Thursday, January 9, 2014

इतिहास, मोदी और अटल

जनसत्ता: 10 जनवरी, 2014, के सम्पादकीय पृष्ठ पर विजय विद्रोही का लेख "मोदी का मद और कद" अपने आप में मोदी के उदय का इतिहास बताता है. ये लेख संघ, अटल और मोदी के त्रिकोण और उनके बीच की गतिकीय को भी बयां करता है. एक जन नेता कैसे सही कहते और करते हुए नेपथ्य की ओर धकेल दिया जाता है और एक कट्टर छवि वाले व्यक्ति को संघ और भाजपा सर आँखों पर बिठाते है. ये व्यावहारिक राजनीति की बिसात पर आदर्श और मानवता की राजनीति की मात का समय था. अटल, संघ और उसके एजेंडे का विरोध करते हुए अपनी आदर्श की राजनीति साथ लिए हुए नेपथ्य में चले गए और उन्होंने इसी के साथ सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया.  वहीँ इस बार जब मोदी को दिल्ली दिख रही है तो उन्हें भी अटल की समता और सौहार्द की राजनीति का रास्ता चुनना पड़ता है. सवाल अब ये भी है कि क्या सत्ता पाने के लिए आदर्श, समता और मानवता, राजनीतिक जुमले होते है और सत्ता की कुंजी इन्हीं शब्दों में छिपी है, पर शासन व्यावहारिक राजनीति या यूं कहे समझौता-परस्त, कुटिल राजनीति से चलाया जाता है.  मोदी के उदय, अटल के प्रतिरोध और तात्कालिक घटनाक्रमों की एक व्यवस्थित तस्वीर पेश करता ये विजय विद्रोही का लेख....माडरेटर (अनुराग अनंत) 

अमदाबाद की एक अदालत ने गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को गुजरात के गुलबर्ग सोसाइटी में हुए दंगे के मामले में क्लीन चिट दे दी है। अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर काम कर रही एसआइटी की रिपोर्ट स्वीकार कर ली, जिसमें उसे मोदी के खिलाफ गुजरात के 2002 के दंगों को लेकर किसी तरह की आपराधिक लापरवाही के सबूत नहीं मिले। इस समय मोदी पर अब केवल नानावटी आयोग में मामले लंबित हैं, जहां प्रशासनिक लापरवाही की जांच होनी है। हालांकि एसआइटी की अंतिम रिपोर्ट को चुनौती देने वाली जकिया जाफरी का कहना है कि निचली अदालत के फैसले को वे उच्च न्यायालय में लेकर जाएंगी। भाजपा इसे मोदी के लिए बड़ी राहत बता रही है।

इस फैसले के बाद ही मोदी का लंबा बयान छपा, जिसमें उन्होंने दंगों को लेकर माफी तो नहीं मांगी, लेकिन दिल की बातें कहीं। दर्द, दुख, संताप जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही मोदी और तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के रिश्ते भी नए सिरे से लोगों को याद आने लगे हैं। पच्चीस दिसंबर को मोदी, वाजपेयी के जन्मदिन के मौके पर उनके घर जाकर आशीर्वाद लिया था। अगले ही दिन अदालत से मोदी को बड़ी राहत मिली। इससे पहले भी वाजपेयी भले मोदी की कुर्सी छीनना चाहते रहे हों, लेकिन अंतत: उनकी कोशिशों से मोदी को लाभ हुआ है।

सबसे पहली कोशिश गुजरात दंगों के बाद गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हुई थी। यह बैठक 12 अप्रैल 2002 को हुई थी। वाजपेयी ने हवाई जहाज में पत्रकारों को इशारा कर दिया था कि गोवा में मोदी की कुर्सी जा भी सकती है। वाजपेयी जिस हवाई जहाज में दिल्ली से गोवा गए, उसमें लालकृष्ण आडवाणी, अरुण शौरी और जसवंत सिंह भी थे। जहाज में ही वाजपेयी ने आडवाणी से पूछा था कि गुजरात का क्या करना है। आडवाणी ने कहा था कि बवाल हो जाएगा पार्टी में। फिर भी वाजपेयी को लगा कि मोदी को इस्तीफा देना ही चाहिए। यानी मोदी को लेकर दोनों में मतभेद थे, जिसे आडवाणी ने अपनी जीवनी ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में स्वीकार भी किया है।

गोवा बैठक में मोदी ने अपने लंबे भाषण में गोधरा और गुजरात दंगों की विस्तार से चर्चा की। भाषण के अंत में अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी। पूरे हॉल में इस्तीफा मत दो, इस्तीफा मत दो के नारे गूंज उठे। मोदी के इस्तीफे की पेशकश के खिलाफ अरुण जेटली ने प्रस्ताव रखा, जिसका प्रमोद महाजन ने समर्थन किया, जो वाजपेयी के नजदीकी माने जाते थे। वाजपेयी सन्न रह गए। वे मोदी को लेकर पार्टी में अलग-थलग पड़ गए थे।

