकी थीं. उनकी मनःस्थिति एक लोकतंत्र के प्रधान की बजाय एक राजतंत्र वाले राजा की हो चुकी थी, जिसकी ख़ुद की सनक की कीमत भी उसके प्रजा को चुकानी पड़ती थी.
इंदिरा ने मध्यकाल के राजाओं वाली सनक का परिचय देते हुए बजाय इस्तीफ़ा देने के 26 जून को आपातकाल की घोषणा कर दी और पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया. यह सबकुछ इतना त्वरित और अकल्पनीय था कि इसकी खबर जनता को सुबह के समाचार से मिली.
आपातकाल के इक्कीस महीने, देश की जनता को अपने मताधिकार के सूझ-बूझ से इस्तेमाल करने के सबसे बड़े सबक थे. सारे नागरिक अधिकार समाप्त कर दिए गए. यह भारत के लोकतंत्र के सबसे अँधेरे दिन थे जब एक तरफ इंदिरा का अमर्यादित व्यवहार किसी तानाशाह की तरह का था, तो दूसरी तरफ उनके पुत्र संजय गाँधी, वस्तुतः दूसरे सत्ता ध्रुव बन गए थे, इन सबसे इतर संजय का एक चारण-भाट दल अत्यंत प्रभावी हो चुका था.
संजय का चापलूस और चारण यह दल एक से एक अमर्यादित कृत्य करता रहता. उस वक़्त सत्ता में प्रभावी रहा दल-बल लूट के हर मौके और तरीके को बड़ी ही निर्लज्जता से अमल में ला रहा था. भारतीय लोक ने अपनी बेबसी की जो वीभत्सतम कल्पना की थी, यह काल उससे भी वीभत्स था. 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी।
जनता ने इंदिरा और उनके दल बल को करारा जबाब दिया और इंदिरा के विरोध में बने जनता पार्टी को अपना विश्वास सौपते हुए सत्ता सौप दी. मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. जनता पार्टी को भारत की जनता ने सिर्फ सत्ता ही नहीं, अपने विश्वास की थाती भी सौपी थी.
उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से कांग्रेस का एक भी उम्मेदवार विजयी नहीं हुआ. ख़ुद इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गयीं और कांग्रेस के मात्र 153 सांसद लोकसभा में पहुंचे. यह एक भयानक पराजय थी और विरोधी दलों की प्रचंड विजय भी.
भारतीय जनता, जिसका अहम् आपातकाल में बुरी तरह रौंदा गया था, ने कांग्रेस के सिर्फ उन्ही चेहरों को लोकसभा की राह दिखाई थी, जिसे उसने इंदिरा की व्यक्तिवादी और उन्मक्त राजनीति से इतर समझा था. जनता इंदिरा से इतनी बिफरी हुई थी कि जिसने भी इंदिरा का विरोध किया या इंदिरा द्वारा आपातकाल में प्रताड़ित हुआ उसे विजयी बना दिया.
जनता ने बड़े हुमक के साथ इंदिरा को बेदखल कर के यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि ‘लोकतंत्र का राजा लोक होता है, तंत्र के शीर्ष पर बैठे लोग नहीं और शीर्ष पर बैठे लोग लोकजीवन से जुड़े हितों के प्रहरी मात्र होते हैं.’
जून 75 की शुरुआत में जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया था. जयप्रकाश नारायण जिन्हें जेपी भी कहा जाता था, के साथ पूरा बिहार हुंकार भर के खड़ा हो गया. जून के अंत में इंदिरा ने आपातकाल लगा दिया और जेपी को गिरफ्तार कर लिया, पर सम्पूर्ण क्रांति के स्वर दबाने में वह असफल रही.
जनता पार्टी के सूत्रधार जेपी थे, पर अधिक उम्र और अस्वस्थता की वजह से उनका सक्रिय रहना कठिन था, लिहाजा खूब सारी रार, मान मनौअल के बाद मुरारजी देसाई ने जनता पार्टी के प्रधानमंत्री के तौर पर मार्च-77 के अंत में शपथ ग्रहण की. प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार और प्रधानमंत्री की कुर्सी न मिलने से खफा चौधरी चरण सिंह उप-प्रधानमंत्री बने.
