Tuesday, January 16, 2018

ख़याली ख़ब्त भाग 2

असंतोष बहुत जरुरी है 

संतोष, सिर्फ एक शब्द नहीं है. ये अपने आप में एक दार्शनिक राजनीति है. जो आपकी चेतना को बदलकर आपके भीतर एक ऐसी सांस्कृतिक समझ रचती है कि आप हिसाब करना और हिसाब लेना भूल जाते हैं फिर कहीं से कोई बोलता "कोऊ नृप होय हमें का हानि" और आप संतोष कर लेते हैं. काम करते जाते हैं फल की चिंता नहीं करते क्योंकि आपके दिमाग में "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" गूंजता है. कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो. फल की चिंता क्यों न करें? क्योंकि इससे असंतोष होगा और चूंकि संतोषम परमं सुखम है. इसलिए असंतोष से बचना चाहिए ? संतोष का पाठ इसलिए सिखाया जाता है कि हम पलट कर वार ना करें ? सवाल न पूछें ? हिसाब न करें ? न सोचें कि मेरे साथ ये हुआ तो क्यों हुआ, कैसे हुआ ? बस इसे बिधि का बिधान मान कर परम सुख में डूब जाएँ. रात में रोते हुए गाना गायें "जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये" संतोष शोषक को शोषण की वैध्यता देता है और आप का मौन समर्थन भी मुहैया कराता है.

संतोष शोषितों की पाँव की बेडी है. दुर्बलों, अज्ञानियों और मरती हुई सभ्यताओं का गुण है संतोष. जो सबल है उसे सतोष का पाठ नहीं पढाया जाता. जो दुर्बल है उसे ही संतोष का सबक रटाया जाता है ताकि शोषण के विरुद्ध उठने वाली आवाज पनपने से पहले ही ख़तम कर दी जाए.

इस पित्रसत्तात्मक समाज में घर पर सबसे ज्यादा संतोष का सबक बेटी को ही पढाया जाता है. बेटे को दूध और बेटी को संतोष, बेटे को छूट और बेटी को संतोष. पति को मान-सम्मान, नाम और मुखिया होने का गौरव और पत्नी को संतोष. दरअसल संतोष ही वो सांचा है जिसमे ढाल कर एक लड़की को लड़की और एक औरत को औरत बनाया जाता है.

सारा संतोष जातियों में बंटे इस समाज में वंचितों-दलितों के खाते में ही क्रेडिट कर दिया गया है. संतोष का सारा एजुकेशनल माड्यूल दबी कुचली जातियों को ही पिलाया जाता रहा है. और कहा जाता रहा 'समरथ को का दोष गोसाईं' समरथ के लिए संतोष नहीं है उसके लिए दोषमुक्त निरंकुश मनमानी है.

संतोष का सांचा जब टूटता है तभी कुछ नया होता, कुछ रचनात्मक होता है, कुछ बेहतर, कुछ बड़ा होता है. संतोष आपको भोथरा बना देता है. जितना किया उसे ज्यादा करना है. जितना पूछा, उससे ज्यादा पूछना है. जितना जाना उससे, ज्यादा जानना है. जितना बेहतर हुए, उससे ज्यादा बेहतर होना है. जितना मनुष्य हुए, उससे ज्यादा मनुष्य होना है. ये भाव संतोष के सांचे के टूटने के बाद ही पाया जा सकता है.

ये सब कहने पर कोई पीछे से टोक कर कह सकता है कि संतोष नहीं होगा तो लोग एक दुसरे का हक मारने लगेंगे. एक दुसरे का गला काट देंगे. विनाश आ जायेगा. संतुलन बिगड़ जायेगा. मनुष्य मनुष्य नहीं रह जायेगा. मुझे उनसे बड़े आदर से कहना है कि देखिये महोदय ये सबकुछ संतोष शब्द के भ्रम जाल के चलते ही हो रहा है. और इन्हें हटाने के लिए संतोष शब्द के विलोप की बहुत बड़ी जरुरत है. किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहें है. उनका हक मारा जा रहा है. पर वो संगठित होकर आवाज नहीं उठा रहे बल्कि संतोष से जान दे रहें हैं. यही हाल मजदूर, शोषितों, वंचितों और आम आदमी का है, महिलाओं का है, बच्चों का, बूढों का है.

दरअसल असंतोष ही सर्जना का मूल होता है. नए समाज के सृजन के लिए असंतोष का होना जरुरी है. एक असंतोष जो बेहतर से बेहतर की ओर ले जाए. सीमायों के विस्तार और नए वितान के निर्माण के लिए एक असंतोष सबके दिल में होना ही चाहिए.

अनुराग अनंत

#ख़याली_ख़ब्त

No comments: