Sunday, January 5, 2014

केजरीवाल देवता बनना चाहते है या जननेता, वो खुद तय करें !!


तो भईया ! हिंदुस्तान के लोग बड़े पुजारी किस्म के लोग हैं. पूजा के लिए पूरी तरह पगलाए रहते हैं, जीवन जीने के लिए इन्हें सांस से ज्यादा भगवान की जरूरत है. दुनिया को जितने धर्म और ईस्वर इस देश ने दिए. कोई और देश दे ही नहीं सकता. ये इसकी खासियत भी है. और कमी, बुराई या कमजोरी भी. 

ये 34 करोड़ देवी देवताओं वाला देश है. इसके अलावा यहाँ गुरुनानक साहब, गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, भगवान महावीर, आल्ला, को मानने वाले भी बड़ी मात्र में हैं. इन सबसे भी जब बात नहीं बनती तो कुछ लोग रजनीश "ओसो" और निर्मल बाबाओं जैसों को भी भगवान कहने लगते हैं. ये सूची बढ़ते-बढ़ते आसाराम और रविशंकर से होते हुए, मुलायम सिंह, नरेन्द्र मोदी, लालू यादव, मायावती को शामिल करते हुए नेहरु गाँधी परिवार तक पहुँच जाती है इसके बाद भी और भगवान और देवता जोड़ने की संभावनाएं बनी रहती हैं. और इस तरह धीरे धीरे ये सच लगते लगता है कि हम देवभूमि के वासी हैं. जहाँ जिसके पास सत्ता और ताकत है वो देवता है. ये सत्ता और ताकत धर्म की हो, राजनीति की, समाज की या फिर पैसे की.

घर के अंदर मर्द (पति) देवता है. वही देवता, जो अपनी पत्नी के लिए परमेश्वर है. आफिस जाते ही अपने बॉस को देवता समझने लगता है. बॉस के लिए उसके बॉस देवता, उस बॉस के लिए सरकार देवता, उस सरकार के लिए पूंजीपति देवता. उन पूंजीपति देवताओं के लिए पूँजी और मुनाफा देवता. देवता बनने और बनाने का ये क्रम बदस्तूर जारी रहता है.

हुफ्फ़!! क्या कहें अब देवताओं और उनके पुजारियों को, कि इस देश को देवता और पुजारी नहीं चाहिए! इंसान चाहिए! जिन्दा इंसान! जिनके दिमाग आज़ाद हों. जिनकी सोच किसी देवता के आधीन न हों, वो आलोचना और लोकतंत्र की कीमत समझते हों और उसके लिए आपनी जान की भी बाजी लगा सकें. पर नहीं इस देश में किसी को पसंद करने से शुरू होने वाला क्रम उसके समर्थन से होता हुआ उसे देवता मानने और बनाने पर ही रुकता है. शायद लोग ये नहीं जानते कि जब कोई अच्छा आदमी देवता हो जाता है. तो वो इंसानों के किसी काम का नहीं रह जाता. वो उनका साथी नहीं रह जाता, वो उनके सुख दुःख में साथ लड़ता नहीं बल्कि अपनी दया और कृपा का संचार करता है. जिसकी उन इंसानों को कतई जरूरत नहीं होती. दया और कृपा के संचार से संघर्ष की भावना और चेंतना कुंद पड़ती है और लोकतंत्र सामंती जाल में उलझते हुए वंशवाद का पर्याय हो जाता है. 

मैं ये बात यहाँ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि अरविन्द केजरीवाल जोकि एक जुझारू जननेता बन कर उभरे हैं और जनता की बहुत सारी उम्मीदें उनके साथ जुडी हुई है. वो  लोगों को एक ऐसा सपना दिखाते हैं, जो सुनहरा और सुखद है. वो भी आजकल सोशल मीडिया पर इन पगलाए पुजारियों से घिरने लगे है. ये पुजारी अपने देवता के खिलाफ एक शब्द तक नहीं सुन सकते और आक्रामकता की हद तक चले जाते हैं. मुझे डर है कि कहीं ये पुजारी दीमक, अरविन्द और उनके भीतर के इंसान को खा न जाएँ, क्योंकि उसके बाद अरविन्द जनता के नेता नहीं बल्कि सत्ता के भगवान भर बचेंगे. जो कि मुझे लगता है कि अरविन्द कभी नहीं बनना चाहेंगे. इसलिए मैं कामना करता हूँ अरविन्द इन अंधे पुजारियों और उनकी अंधी चाटुकार साधना और पूजा से दूर रहें और बेहतर होगा कि अगर ऐसे लोग उनके आस-पास भी हों तो तुरंत उन्हें बहार की राह दिखाएँ. समर्थन और साधना के अंतर होता है. समर्थन सामर्थ बढाता है और साथना देवत्व, केजरीवाल खुद तय करें उन्हें जनता की सेवा के लिए सामर्थ की आवश्यकता है या देवत्व की. राजनीतिक भगवानों के होने और मिटने की कई कहानियां भारतीय लिक्तंत्र ने देखीं हैं और गवाह भी है की इस देवताओं के जाने के बात जनता इनके नाम भी भूल जाती है. इसलिए केजरीवाल खुद तय करें की उन्हें जनता का देवता बनना है या जनता का नेता. क्योंकि एक देवता जैसा दूसरा देवता तो हो सकता है पर एक जननेता जैसा दूसरा जननेता नहीं हो सकता है

अनुराग अनंत 

No comments: