विकास आज की राजनीतिक शब्दकोष का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द बन गया है. एक ऐसा शब्द है जिसका कोई अपना स्वतंत्र अर्थ नहीं होता. सापेक्षिक अर्थों वाला ये शब्द हमें आकर्षित करता है और हम इसके बहुआयामी अर्थ के किसी एक आयाम में फँस जाते हैं. आज कहने को तो देश का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है. देश के युवा कह रहे हैं, इसबार विकास के मुद्दे पर वोट करेंगे. मोदी, राहुल, जयललिता, ममता, नितीश, और अखिलेश यादव सभी के अपने-अपने विकास के मॉडल है और अपनी-अपनी विकास की परिभाषा भी.
विकास के इस सतरंगी समंदर से हमने अपनी पसंद का कोई रंग चुन लिया है और खुद में खुश है. मध्यम वर्ग चमचमाती सड़कों, कंक्रीट के जंगलों और बहुदेशीय कंपनियों में रोजगार के अवसरों का सपना देख रहा है तो गरीब के लिए अभी भी दो वक्त की रोटी, सर पर छत और तन पर कपड़े ही विकास है. अमीरों के लिए खनिजों की खुली लूट, किसानों को जमीन से बेदखल कर कारखानों का निर्माण और अंधी आर्थिक दौड़ में अव्वल रहने के लिए खुले बाज़ार की आक्रामक नीति ही विकास का पर्याय है.
विकास की इन उलझी हुई परिभषा से एक सुलझी हुई समझ बना पाना मुश्किल है. सबका अपना अलग-अलग विकास है पर सबके अलग अलग विकास से तो देश का सामूहिक विकास हो नहीं सकता. इसके लिए सबसे पहले सामूहिक और समावेशी विकास की परिभाषा गढ़नी होगी. जिसके लिए विकास पर वृहद, चर्चा, बहस और विमर्श चलाना पड़ेगा. लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है, जनता के हांथों में विकास का लॉलीपॉप थमा दिया गया है और जनता उसी में व्यस्त है. सत्ता या यूं कहें राजनीति और पूंजीवाद का गठजोड़ विकास के मुद्दे पर खुली और व्यापक बहस नहीं चाहता क्योंकि इससे उसके निहित स्वार्थ और विस्तार की संभावनाओं पर चोट पहुंचेगी.
नेताओं के भाषणों में खींचा जाने वाला विकास का सतरंगी चित्र जमीनी सच्चाइयों से बिलकुल मेल नहीं खाता. विकास के जुमले यथार्थ की धरातल पर लाचार से दीखते है और विकास के नाम पर बाँधा गया पुल बहुत ही खोखला जान पड़ता है. जिस देश में अभी भी अस्सी प्रतिशत लोग रोटी की लड़ाई लड़ते हों. लगभग 2000 लोग प्रतिवर्ष गरीबी और भूख के चलते अपनी किडनी बेचने पर मजबूर हों. जहाँ गंदे नालों का अस्सी प्रतिशत पानी बिना किसी उपचार के नदियों व जल के मुख्य श्रोत में डाल दिए जाते हों और फिर देश के बहुत सारे हिस्सों में वही पानी पिया जाता हो और लाखों लोग बिमारियों से मौत के शिकार हो जाते हों. केंद्रीय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट 2011, के अनुसार देश में 8000 शहरों में से केवल 160 शहरों में गंदे पानी की निकासी के लिए उपचार केंद्र है बाकी सारे शहर गन्दा पानी नदियों में बिना किसी उपचार के ही डाल रहे हैं. जिससे जैविक जीवन और प्राकृतिक संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
हमारे देश में प्रतिवर्ष 2.1 करोड़ टन गेहूं भण्डारण की व्यवस्था न होने से खराब हों जाता है. जितना गेहूं हमारे यहाँ सड़ जाता है उतना आस्ट्रेलिया जैसे देश साल भर में पैदा कर पाते है. देश में पैदा किया जाने वाला लगभग 40% फल और सब्जियां हर साल भण्डारण की व्यवस्था न होने की वजह से सड़ कर खराब हों जातें हैं. हमारे देश का किसान खेतों में खून जला कर ये पैदावार करता है. पर देश की राजनीति की विकास की अलग परिभाषाएं और प्राथमिकताएं होने की वजह से उसका खून और पसीना, उसकी मेहनत सड़ कर खराब हो जाती है और देश का गरीब आदमी भूख से बचने के लिए किडनियां बेचता हुआ पाया जाता है.
विश्व स्वास्थ संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जितने लोग भारत में प्रतिवर्ष सड़क दुर्घटना में मरते हैं उतने और किसी देश में नहीं मरते. प्रति एक लाख व्यक्तियों में 19 की मौत की वजह सड़क दुर्घटना होती है. ये आंकडें बताते हैं कि देश में सड़क परिवहन की क्या तस्वीर है.
देश में आज लगभग 3 करोड़ लंबित मुक़दमे विभिन्न अदालतों में पड़े हैं. जिसमे से 40 लाख मुक़दमे देश की उच्च न्यायालयों में और लगभग 66 हज़ार मुक़दमे सर्वोच्च न्यायलय में लंबित पड़े हैं. देश में 19 हज़ार जजों की तत्काल आवश्यकता है पर निकट भविष्य में नियुक्ति होती नहीं दिख रही है. अपराधी अपराध करता है, लचर न्याय व्यवस्था उसे छोड़ देती है और भ्रष्ट राजनीति उसे शरण देकर नीति नियंता बना देती है, क्या यही है लोक तंत्र में न्याय की परिभाषा ? क्या यही है जनतंत्र में जनता की नियति ?
विकास की चमकती परिभाषाओं की नहीं भारत को जमीनी काम की जरूरत है. विकास के जुमलों के बीच ये मुद्दे कहीं नहीं दीखते. राजनेता और राजनीती पार्टियां न जमीन की बात करतीं हैं न जमीन के लोगों की. विकास के हवाई किले चुनाव में बनाये जाते है जो चुनाव के बाद धराशाही हो जाते हैं और जनता जमीन की जमीन में ही रह जाती है. इसलिए हमें विकास का भारतीय संस्करण और सन्दर्भ गढना होगा. हमें बहुत बेबाकी से जनविकास की परिभाषा राजनीतिक विकास के बरक्स रखनी होगी और राजनीति को जननीति बंनाने के लिए संघर्ष करना होगा. हमें विकास के जुमले में यथार्थ के अर्थ तलाशने होंगे. शिक्षा, स्वास्थ, सुरक्षा, न्याय, परिवहन, भण्डारण और रोजगार वो यथार्थ के पैमाने हैं. जिनपर खरा उतरने के बाद ही कोई और विकास और उसके पैमानों की बात की जानी चाहिए. भारतीय जनता को इस बात को समझना होगा और एक समावेशी विकास की अवधारणा गढ़नी होगी.
अनुराग अनंत
यह लेख जनसत्ता दैनिक के राष्ट्रीय संस्करण में भी प्रकाशित है लिंक हवाई विकास (तिथि 1 may 2014)
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