Saturday, June 1, 2019

तुम्हारा मन कोई किला नहीं था !!

तुम्हारा मन कोई किला नहीं था जिसे मैं जीतता और न मेरा प्रेम कोई युद्ध जो जीत के लिए किया गया हो। तुम अपनी हाँ, ना के साथ। सत्कार, तिरस्कार के साथ। उलझन और विचलन के साथ आई थी और उसी तरह आज भी हृदय में हो।

मैं अपनी निश्चलता-कुटिलता, पौरुषीय दम्भ-मानवीय सरलता, विचारों के उलझाओ-भावनाओं के बहाव, सपनों के गढ़न-झूठे कथन, भविष्य के डर और प्रेम के स्वर के साथ तुममें कहीं बचा हूँ कि नहीं मुझे नहीं मालूम।

हम प्रेम में बदलते हैं और जो बदलते हैं। वो हमारा प्रेमी अपने भीतर सुरक्षित कर लेता है। क्योंकि वो हमारे क्षरण को बर्दास्त नहीं कर सकता। हम जैसे हैं, वैसे ही प्रेम में पूर्ण और स्वविकार्य होते हैं। और जो कुछ भी हममें बदलता है वो प्रकृति अकाट्य परिवर्तन नियम की परिणीति है। सम्मिश्रण का प्रभाव है। यही जीवन है। यही प्रेमी में खो कर खुद को पाना है। यही कुछ से बहुत कुछ, सबकुछ हो जाना है।

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