Sunday, March 25, 2012

भगत सिंह मरे नहीं हैं जि़दा हैं,..............


"नौजवानों को अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। उन्हें अपने आप को बाहरी प्रभावों से दूर रहकर संगठित करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि मक्कार और बेइमान लोगों के हाथों में न खेलें, जिन के साथ उनकी कोर्इ समानता नहीं है और जो हर नाजुक मौके पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं। उन्हें चाहिए कि संजीदगी और र्इमानदारी के साथ सेवा, त्याग और बलिदान को अनुकरणीय वाक्य के रूप में अपना मार्गदर्शक बनाये।"-----भगत सिंह 


भगत सिंह 22 वर्ष की उम्र में जब अपने साथियों से यह कह रहे थे तब ये महज उनकी बात नहीं थी। ये नवजवानों के लिए जवानी की एक परिभाषा थी। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के विरूद्ध लड़ते हुए जिस नवजवान से भगत सिंह ने ये बातें कही थी, वह आधुनिकता की अंधी दौड़ में किसी अंधेरी गली में गुम हो गया है। उसकी ज़ुबान पर लहराता हुआ ‘’इंकलाब जिंदाबाद’’ का नारा अपह्र्त कर लिया गया है और जवानी की परिभाषा अंधे और क्रूर सपनों के बाट तले रौंद दी गयी है। आज का नौजवान भगत सिंह के विचारों से ज्यादा क्लोज़अप टूथपेस्ट के उस विज्ञापन पर विश्वास है जिसमें कहा जाता है कि इससे ब्रश करने से लड़कियाँ मूंह चूमने को आतुर हो जाती हैं। शीला की जवानी और मुन्नी की ज़ुल्फों में उलझे हुए नौजवान से भगत सिंह की ये अपेक्षाएं खांटी बेमानी लगती हैं। 

जब देश की आत्मा तक चूस रहे भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के नाम जपते, मतलब परस्त, राजनीतिक पार्टियों के बहुरंगे झण्डे लहराते नौजवान अपने तुच्छ से तुच्छ निजी हित के आगे घुटने टेकते नजर आते हैं,  उस वक्त सच कहूँ तो मुझे एक गहरी कोफ्त होती है, उस तथाकथित नौजवान से जो भगत सिंह सरीखे शहीदों की शहादत से मिली आज़ादी का दोहन कर रहे हैं। आज देश ऐसे नौजवानों से भरा पड़ा है जिनके सपनों की उड़ान एक बंगला, एक गाड़ी और एक छोटे परिवार पर दम तोड़ देती है। वो अपने तुच्छ सपनों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को सहर्ष तैयार रहते हैं।

भगत सिंह के सपनों का नौजवान और सपनों का भारत दोनों ही न जाने कहाँ सिसकियां भर रहे हैं उनके विचारों के स्पंदन तभी सुनार्इ पड़ते हैं जब इस देश की चुनी हुर्इ, पूंजीवाद की अभिभावक सरकार नंदीग्राम और सिंगूर की ज़मीनें छीनकर मुनाफाखोरों  की भूख मिटाने के प्रति प्रतिबद्धता निभाने पर उतारू नज़र आती है। भगत सिंह बक्सर के जंगलों में ‘'सोनी शोरीं’’ की आवाज़ में उस वक्त इंकलाब जि़ंदाबाद चीखते हुए पाए जाते हैं, जब हमारे संविधान के तथाकथित रक्षक उसकी कोख में पत्थर डाल रहे होते हैं। भगत सिंह उस वक्त मुस्कुराते  हुए पाये जाते हैं जब एक गरीब जुलाहे का तन सर्दियों में ढ़का होता है, जब एक गरीब मजदूर परिवार एक छत के नीचे भरपेट खाना खाकर सोता है। भगत सिंह उस वक्त खिलखिलाकर हंसते हैं जब किसी गरीब की बेटी दहेज की कमी से जलार्इ नहीं जाती, जब मजदूरों का काफिला जि़दगी के सवाल पर उठ खड़ा होता है और उनकी आत्मा का पोर-पोर इंकलाब के रंग से रंग जाता है। भगत सिंह उस समय मायूस हो रहे होते हैं जब छियत्तर करोड़ भूखे देशवासियों की ख़बर से बेख़बर नौजवान विधा बालन के गदराये बदन पर उ –ला-ला कर रहा होता है। भगत सिंह उस समय फिर से बम फेंकने की योजना बना रहे होते हैं जब सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, कनिमोझी  और कमोबेस  ऐसे ही सैकड़ों काले अंग्रेज संसद के भीतर बहुमत का चक्रव्यूह रचाकर लोकतंत्र की हत्या कर रहे होते हैं। एक गहरी उलझन भगत सिंह के मन में तब पैठ बना रही होती है जब देश का युवा आम बजट पर गरीबों की टूटती हुर्इ रीढ़ और बहते हुए आंसुओं पर ध्यान न देकर सचिन के सैकड़े पर कार्पोरेटी संचार जनित उन्माद में फंस  कर मिठार्इयाँ  बाँट  रहा होता है और वो अपने विज्ञापनों के दाम बढ़ा रहे होते हैं। भगत सिंह के मन की उलझन तब और बढ़ जाती है जब जनता के मुददे हासिये पर दम तोड़ रहे होते हैं और मीडिया के मंच पर निर्मल बाबा' सरीखे अध्यात्म विक्रेताओं के दरबार सजे होते हैं और देश के तथाकथित बौद्धिक अन्धविश्वास और धर्मान्धता की अफीम के नशे में धुत हो रहे होते हैं। यूँ तो भगत सिंह लाख ढूढ़ने से नहीं मिलते क्योंकि भगत सिंह वक्त और परिस्थितियों  के परिणाम होते हैं, भगत सिंह एक इंसान नहीं वरन एक विचार हैं जो मरते नहीं सर्वत्र फैल जाते हैं जो कभी तीव्र होते हैं तो कभी क्षीण। न होकर भी होना ही भगत सिंह है। जिनके साथ कोर्इ नहीं हैं उनके साथ भगत सिंह हैं। जहां  अवसाद का सूरज चरम पर होता है, व्यवस्था क्रूरता और शोषण के कोड़े बरसाती है। आशाओं का हलक सूखने लगता है मृत्यु और अन्त अनिवार्य सा प्रतीत होता है तब भगत सिंह संघर्ष की आवाज़ बनकर फूटता है।

भगत सिंह हर नौजवान के मन में बसा हुआ एक अरमान है, ये बात और है कि उसके कदम कुछ भटके हैं, मुझे इंतज़ार उस दिन का है, जब नौजवानों का काफिला भगत सिंह की राह पर इंकलाब का परचम लिए उसके जि़ंदाबाद होने तक संघर्ष करेगा और हँसकर बड़े से बड़ा बलिदान देने के लिए तैयार रहेगा । एक नौजवान के तौर पर मैं ये महसूस करता हूं कि 


                                                         ''भगत सिंह मरे नहीं हैं जि़दा हैं, हम सबके अरमानों में, 
                                                          मज़दूर और किसानों में, खेतों और खलिहानों में ''


इंकलाब जिंदाबाद .......भगत सिंह तुम्हारा---अनंत