इस घटना के लगभग दो महीने बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को खत में लिखा था कि मुझे पता चला है कि बहुत से मामलों में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा अभी तक नहीं मिला है। इसका कारण लाशों की पहचान न होना और गुमशुदा लोगों के बारे में जांच पूरी न होना बताया जा रहा है। अगर ऐसा है तो डीएनए सैंपल की जांच तय समय सीमा में पूरी कराई जाए। मुआवजा मिलने में देरी गंभीर चिंता का विषय है। उस समय आरोप लग रहे थे कि मुसलिमों को हुए संपत्ति के नुकसान को कम करके आंका जा रहा है और मोदी सरकार ऐसा जानबूझ कर कर रही है।

वाजपेयी का कहना था कि कुछ इलाकों में संपत्ति के नुकसान के हिसाब-किताब की जांच की जाए। अगर इस बात की पुष्टि होती है कि जानबूझ कर कम कीमत लगाई गई है तो फिर सरकार ऐसी शिकायतें करने वालों की संपत्ति की नए सिरे से जांच करे। अगर राज्य सरकार के पास पैसों की किल्लत है तो केंद्र आर्थिक मदद को तैयार है।

वाजपेयी ने दंगा पीड़ितों में बढ़ रही असुरक्षा की भावना पर भी गहरी चिंता व्यक्त की थी। उनका कहना था कि दंगा पीड़ितों को उनके घरों में फिर से बसाने की समुचित व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिए। सवाल है कि क्या वाजपेयी को यह खत इसलिए लिखना पड़ा, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी राजधर्म नहीं निभा रहे हैं, जैसा कि मोदी ने वाजपेयी से चार अप्रैल को वादा किया था। गुजरात में करीब दो सौ राहत शिविरों में करीब डेढ़ लाख दंगा पीड़ित रह रहे थे। उधर मोदी सरकार इन शिविरों को बंद कराना चाहती थी।

उसी दौरान मोदी ने राहत शिविरों में रहने वाले मुसलिमों के लिए पांच और हमारे पच्चीस वाला विवादास्पद बयान दिया था। इस बयान पर वाजपेयी खामोश रहे। यहां तक कि दो मार्च को राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने गुजरात दंगों को भारत के माथे पर काला धब्बा बताया, जिससे दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा गिरी। लेकिन अगले ही दिन सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक में हिंसा पर तो अफसोस जताया, लेकिन मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा कर रिपोर्टिंग करने का भी आरोप लगा दिया। वाजपेयी ने मीडिया को सकारात्मक भूमिका निभाने की नसीहत दी और विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की अपील ठुकरा दी।

गुजरात दंगों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी, तो राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को खत लिख कर चिंता व्यक्त की। उसके बाद वाजपेयी ने गुजरात का दौरा किया। तब उन्होंने कहा था कि आप संकट की इस घड़ी में अकेले नहीं हैं, पूरा देश आपके साथ है। अपने ही देश में शरणार्थी हो जाना, यह दिल को चीरने वाली बात है।... इतना सब हो जाने के बाद मैं विदेश कैसे जाऊंगा। क्या मुंह दिखाऊंगा। यह पागलपन बंद होना चाहिए।
दिन भर का दौरा खत्म करने के बाद देर शाम दिल्ली लौटते समय वाजपेयी ने पत्रकारों से बात की थी। उनके साथ मुख्यमंत्री मोदी भी थे। वहीं एक सवाल के जवाब में वाजपेयी ने मोदी से राजधर्म निभाने की अपील की थी। बीच में ही मोदी ने टोकते हुए कहा था कि यही तो कर रहा हूं। लेकिन राजधर्म की बात कहने से पहले ही वाजपेयी ने मोदी को अभयदान दे दिया था। एक सवाल के जवाब में उनका कहना था कि वे अभी नेतृत्व में कोई बदलाव नहीं देखते। वाजपेयी ने मोदी से यह भी कहा था कि उनकी सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस सिफारिश पर विचार करना चाहिए, जिसमें लोगों को जिंदा जलाने के कुछ मामलों की सीबीआइ जांच कराने की बात कही गई है। मोदी ने इसे नहीं माना था।

दंगों के दाग मिटाने के लिए मोदी ने गुजराती अस्मिता का नारा दिया। गोवा की बैठक में जीवनदान मिला, तो उन्होंने जल्द चुनाव कराने की सोची। लेकिन उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कहा कि स्थिति सामान्य होने पर ही चुनाव हो सकेंगे। मोदी ने तब गुजरात गौरव यात्रा निकाली, जिसमें वे अपने भाषणों में जानबूझ कर लिंगदोह का पूरा नाम लेते। जेम्स माइकल लिंगदोह। ताकि उन्हें ईसाई बताया और सोनिया गांधी से जोड़ा जा सके। दिल्ली में बैठे वाजपेयी चुपचाप यह सब देखते रहे।