जनता पार्टी की सरकार तो बन गयी, पर स्थिति ‘मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना’ की थी. सरकार बन जाने के बाद जनता पार्टी से जुड़े लोग अपना हित देख रहे थे, जबकि मोरारजी देसाई कायदे के बड़े सख्त थे, उनके भीतर प्रशाशनिक सख्ती भी बहुत थी, साथ ही वो एक बेलाग-लपेट बात करने वाले आदमी थे. लिहाजा सरकार बनने के साथ ही गुटबाजी और आपसी खींचतान नज़र आने लगी. जनता ने बड़े भरोसे से जनता पार्टी के हाथ में शासन की बागडोर सौपी थी, पर सरकार एक तमाशा बन गई थी.
जनता इस तमाशे से विचलित थी, पर जनता पार्टी से जुड़े लोग अड़ियल रुख से काम कर रहे थे, यहाँ तक कि जनता पार्टी ने शासन में आते ही उन नौ राज्यों में जहाँ कांग्रेस की सरकार थी, उन्हें भंग कर दिया और वहां चुनाव की घोषणा कर दी. यह अत्यंत असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और गलत निर्णय था, पर जनता पार्टी सारी आलोचनाओ को दरकिनार कर अपने रुख पर कायम रही.
कांग्रेस भी चुप नहीं बैठी थी, उसने चौधरी चरण सिंह और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे लोगों को तोड़ना शुरू कर दिया कांग्रेस की धुर विरोधी जनसंघ ने जनता पार्टी में अपना विलय कर लिया था, पर उसकी एक इकाई ‘आरएसएस’ जो राजनीतिक दल के रूप में पंजीकृत नहीं थी, अपने अस्तित्व को कायम रखे हुए थी. पूर्ववर्ती जनसंघ के सदस्यों के ‘आरएसएस’ से सम्बन्ध के मुद्दे को चरण सिंह ने हवा देना शुरू किया और इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने जनता सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया.जनता अवसरवादिता के इस निकृष्ट उदाहरण की बेबस गवाह बनने को मजबूर थी.
जिस कांग्रेस विरोध में उसने जनता पार्टी को अपना मत दिया, उसी का एक हिस्सा बड़ी ही बेशर्मी से चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने का दावा कर रहा था. चौधरी चरण सिंह अवसरवादिता के इस घटिया गठजोड़ के प्रधानमंत्री बने और यह सरकार पांच महीने तक चली, जिसमें चौधरी चरण सिंह कभी संसद नहीं गए.
आम जनता के साथ यह करारा विश्वासघात था. जनता ने समाजवाद और राष्ट्रवाद के जिस घालमेल को नजरअंदाज कर, लोकद्रोही इंदिरा को हरा जनता पार्टी को अपना विश्वास सौंपा था, उस विश्वास की जनता पार्टी के धड़े अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और अंतरविरोधों की खुलेआम अभिव्यक्ति से खिल्ली उड़ा रहे थे.
दूसरी तरफ अपने खिलाफ़ चल रहे आक्रामक जाँच के तेवरों से इंदिरा फिर से सहानुभूति का पात्र बन रही थी. इंदिरा जनता पार्टी के नेताओं के मुकाबले कई गुणा ज्यादा चतुर थी. उन्होंने जनता पार्टी के नेताओं की फूहड़ता का पूरा फ़ायदा उठाया और पांच महीने बाद चरण सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया.
भारतीय जनता के पास अब कोई विकल्प नहीं था. इंदिरा के रूप में एक अकेला चरित्र था, जो मजबूत सरकार दे सकता था और सातवें आम चुनाव में इंदिरा कांग्रेस ने 350 जबकि जनता पार्टी ने 32 सीट प्राप्त कीं. जनता पार्टी ने भारतीय जनता से तगड़ा विश्वासघात किया था और वह अपने को मूर्ख बना महसूस कर रही थी.
इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद अंतरिम प्रधानमंत्री बने ‘मि. क्लीन’ राजीव गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीत हासिल की और 409 लोकसभा सीटों के प्रचंड बहुमत से वह सत्ता में आई. पर राजनीति में अनुभवहीन राजीव गाँधी पार्टी के भीतर चल रहे भितरघात और गुटबाजी से निबटने में इंदिरा की तरह सक्षम नहीं थे.
राजीव को अभी राजनीति के प्रारम्भिक पाठ भी सीखने थे और उनका पाला बड़े ही घाघ राजनीतिज्ञों से था. कांग्रेस के भीतर का ही एक गुट राजीव की कैम्ब्रीज की पढाई और आम आदमी से जुडाव न होने की ख़बरे उड़ाया करता. राजीव युवा थे और उस वक़्त भारतीय उपमहाद्वीप की भू-राजनीतिक परिस्थितियां जटिल थी.
राजीव ने मालदीव में सत्ता-पलट की एक कोशिश नाकाम की और वाहवाही लूटील, पर तमिल समस्या उनके गले की फांस बन गयी. आपरेशन ब्रास ट्रैक्स के जरिये पाकिस्तान पर दबाव बनाया, तो बोफ़ोर्स का जिन्न उछल कर सामने आ गया. राजीव पर उसके ही मंत्रिमंडल के सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह आक्षेप करने लगे.
एक तरफ सहयोगियों का आक्षेप तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति जैल सिंह से मनमुटाव की खबरों के बीच राजीव ने अपने राजनीतिक जीवन की भयानक भूल की. राजीव ने प्रेस-अध्यादेश लाकर अखबारों की स्वतंत्रता सिमित करने की कोशिश की, जिसे चौतरफ़ा विरोध के बाद उन्होंने वापस ले लिया. पर प्रेस उनका विरोधी हो चुका था.
अखबारी जगत ने राजीव को खलनायक बना दिया और मंत्रिमंडल से बर्खास्त किये जाने के बाद कांग्रेस और लोकसभा में अपनी सदस्यता से इस्तीफा देकर, अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान के साथ जन मोर्चा नाम से अपना दल बनाकर राजीव विरोध की राजनीति कर रहे ‘विश्वनाथ प्रताप सिंह’ को जननायक बनाकर पेश कर दिया.
जनता विश्वनाथ प्रताप सिंह और मीडिया की जुगलबंदी को समझ नहीं पाई और एक बार फिर फ़रेब का शिकार हुई. अखबारों ने ‘वीपी सिंह’ की ‘राजा नहीं फ़कीर’ की छवि गढ़ दी और राजीव की छवि बोफ़ोर्स के दलाल की गढ़ दी गई. वीपी एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ थे, उनके मुकाबले राजीव अनाड़ी थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जान-बूझकर इस अफवाह को हवा दी कि उनके पास बोफ़ोर्स मामले से जुडी एक ऐसी फाइल है, जिससे राजीव का राजनीतिक जीवन तबाह हो जायेगा.
वीपी अपनी जनसभाओं में एक पॉकेट डायरी निकालते और दावा करते इस डायरी में बोफ़ोर्स से जुड़े खातों और व्यक्तियों के नाम के विवरण मौजूद हैं और वह उन्हें बेनकाब करके रहेंगे. वीपी का यह दावा बाद में सफ़ेद झूठ निकला, उनके पास ऐसी कोई जानकारी नहीं थी और वे आम जनता को धोखा दे रहे थे. जनता वीपी सिंह के फ़रेब का शिकार हुई और उसने एक झूठ बोलकर फ़रेब गढ़ रहे आदमी को भारत का प्रधानमंत्री बनने का मौका दे दिया.
वीपी सिंह बोफ़ोर्स से जुडा कोई दावा सामने नहीं ला सके. उनके कार्यकाल की दो प्रमुख स्मृतियाँ बीजेपी का उभार और मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करना रही. वीपी की मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने की काट बीजेपी ने रथयात्रा से करने की कोशिश की, जिसका अंत सरकार से बीजेपी के समर्थन वापसी के रूप में सामने आया.
वीपी सिंह के पास विश्वास मत हारने के बाद कोई चारा नहीं बचा. उन्होंने नवम्बर-90 में इस्तीफ़ा दे दिया. कांग्रेस ने, 64 सांसदों के साथ जनता दल से अलग हो गए चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी को बाहर से समर्थन देकर सरकार बनवाई, जो मार्च-91 के शुरू तक चली. कांग्रेस विरोध के नाम पर आये चंद्रशेखर अपने दल के साथ कांग्रेस के समर्थन से सरकार चला रहे थे और देश की जनता इस विडंबना की मूक गवाह बने रहने को मजबूर थी.
