Monday, June 12, 2017

वो शायर, जो चाँद को महबूब नहीं मामा कहता था..!!

अजीब आदमी था वो, जो उड़ती हुई जुल्फों की लय पर मचलते हुए कुंआरियों के दिल की खबर रखता था। जो घडी की टिक टिक की आवाज़ का घेरा तोड़ कर, घोड़े को टिक टिक टिक चलने के लिए कहता था और बच्चों के बचपन के खेलों में घुल जाता था। वो दूर चाँद से महबूब का नहीं मामा का रिश्ता बनता था और हिंदुस्तान भर के बच्चे चाँद को मामा मान बैठते थे। उसने माओं की भावनाओं का अमर अनुवाद किया और हिन्दुस्तान के घरों में गायी जाने वाली सबसे लोकप्रिय लोरी रच दी। हमने बचपन में अपनी माओं से कभी न कभी "तुझे सूरज कहूँ या चंदा/ तुझे दीप कहूँ या तारा" गीत सुना होगा और मन ही मन सूरज, चंदा, दीप, सितारा सब एक साथ होना महसूस किया होगा। बात बचपन की बगिया से निकल कर, जवानी की पगडंडियों से होती हुई, वतन की गलियों पर निसार होने तक पहुंची तो यही शख्स भारत माँ से कहता हुआ पाया गया "मेरा रंग दे बसंती चोला"।  ये गीत "शहीद" फिल्म में भगत सिंह के किरदार पर फिल्माया गया और उसके बाद हम उस क्षण को महसूस कर पाए जिसमें  भगत सिंह बसंती चोले की लालसा में हंस पर फांसी पर झूल गए। 

ये उस शख्स का तारुफ़ है, जिसका नाम हम भले ही ना जानते हों पर उसके लिखे गीत हमारी स्मृतियों में इस तरह समाए हैं जैसे सीने में सांस समाई होती है। हम बात कर रहे हैं, फ़िल्मी गीतकार प्रेम धवन की। आज उनका जन्म दिन है। आज ही के दिन यानी 13 जून 1923 को उनका जन्म पंजाब के अम्बाला में हुआ था (आज ये जिला हरयाणा में है)। इनके पिता जी अंग्रेज सरकार में जेल सुपरिटेंडेंट थे इसलिए उनका तबादला होता रहता था जिसकी वजह से प्रेम धवन को भी देश के कई हिस्सों को देखने का मौका मिला। प्रेम धवन ने देश को जाना पहचाना और उसकी आत्मा की आवाज का अनुवाद करने में सफल रहे।  शायद यही वजह रही है कि प्रेम धवन के खाते में बेहतरीन देशप्रेम के गीत आये। 

प्रेम धवन ने लाहौर के मशहूर एम. सी. कालेज से ग्रेजुएशन किया, जहाँ उनके सहपाठी मशहूर शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी थे और पूर्व प्रधानमंत्री आई. के. गुजराल उनके सीनियर थे। लाहौर में कालेज के दिनों से ही प्रेम धवन और साहिर साहब वामपंथी प्रगतिशील धारा से जुड़ गए और छात्र राजनीति भी की, फिर बाद में उन्होंने रचनात्मक प्रतिरोध की धारा को अपनी अभिवक्ति का माध्यम चुना और इप्टा में काम करने बम्बई चले आये। यहाँ उन्होंने ढंग से लिखना सीखा। इप्टा उस दौर में बम्बई में काफी सक्रिय हुआ करता था। प्रेम धवन ने इप्टा के नाटकों के लिए जी भर की गीत लिखे और इसी दौरान उन्होंने पं. रवि शंकर से संगीत एवं पं.उदय शंकर से नृत्य की शिक्षा ली। इस तरह प्रेम धवन एक गीतकार, अभिनेता, कोरियोग्राफर और कम्पोजर बन गए। उन्होंने फिल्मों में इन सारे क्षेत्र में काम किया लेकिन उनका एक गीतकार के रूप में विशेष उल्लेखनीय काम रहा। 

प्रेम धवन साहब की फिल्मों में इंट्री 1946 की फिल्म पगडंडी में संगीतकार खुर्शीद अनवर के सहायक के तौर पर होती है। बाद में 1948 में वो बॉम्बे टाकीज में मुलाजिम हो जाते हैं और फिल्म "जिद्दी" के लिए गीत लिखते हैं। ये उनकी बतौर गीतकार पहली फिल्म थी और किशोर कुमार की भी। किशोर कुमार ने भी पार्श्व गायक के बतौर इसी फिल्म से शुरुवात की थी। प्रेम धवन की शुरुवात उतनी अच्छी नहीं रही और उन्हें पहचान के संकट से लगभग सात सालों तक जूझना पड़ा।    
    
इसी बीच उनके साथी साहिर लुधियानवी काम की तलाश में बम्बई आये और प्रेम धवन ने उन्हें फिल्म निर्देशकों और संगीतकारों से मिलवाया। साहिर अपने कलम की ताकत के दम पर फ़िल्मी जगत के रास्ते पूरे देश के सर पर चढ़ कर बोलने लगे थे। उनकी गिनती मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, राजेंद्र कृष्ण, हसरत जयपुरी और शकील बदायुनी के साथ की जाने लगी थी पर प्रेम धवन के लिए अभी भी इन सितारों के बीच अपनी अलग चमक को परिभाषित करना बाकी था। हलाकि प्रेम धवन इसबीच काम पाते रहे और डाक बाबू, ठोकर, आसमान और मोती महल जैसी फिल्मे की पर उनका काम कुछ हलचल नहीं मचा सका और न इंडस्ट्री का और न ही देश का ध्यान प्रेम साहब की तरफ गया।  