दिसंबर 2002 में विधानसभा के चुनाव हुए। मोदी को एक सौ बयासी में से एक सौ सत्ताईस सीटें मिलीं और कांग्रेस के हाथ सिर्फ इक्यावन सीटें लगीं। मोदी का अमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम में शपथ ग्रहण समारोह हुआ, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी भी शरीक हुए। मोदी का कद बढ़ गया था। पार्टी में मोदीत्व और हिंदुत्व एक दूसरे के पर्याय हो गए थे। वाजपेयी ने भी शायद इस सच को स्वीकार कर लिया था।

दिसंबर, 2003 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत हुई। इस साल विकास दर आठ फीसद से ज्यादा थी। भाजपा को लगा कि भारत चमक रहा है। उसने समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने का फैसला किया।

मगर मई, 2004 में नतीजे आए तो बाजी पलट चुकी थी। वाजपेयी चुनाव की थकान दूर करने मनाली चले गए। सबको लगा कि वाजपेयी पार्टी की हार से दुखी हैं। मनाली में बैठ कर कुछ कविताएं लिखेंगे। लेकिन वहां वाजपेयी ने एक टीवी इंटरव्यू में लोकसभा चुनावों में हार की एक वजह 2002 के गुजरात दंगों को बताया। उनका कहना था कि मैं व्यक्तिगत रूप से मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के हक में था। संघ परिवार से जुड़े नेताओं ने मोदी का पक्ष लिया।

वाजपेयी के बयान से संघ में भी हड़कंप मचा। मोदी के संरक्षक आडवाणी तो विवाद से दूर रहे, लेकिन आमतौर पर राजनीति से खुद को दूर रखने वाला संघ सामने आ गया। संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने गुजरात दंगों को लोकसभा चुनावों की हार से जोड़ने से साफ इनकार किया। उनका कहना था कि गुजरात दंगों के बाद भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कैसे जीत गई? यही बात प्रमोद महाजन ने भी कही थी। मोदी को नकारने का मतलब था, हिंदुत्व को ही नकारना। यह संघ को कतई मंजूर नहीं था।

हालांकि उस समय संघ भी मोदी के अहंकारी स्वभाव से खुश नहीं था। मोदी की खुले बाजार की आर्थिक नीतियों से संघ का एक धड़ा सहमत नहीं था। इस बीच मोदी के धुर विरोधी केशुभाई पटेल सक्रिय हो रहे थे। संघ मोदी को हटाना तो चाहता था, लेकिन हिंदुत्व की कीमत पर नहीं। वाजपेयी यहीं गलती कर गए। चुनावों में हार के हर पहलू पर चर्चा होनी ही थी। तब मोदी या गुजरात दंगे का मुद्दा किसी न किसी रूप में उठता ही। फिर वाजपेयी दिल्ली से मनाली पहुंचे तो उनका सुर ठंडा पड़ चुका था। मोदी पर सवाल पूछा गया तो वाजपेयी ने कहा कि मोदी को हटाने का मुद्दा पुराना हो गया है, खत्म हो चुका है। उन्होंने मोदी के समर्थकों से कहा कि वे नए साल की तरफ देखें और अगले विधानसभा चुनावों की तैयारी करें। दरअसल, भाजपा नेताओं ने वाजपेयी को शांत करने के लिए समझौता किया। पार्टी की संसदीय दल की बैठक बुला कर गुजरात पर चर्चा करने और चुनावी नतीजों की पड़ताल के लिए पैनल बनाने पर सहमति बनी।

जानकारों का कहना है कि वाजपेयी यही चाहते थे कि चुनावों में हार के लिए उनकी सरकार को दोषी न ठहराया जाए। वे ठीकरा मोदी के सिर फोड़ना चाहते थे, लेकिन अपनी ही चाल में फंस गए। इसका राजनीतिक खमियाजा उन्हें मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में झेलना पड़ा। इस बैठक के बाद ही मोदी संघ के नए हीरो बन गए थे। वाजपेयी धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से खुद को अलग करते चले गए। मोदी का उदय हो रहा था और वाजपेयी की राजनीति का सूरज अस्ताचल की तरफ जा रहा था।

खैर, अब वाजपेयी सक्रिय राजनीति से खुद को अलग कर चुके हैं। उधर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद मोदी के स्वर बदले हैं। वे हिंदुओं और मुसलमानों की साथ-साथ तरक्की की बात करने लगे हैं। संभव है कि अदालत के ताजा फैसले के बाद मोदी के रुख में और बदलाव आए।

 विजय विद्रोही 



                                                                                                                                                 

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