दसवें आम चुनाव के दौरान राजीव गाँधी की हत्या हुई और 232 सीटों के साथ कांग्रेस ने पीवी नरसिंहराव के नेतृत्व में अल्पमत सरकार बनायी. यह सरकार लगातार घोटालों के आरोप में रही. विश्वास मत पाने के लिए इस सरकार पर सांसदों की ख़रीद-फ़रोख्त के आरोप लगे, जो कालांतर में सही साबित हुए और कुछ करने की बजाय यह सरकार कुछ न करने के लिए ज्यादा जानी गई.
इसी सरकार के दौरान अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाया गया. यह आरोप लगे कि विवादित ढांचे को ढहाने में नरसिंह राव की मूक सहमति थी. ग्यारहवें आम चुनाव के बाद संसद त्रिशंकु थी. सबसे पहले बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी ने मई में प्रधानमंत्री का पद सम्भाला और तेरह दिनों के भीतर उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा, जिसके बाद जनता दल के नेता देवेगौड़ा ने जून में संयुक्त मोर्चा गठबंधन की सरकार बनाई.
यह सरकार 18 महीने चली और अंत में एक बार फिर से जनता ने देखा कि बीस बरस भी पूरे नहीं हुए और इस छोटी सी समयावधि में कांग्रेस विरोध के नाम पर चुने लोगों की सरकार को कांग्रेस तीसरी बार समर्थन दे रही थी. कांग्रेस के बाहरी समर्थन से, देवेगौड़ा के विदेश मंत्री इंद्रकुमार गुजराल ने प्रधानमंत्री के रूप में अप्रैल 1997 में पदभार संभाला, जो नवम्बर-97 तक चली.
बाद के छः वर्ष तक बीजेपी का शासन रहा जिसमे बारहवें और तेरहवें लोकसभा चुनाव के साथ साथ वाजपेयी की पहले तेरह महीने और फिर पांच साल का शासन शामिल था. लोकसभा के चौदहवें आम चुनाव के साथ कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. तमाम नाटकीय घटनाक्रम के बाद मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, पर शुरूआती उम्मीद जगाने के बाद कुल मिलाकर उन्होंने जनता को निराश ज्यादा किया.
इसी निराशा के माहौल में अन्ना हजारे लोक जीवन के प्रतिनिधि बनके उभरे. अन्ना के सहयोगियों में से कुछ ने उनसे अलग होकर एक राजनीतिक आम आदमी पार्टी बनायी और 2014 में होने वाले सोलहवें आम चुनाव के पूर्व एक पायलट प्रोजक्ट के तौर पर दिल्ली विधानसभा के चुनाव में शिरकत की.
दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 32, केजरीवाल के दल को 28 जबकि कांग्रेस को 8 सीटें मिलीं. आज की तारीख में जनता कांग्रेस के बाहर से समर्थन से दिल्ली विधानसभा में चल रही केजरीवाल की सरकार की साक्षी है.
यह जनता, जिसका एक बड़ा हिस्सा बढती शीत के साथ-साथ कांपता है, जिसकी रातें पूस हों तो गहराते जाने के साथ-साथ और गहरी नहीं, उनींदी होती हैं, वो ठंडाते रहते हैं रातभर! फागुनी रातें बस उनका मन ही नहीं भिगोतीं, उनके घर को भी, उनके शरीर को और उसकी जमा-पूँजी को भी गीला करती हैं. उनकी पूरी की पूरी जेठ की दुपहरी और रात गर्मी से भीगते तन-बदन के साथ बीतती है.
इन बीते बरसों में हिन्दुस्तान का आम-मतदाता हो सकता है मूर्ख नहीं रहा हो, राजनीतिक रूप से चतुर हो गया हो, नेताओं को पहचाने भी लगा हो, पर कुल मिलाकर बीतते हर बरस के साथ सत्ता-प्रतिष्ठानों के सामने बेचारा और, और ज्यादा बेचारा ही हुआ है. यह बेचारगी, कम से कम वे लोग जो किसी भी तरह से,किसी भी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं जुड़े हैं, रोज अनुभव करते है.