फिर साल 1955 आता है और आती है, गीता बाली और राजेंद्र कपूर की फिल्म "वचन" जिसमे प्रेम साहब का गीत "चंदा मामा दूर के...." खासा मशहूर हुआ। लोगों ने पहली बार चाँद से एक नया रिश्ता बनाया और चाँद जवानों के लिए अगर महबूब था तो बच्चों के लिए वो मामा हो गया। ये गीत ऐसा मशहूर हुआ कि इसके बाद चाँद पर बैठी सूत कातती बुढ़िया की कहानी कहीं खो सी गयी और चाँद की आज़ाद पहचान बच्चों के मामा के रूप में अमर हो गयी। ये पहला मौका था जब न सिर्फ फ़िल्मी जगत बल्कि पूरा भारतीय मानस प्रेम धवन की कलम के प्रभाव में था। प्रेम धवन ने दो साल बाद, 1957 में आयी फिल्म नया दौर के लिए भी गीत लिखे। इस फिल्म में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया गीत "उड़े जब जब जुल्फें तेरी/ कुवांरियों का दिल मचले" ऐसा मशहूर हुआ कि उस दौर के बांके जवान सच में जुल्फें रख कर घूमने लगे थे, इस आस में कि कोई उनके लिए भी कभी ये गीत गाये।  इस गाने में प्रेम धवन साहब ने कोरियोग्राफी भी की थी। 

प्रेम धवन के करियर के लिहाज़ से साल 1961 और 1965 बहुत विशेष रहे। साल 1961 में आयी फिल्म काबुलीवाला के लिए "ए मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान" गीत पूरे देश की जुबान पर चढ़ गया। लोग इसे गाते और अनायास ही उनकी आँखों में आंसू आ जाते। प्रेम धवन ने वतन की माटी के लिए उठती हुई हूक को गीत कर दिया था, इसीलिए ये गीत सीधा दिल पर टकराता था, आज भी जब इसे सुनो तो ये एक अज़ब सी खनक के साथ दिल पर जा कर लगता है। इसी साल फिल्म "हम हिंदुस्तानी" आयी जिसमे प्रेम साहब ने गीत लिखा "छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी/ नए दौर में लिखेंगे, मिल कर नई कहानी" ये गीत मानो आज़ाद भारत के स्वपन और संकल्प का मिश्रित रूप था। ये गीत उस दौर के भारत की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्वप्न की अभिवक्ति बन कर उभरा। 

साल 1965 में मनोज कुमार ने प्रेम धवन को शहीद फिल्म का एक तरीके से कर्णधार ही बना दिया। भगत सिंह के जीवन पर आधारित इस फिल्म में प्रेम साहब न सिर्फ गीत लिखे बल्कि संगीत और नृत्य निर्देशन भी किया। इस फिल्म का "जट्टा पगड़ी संभल" , ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी क़सम और मेरा रंग दे बसंती चोला, आज भी देश प्रेम की अभिवक्ति के सशक्त माध्यम हैं। इनको सुन कर आज भी दिल देश भक्ति के ज़ज़्बे से भर जाता है। इसके अलावा इसी फिल्म का एक गीत "जोगी, हम तो लुट गये तेरे प्यार में... "  गज़ब का लोकप्रिय हुआ था। इसकी असर और उम्र का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि  उत्तर प्रदेश में योगी आदित्य नाथ की सरकार बनी तो ज्यादातर समाचार चैनलों और सोशल मीडिया पर ये गीत खूब बजाया गया। इस फिल्म के अलावा भी प्रेम धवन साहब ने रात के अंधेरे में (1969), पवित्र पापी (1970), मेरा धरम, मेरा देश (1973) जैसी कई और फिल्मों के लिए संगीत निर्देशन किया। प्रेम धवन साहब ने आरज़ू (1950), दो बीघा जमीन (1953), नया दौर (1957), सहारा (1958 ), वक़्त (1965) जैसी फिल्मों के लिए कोरियोग्राफी भी की। साल 1970 में भारत सरकार ने प्रेम धवन को फिल्मों में उनके योगदान के लिए भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से समान्नित किया। प्रेम धवन ने अपने करियर में लगभग 300 फिल्मों के लिए गीत लिखे और 50 से ज्यादा फ़िल्मो में संगीत भी दिया। अपने करियर के दूसरे हिस्से में जब "किसान और भगवान"  (1974), फ़र्ज़ और कानून (1978), क्वाजा अहमद अब्बास की नक्सलाइट्स (1980), गंगा मांग रही बलिदान (1981) जैसी फिल्मों में प्रेम धवन कुछ ख़ास नहीं कर पाए और उनके संगीत और गीत उस ऊंचाई पर नहीं दिखे तो उन्होंने धीरे धीरे फिल्मों से किनारा कर लिया और अपना सारा समय पढ़ने लिखने और इप्टा की गतिविधियों में लगाने लगे। लगभग चार दशकों तक भारतीय मानस के अंतर को आवाज़ देने वाला ये जीवंत गीतकार 07 मई 2001 को मृत्यु की सैया पर चिर निद्रा में सो गया, पर आज भी इस महान गीतकार के गीत भारतीयों के ह्रदय में जाग रहे हैं। फ़िल्मी गीत को लोक चेतना का स्वर देकर अमर कर देने वाले इस गीतकार का नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। जब जब हम भारतीय लोक की चेतना को खंगालेंगे, प्रेम धवन का चमकता हुआ नाम हमें वहाँ मिलेगा।  

अनुराग अनंत  

       

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