Wednesday, March 5, 2014

तेलंगाना का सवाल, इतिहास का जवाब

तेलंगाना की तस्वीर शीर्षक से एक लेख जनसत्ता में 16 November 2013 को सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा था | मैंने इस लेख को सहेज कर रख तो लिया था पर किन्हीं कारणवश आपसे साझा नहीं कर सका | आज ड्राफ्ट चेक कर रहा था | तभी ये लेख मिल गया | ये लेख तेलंगाना समस्या की बारीक़ पड़ताल करता है और मुझे लगता है कि इतिहास के पृष्ठ पर लिखे जवाबों से वर्तमान के सवाल हल करने में सहायक है | मेरे ख्याल से तेलंगाना मसले में एक समझ बनाने के लिए ये लेख काफी मददगार सिद्ध हो सकता है. इसी उम्मीद के साथ, मैं ये लेख आप सभी से साझा कर रहा हूँ. आशा है विनय सुल्तान का लिखा ये लेख आप सभी पाठकों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा. माडरेटर...अनुराग अनंत 

तेलंगाना की सात दिन की यात्रा से पहले मेरे लिए तेलंगाना का मतलब था आंदोलनकारी छात्र, लाठीचार्ज, आगजनी, आत्मदाह, रवि नारायण रेड्डी और नक्सलबाड़ी आंदोलन।

संसद के शीतकालीन सत्र में तेलंगाना के दस जिलों की साढ़े तीन करोड़ आबादी का मुस्तकबिल लिखा जाना है। मेरे लिए यह सबसे सुनहरा मौका था वहां के लोगों के अनुभवों और उम्मीदों को समझने का।

पृथक राज्यों की मांग के पीछे अक्सर एक पूर्वग्रह काम करता है, भाषा और संस्कृति। तेलंगाना का मसला इसके ठीक उलट है। यहां शेष आंध्र की तरह ही तेलुगू मुख्य भाषा है। अलबत्ता भाषा का लहजा और यहां की संस्कृति दोनों सीमांध्र से अलग हैं।

1947 में सत्ता हस्तांतरण के तुरंत बाद भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के आंदोलन शुरू हो गए। 1952 में पोट्टी श्रीरामलु का निधन मद्रास स्टेट से पृथक आंध्र प्रदेश बनाने की मांग को लेकर किए गए अनशन के दौरान हुआ। इसके बाद प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग या फजल अली आयोग की स्थापना हुई। तेलंगाना आजादी से पहले ब्रिटिश राज का हिस्सा नहीं था; यहां पर निजाम का शासन था। 1948 की पुलिस कार्रवाई के बाद निजाम हैदराबाद का विलय भारतीय राज्य में हुआ। राज्यों के भाषाई आधार पर हो रहे पुनर्गठन के दौरान निजाम हैदराबाद के मराठीभाषी क्षेत्रों को महाराष्ट्र में, कन्नड़भाषी क्षेत्रों को कर्नाटक में और तेलुगूभाषी क्षेत्रों को आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया।

इस पूरी प्रक्रिया में फजल आली शाह कमेटी की सिफारिशों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। फजल आली शाह आयोग की सिफारिश स्पष्ट तौर पर विशाल आंध्र के गठन के खिलाफ थी। इस सिफारिश का पैरा 378 शैक्षणिक रूप से अगड़े सीमांध्र के लोगों द्वारा पिछड़े तेलंगाना के संभावित शोषण को विशाल आंध्र के गठन के विरोध का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण मानता है। साथ ही पैरा 386 में कहा गया है कि तेलंगाना को आंध्र प्रदेश में न मिलाया जाना आंध्र और तेलंगाना दोनों के हित में रहेगा। इस तरह से देखा जाए तो आंध्र प्रदेश के निर्माण के साथ ही गैर-बराबरी, शोषण और तकसीम के बीज बोए जा चुके थे।

फजल आली शाह कमेटी की आशंका सही साबित हुई। विशाल आंध्र के गठन के महज तेरह साल बाद ही तेलंगाना के लोगों ने नौकरियों में हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया। 1969 के उस जन-उभार का सरकार ने निर्मम दमन किया। आज 369 तेलंगाना के लोगों के लिए महज एक गणितीय आंकड़ा नहीं है। यह 1969 के जन आंदोलन में पुलिस की गोली से शहीद हुए लोगों का प्रतीक है। इसके बाद कभी तेज और कभी मंद, लेकिन तेलंगाना की मांग मुसलसल जारी रही। एक दहला देने वाला आंकड़ा यह भी है कि तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर दिसंबर, 2009 से अब तक बारह सौ से ज्यादा लोग आत्मदाह कर चुके हैं। किसी भी आंदोलन में इतने बड़े पैमाने पर आत्मदाह का उदाहरण मिलना मुश्किल है।