‘इन्टरप्रेटेशन ऑफ़ डीड्स, डाकुमेंट्स एंड लॉ’ हमें यह सिखाता है कि शब्दों के अर्थों से ज्यादा अर्थवान शब्दों के गर्भित अर्थ होते हैं. जैसा की ‘देरिदा’ भी कहा करते थे ‘शब्दों के मूलपाठ में नहीं, अर्थ उनके अंतरपाठ में होता है’ और जिसे कूटनीतिक तबके में और तरीके से ‘बिट्वीन द लाइंस’ कहते हैं.
इस देश का आम मतदाता न तो अंतरपाठ समझता है, न वाक्य मध्य के आशय जानता-बूझता है. वह अपनी बात सीधी-सीधी कहता है और दूसरों की बात सीधी-सीधी ही समझता भी है. अब अगर कोई आदमी यह कहता है कि वह उनके बीच का ही, उनके जैसा ही एक आम-आदमी है, तो यह असल वाला आम-आदमी यही मान लेगा कि उसके कहे का वही मतलब है, जैसा कि उसने कहा है.
तो जब विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी पॉकेट डायरी दिखाते हुए हरेक जनसभा में कहते फिरते थे कि इस डायरी में बोफ़ोर्स से जुड़े खातों के नंबर उनके पास मौजूद हैं और वह उन्हें बेनकाब करके रहेंगे, तो लोग उस पर बिना ‘तीन पांच’ किये भरोसा करते थे. यह भरोसा टूटा तो ‘राजा नहीं फ़कीर देश की तकदीर’ का नारा लगाने वाले इसी आम आदमी ने उनकी मौत की ख़बर तक को कितनी तवज्जो दी, यह बहुत पुरानी बात नहीं.
ठीक वैसे ही जब केजरीवाल अक्टूबर-13 के दौरान कहते फिरते थे कि उनके पास शीला दीक्षित के खिलाफ़ 370 पेजों के सबूत हैं तो एक आम-आदमी मान लेता था कि हां! इस आदमी के पास सबूत हैं और यह इसे साबित भी करेगा.
क्योंकि केजरीवाल चाहे जो भी हों, पर थे तो ‘भारतीय राजस्व सेवा’ के कमिश्नर रैंक के पूर्व अधिकारी ही, जिन्हें यह भली भांति पता था कि ‘विधि सम्मत सबूत’ क्या होता है. जब वो अपने पास सबूत होने का दावा करते थे, तो उसे साबित करने की जिम्मेदारी भी उनकी ही बन जाती थी.
और अब! जब केजरीवाल कहते हैं, ‘अगर कोई सबूत है तो लेकर आइये दो घंटे में जांच होगी’ तो वह इस आम-आदमी के भरोसे का मखौल उड़ा रहे होते हैं. यहाँ सीधे-सीधे जिम्मेदारी दूसरों के पाले में डाल देने की बात भी है. अर्थात जो सबूत लायेगा, साबित करने की जिम्मेदारी भी उसकी ही होगी कि आरोप सही हैं. यहाँ केजरीवाल किसी भी तरह की जबाबदेही से परे रहेंगे.
अभी जुम्मा जुम्मा चार दिन हुए हैं, पर इस तरह की पलटबयानी के बाद हम इत्मीनान से कैसे रहें? कहाँ तो केजरीवाल ने दिन-रात जनता के हित में काम करने का वायदा किया था और कहाँ वह ‘पोलिटिकली करेक्ट स्टैंड’ के फिक्रमंद हुए जा रहे हैं.
इस मुल्क के मतदाता ने बहुत धोखे खाए हैं, लिहाजा हम इत्मीनान से नहीं बैठ सकते. जनाब केजरीवाल! हम पहले दिन से ही, पहले घंटे से ही आपके किये के मुन्तजिर हैं. हम आपको तगड़ा सपोर्ट भी करेंगे और हम आपका तगड़ा विरोध भी करेंगे.


कश्यप किशोर मिश्र



ये लेख जनज्वार से साभार लिया गया है http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/69-discourse/4675-janvbhavnaon-ka-makhaul-aap-to-mat-udaiye-kejriwal-saheb-for-janjwar-by-kashyap-kishore-mishra

No comments: