दिल्ली
विश्वविद्यालय की वो लड़की जो अचानक मशहूर हो गयी थी। जिसके विषय में नेता से लेकर
अभिनेता तक और खिलाड़ी से लेकर अनाड़ी तक आपस में लड़ रहे थे। दिल्ली छोड़ कर जालंधर
वापस चली गयी है। उसने अपना फेसबुक प्रोफ़ाइल भी डीएक्टिवेट कर दिया है। जी हाँ "गुरमेहर कौर" की बात कर रहा हूँ। जिसकी
गलती थी कि वो सोचती थी और बोलती भी थी। क्योंकि उसे लगता था कुछ नहीं सोचने और
कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है। और वो बिना कुछ किए मरना नहीं चाहती थी।
उसने एक लंबा दौर नफरत और घृणा से लड़ते हुए गुज़ारा था इसलिए वो प्रेम
और शांति के कुछ अलग अर्थ समझती थी और शायद हम सब से वही अर्थ साझा कर
रही थी। पर हम लोग जिस समय में जी रहे है वो शायद किसी शतरंज की बिसात पर बिछता जा रहा है। और पूरा समाज काले सफ़ेद घरों में बंटा हुआ दिख रहा है। जिनके पास ताकत
है, सत्ता है
या फिर जो लोग ताकत और सत्ता के साथ हैं, वो खुद
को सफ़ेद घरों में खड़ा हुआ महसूस करते हैं। बिलकुल स्वच्छ, पाक, साफ़। उनसे इतर जो लोग
है किसी भी राजनितिक विचार और सोच के, सभी काले घरों में हैं। बहके हुए, प्रदूषित दिमाग के लोग। जो देश के खिलाफ हैं। धर्म के खिलाफ हैं और जिन्हें फेसबुक ट्विटर से लेकर सड़कों और कैम्पसों तक मारा जाना चाहिए। इसीलिए काले घर में
खड़ी हुई गुरमेहर कौर को स्वच्छ, पाक, साफ़
लोगों ने गलियां दीं, धमकियाँ
दीं और उसे जताया कि वो लड़की है और उसका बलात्कार भी किया जा सकता है। सरकार के मंत्रियों ने उसे बहका हुआ, संक्रमित और प्रदूषित दमाग की देशविरोधी लड़की तक कह दिया। एक
माननीय नेता जी ने कहा कि गुरमेहर ने अपने शहीद पिता की शहादत
पर राजनीति करने की कोशिश की है और उन्हें शर्मिदा किया है।
माननीय बताना चाहते हैं कि शहीदों और सैनिकों पर अब उनके
बच्चों का भी कोई अधिकार नहीं बचा है और इसलिए वो अपने
पिता के विषय में बात नहीं कर सकते। पर सरकार चाहे तो सेना और
सैनिकों की उपलब्धि को अपनी उपलब्धि बता सकती है। अपनी योजनाओं को सही ठहराने के
लिए उनके नाम का सहारा ले सकती है और तर्क ख़तम हो जाने पर सेना को ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकती है। ये राजनीति नहीं है, राष्ट्रसेवा है और एक बेटी का अपने पिता को याद करना
राजनीति है।
गुरमेहर कौर को जिस बात पर ट्रोल किया गया। वो लगभग उसने
एक साल पहले कही थी। तो ऐसा उसने अभी क्या कह दिया जो उसकी एक साल पुरानी बात पर आज ट्रोलिंग की जा रही है।
दरअसल उसने दिल्ली विश्यविद्यालय में हुई हिंसा के खिलाफ ABVP का
प्रतिवाद करते हुए। ABVP से न
डरने की बात कही थी। ये बात उन लोगों को शायद बुरी लगी, जो चाहते हैं लोग ABVP से डरें।
इसलिए उन्होंने एक साल पुराना वीडियो निकाला, जिसमे गुरमेहर हांथो में तख्तियां लेकर उनपे लिखे
संदेशों के माध्यम से बिना कुछ बोले एक बहुत बड़ी बात बोल रहीं थीं। बड़ी बातें हमेशा सम्पूर्ण सन्दर्भों में समझी जाती हैं। इसलिए उन लोगों ने उस
पूरे वीडयो से एक हिस्सा निकाल लिया और तथ्य को सन्दर्भ से काट दिया। उसके बाद लोग जुड़ते गए और तर्क, वितर्क और कुतर्क का कारवां बनता चला गया, और बात
गुरमेहर की हत्या और बलात्कार की धमकियों तक पहुँच गयी। दिल्ली पुलिस
इस बीच गुरमेहर को उसकी सुरक्षा का विस्वास दिलाने में असमर्थ रही और इसतरह
दिल्ली में ही दिल्ली हार गयी। संविधान में दी गयी, अपनी बात कहने की गारंटी की
गारंटी जिन्हें लेना था वो चुनावी मंचो से नारियल और पाइन एपल के रस पर
विमर्श करते रहे। और एक भीड़ मौका पाते ही गुरमेहर पर फेसबुक से लेकर ट्विटर तक भेड़ियों की तरह टूट पड़ी।
तो क्या वाकई गुरमेहर ने कोई ऐसी बेजा बात कह दी थी जो आज से पहले
भारत में नहीं कही गयी थी ? सवाल एक
और भी है, जो सरकार पूछ रही है कि गुरमेहर किससे प्रभावित हो कर ऐसी बहकी बहकी
बातें कर रही है ? कौन है
जो उसका दिमाग प्रदूषित कर रहा है ? तो हम थोड़ा अगर अपने इतिहास की तरफ देखें तो हमें
पता चलता है कि गुरमेहर की आवाज में हमारी सांस्कृतिक विरासत प्रतिध्वनित होती हुई
दिखती है। वो गौतम से लेकर गांधी तक की समझ को साझा करती हुई पायी जाती है।
गुरमेहर ने कहा कि उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं बल्कि युद्ध ने मारा है। ये बात अशोक भी कलिंग के युद्ध क्षेत्र में लाशों के बीच खड़े हुए महसूस करते हैं। और खुद से पूछते है क्या ये मेरे निजी दुश्मन थे ? क्या मैंने ही इन्हें मारा ? और उत्तर में उन्हें जवाब मिलता है, मेरी महत्वाकांक्षा ने इन्हें मारा है। राजसत्ता ने इन्हें मारा है। और वो राजसत्ता और महत्वाकांक्षा का त्याग करते हुए बौद्ध भिक्षु बन जाते हैं। जब गौतम बुद्ध अंगुलिमाल डाकू से अकेले मिलते है तो उन्हें इस बात का विशवास होता है कि ये व्यक्ति हत्यारा नहीं है। हत्यारी इसकी मानसकिता है। इसलिए वो उसे बदल पाते हैं और एक डकैत के भीतर से एक परोपकारी भिक्षु निकलता है। जब गाँधी कहते हैं, घृणा व्यक्ति से नहीं उसकी बुराई से करनी चाहिए। जब वो कहते हैं, हिन्दू मुसलमान एक दूसरे को नहीं मार रहे हैं बल्कि एक उन्माद है जो इन दोनों को मार रहा है। और इसी विस्वास के साथ वो नोवाखली जाते हैं और दंगे रोक देते हैं। तो वो गुरमेहर वाली बात रह रहे होते हैं। भारतीय दार्शनिक इतिहास को उठा कर देखिएगा तो ऐसे सैकड़ो उदाहरण मिलेंगे जहाँ गुरमेहर के बयान की जड़ें हैं।
गुरमेहर ने गौतम से लेकर गांधी तक फैली हुई सैद्धान्तिक विरासत को एक बार फिर दार्शनिक रूप में दोहराया है। वो अगर प्रदूषित दिमाग की है तो उसके वैचारिक प्रदूषण का श्रोत गौतम से लेकर गांधी तक फैला हुआ है। तो क्या ये कहा जा सकता है कि जो लोग गुरमेहर की बात नहीं समझ पा रहे हैं और उसकी बेहद सतही व्याख्या कर रहे हैं। वो हमारी मूल भारतीय दार्शनिक परिपाटी से कटे हुए लोग हैं। या फिर ये कहें कि वे बेहद धूर्त किसम के लोग हैं। वो एक नया भारत बनाना चाहते हैं जिससे गौतम और गाँधी खारिज़ हैं। जहाँ व्यवहारिक और सतही समझ के इतर सैद्धान्तिक और दार्शनिक बहसों के लिए कोई जगह नहीं होगी। जहाँ गाँधी और गौतम पैदा नहीं होंगे। जहाँ अंगुलिमाल को डाकू से इंसान नहीं बनाया जायेगा। जहाँ नोवखली जैसे भीषण दंगे नहीं रोके जायेंगे। जहाँ एक थोपी हुई परिभाषा के इतर कुछ नहीं कहा जा सकेगा। अगर हम ऐसा नया भारत बनाने वाले हैं। तो ये भारत के प्रति अक्षम्य अपराध कर रहे हैं। आज समय के इस मुहाने पर गुरमेहर के साथ खड़े होना गांधी के साथ खड़े होने जैसा है। गुरमेहर के लिए आवाज़ बुलंद करना गांधी की आवाज़ को बुलंद करना है।
अनुराग अनंत
No comments:
Post a Comment