हैदराबाद कभी ब्रिटिश राज का हिस्सा नहीं रहा। इस वजह से यहां की राजनीतिक और शेष आंध्र की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में एक ऐतिहासिक फर्क रहा, जो आज भी मौजूद है। समाजवादी चिंतक केशवराव जाधव की मानें तो यह एक तरह का आंतरिक साम्राज्यवाद है। तेलंगाना के संसाधनों के बड़े हिस्से पर सीमांध्र के लोगों का कब्जा रहा है। तेलंगाना आंध्र प्रदेश में बयालीस फीसद की भौगोलिक हिस्सेदारी रखता है, साथ ही कुल जनसंख्या का चालीस फीसद हिस्सा इस क्षेत्र में निवास करता है।

राज्य के कुल राजस्व का इकसठ फीसद हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है, लेकिन आंध्र प्रदेश के कुल बजट का मुश्किल से बीस फीसद ही तेलंगाना को मिल पाता है। उदाहरण के लिए, नाबार्ड द्वारा 2009 में आबंटित एक सौ तीस करोड़ में से एक सौ इक्कीस करोड़ रुपए सीमांध्र और रायलसीमा में खर्च किए गए।

आंध्र प्रदेश की कुल साक्षरता दर 67 फीसद है जबकि तेलंगाना में महज 58 फीसद। महबूबनगर साक्षरता की दृष्टि से देश का सबसे पिछड़ा जिला है। आंध्र प्रदेश के कुल शिक्षण संस्थानों में से महज एक चौथाई संस्थान तेलंगाना में हैं। 1956 से अब तक शिक्षा पर हुए कुल खर्च का दसवां भाग ही तेलंगाना की झोली में आ पाया। जहां सीमांध्र और रायलसीमा के लिए शिक्षा के मद में क्रमश: 1308 और 382 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई वहीं तेलंगाना को 162 करोड़ रुपए ही मिल पाए। सीमांध्र और रायलसीमा में सरकारी विद्यालयों की संख्या 39,801 है। तेलंगाना में यह संख्या इसके आधे से भी कम है। डिग्री कॉलेजों का अनुपात भी 240 के मुकाबले 74 ठहरता है।

यहां गौरतलब है कि तेलंगाना में आदिवासी, दलित और पिछड़े मिल कर आबादी का अस्सी फीसद भाग गढ़ते हैं। इन आंकड़ों को देख कर शिक्षा में इस इलाके के पिछड़ेपन को केवल संयोग तो नहीं कहा जा सकता। 

शिक्षा का सीधा संबंध रोजगार से है। प्रो जयशंकर द्वारा किए गए शोध के अनुसार सिर्फ बीस फीसद सरकारी रोजगार तेलंगाना के खाते में हैं। सचिवालय की नौकरियों में तेलंगाना का प्रतिनिधित्व घट कर दस फीसद पर पहुंच जाता है। कुल एक सौ तीस विभागों में से सिर्फ आठ विभागों मेंतेलंगाना क्षेत्र का कोई अधिकारी नीति निर्धारक पद पर है। सरकारी नौकरियों में अवसर की अनुपलब्धता से रोजगार के लिए यहां बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है। महबूबनगर जिले की तैंतीस फीसद आबादी इस तरह के विस्थापन की शिकार है।

वर्ष 1997 से 2010 तक आंध्र प्रदेश में पांच हजार आठ सौ किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से तीन हजार चार सौ आत्महत्याएं तेलंगाना में हुर्इं। एक तथ्य यह भी है कि इस देश में किसानों की आत्महत्या की अड़सठ फीसद घटनाएं कपास उगाने वाले क्षेत्रों में हुर्इं। तेलंगाना में कपास उगाने का चलन आंध्र के आदिवासियों द्वारा 1980 के बाद शुरू हुआ। इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं के पीछे बड़ी वजह यह है कि तिरासी फीसद किसान ऋण के लिए साहूकारों पर निर्भर हैं, जहां ब्याज की दर छत्तीस फीसद है, आपके होम लोन, पर्सनल लोन या कार लोन से तीन से पांच गुना ज्यादा। सरकार द्वारा आबंटित कुल कृषि ऋण का महज सत्ताईस फीसद भाग तेलंगाना के हिस्से आता है। ब्याज-मुक्त ऋण का आबंटन 15.24 फीसद है। जबकि चालीस फीसद कृषियोग्य भूमि इस क्षेत्र में आती है।

पानी तेलंगाना-संघर्ष का सबसे बड़ा कारण रहा है। कृष्णा नदी का उनहत्तहर फीसद और गोदावरी का उनासी फीसद बहाव क्षेत्र तेलंगाना में है। लेकिन पानी के बंटवारे में जो अन्याय तेलंगाना के साथ हुआ उसकी दूसरी नजीर नहीं मिलेगी। नागार्जुन सागर बांध नलगोंडा जिले में है। इसके द्वारा कुल पच्चीस लाख एकड़ जमीन की सिंचाई की व्यवस्था की गई। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इसके जरिए सीमांध्र की बीस लाख एकड़ और तेलंगाना की महज पांच लाख एकड़ जमीन सींची जा रही है। इसी तरह जिस श्रीसैलम परियोजना के कारण तेलंगाना के कुरनूल जिले के एक लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था उसका एक बूंद भी तेलंगाना को नहीं मिलता। हालांकि तेलुगू गंगाके नाम पर इसका एक हिस्सा चेन्नई की पेयजल आपूर्ति के लिए दिया जाता है।

सूखे की मार से त्रस्त महबूबनगर के लिए 1981 में जुराला परियोजना की शुरुआत की गई थी। इस परियोजना से एक लाख एकड़ जमीन की सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होने की उम्मीद थी। पर तीन दशक बाद भी यह परियोजना निर्माणाधीन है।

तेलंगाना के लोगों का मानना है कि अलग राज्य बनाए जाने से उनको पानी में न्यायपूर्ण हिस्सा मिल सकेगा। तेलंगाना की कुल उपजाऊ जमीन के चार फीसद भाग को नहरों के जरिए सिंचाई का पानी मयस्सर है। सीमांध्र की कुल उपजाऊ जमीन के अट्ठाईस फीसद भाग को नहरों का पानी मिल रहा है। सिंचाई पर सरकार ने तेलंगाना में 4005 करोड़ रुपए खर्च किए हैं जो कि सीमांध्र के मुकाबले पांच गुना कम है। पिछले पचास सालों में आबंटित चालीस परियोजनाओं में से सैंतीस का लाभ सीमांध्र को पहुंच रहा है। यह एक और ऐसा तथ्य है जिसे संयोग नहीं कहा जा सकता।

अलग तेलंगाना राज्य की मांग के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा सीमांध्र की अधिवासी लॉबी बनी रही। तेलंगाना की आबादी में बाईस फीसद और हैदराबाद की आबादी में पैंतालीस फीसद हिस्सा इनका है। हैदराबाद के आसपास सहित तेलंगाना की उपजाऊ जमीन के बड़े हिस्से पर इनका कब्जा है। भारत-पाक बंटवारे के बाद हैदराबाद के कई मुसलिम जमींदार पाकिस्तान चले गए थे। इनकी लगभग दो हजार एकड़ जमीन बहुत सस्ती दरों पर आंध्र-अधिवासियों को उपलब्ध कराई गई।

इसी तरह निजाम के समय के डेढ़ सौ कारखाने सत्तर का दशक आते-आते बंद हो गए। इनको निजाम के समय जरूरत से कई गुना जमीन आबंटित की गई थी। उदाहरण के तौर पर प्रागा टूल्स को निजाम के समय में सौ एकड़ जमीन मिली थी। इन सारी जमीन पर आज आंध्र के अधिवासियों का कब्जा है। वक्फ की जमीन की बंदरबांट भी इसी तर्ज पर कर दी गई। इस तरह आंध्र अधिवासी भू-माफिया गिरोह बहुत शक्तिशाली होते गए। आज तेलंगाना में पैंसठ फीसद औद्योगिक इकाइयों के मालिक यही अधिवासी हैं। भारत की बड़ी निर्माण कंपनियों के मालिक आंध्र से हैं। इनके लिए तेलंगाना सस्ते श्रम का स्रोत है। एक तेलुगू लोक गीत इस त्रासदी को कुछ इस तरह से बयां करता है- हम दुनिया के लिए सड़क बनाते हैं, पर हमारे जीवन में कोई रास्ता नहीं है/ सुबह हाथ की लकीरें दिखने से पहले हम काम पर जाते हैं, और लौटते हैं जब लकीरें दिखना बंद हो जाएं।

पैंतीस साल लंबे संघर्ष के बाद तेलंगाना को जिल्लत, इलाकाई गैर-बराबरी और कमतरी के अहसास से छुटकारा मिलने की उम्मीद जगी है। वहीं अल्पसंख्यक समुदाय खुद को डर और अनिश्चितता से घिरा पा रहा है। मुसलमान तेलंगाना के सांप्रदायिक इतिहास से सहमे हुए हैं।

तेलंगाना राष्ट्र समिति एक-सूत्री पार्टी है। तेलंगाना निर्माण के बाद टीआरएस का कांग्रेस में विलय होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष के शून्य को भरने के लिए भाजपा सबसे मजबूत स्थिति में होगी। ऐसे में अल्पसंख्यकों का डर आधारहीन नहीं कहा जा सकता|

 विनय सुल्तान



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