सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा की बात कि यदि रेप न रोक सको तो उसका आनंद लो शायद प्रतापगढ़ लालगंज को वो लड़की नहीं सुन सकी होगी जो बलात्कार का विरोध करते हुए जिन्दा जला दी गयी. खुद पर हो रही ज्यादती का आनंद कैसे लेना है उसे नहीं आता था. उसे नहीं मालूम था कि बलात्कार का भी आनंद लिया जा सकता है. नहीं तो वो लड़ते हुए जलना न स्वीकार करती बल्कि उस आनंद का पान करती जिसका जिक्र रंजीत सिन्हा साहब कर रहे थे. देश की इतनी बड़ी संवैधानिक संस्था का मुखिया कह रहा है तो जरूर कोई नुख्सा होगा जिससे बलात्कार का भी मजा लिया जा सकता हो.
प्रतापगढ़ के लालगंज में मानवता को शर्मसार करने वाली एक घटना फिर सामने आई है. इंटरमीडिएट की एक छात्रा, दो छोटे भाइयों के साथ अपने घर में अकेली थी. उसके माँ-बाप किसी काम से दिल्ली गए हुए थे. तभी एक मनचला उसके घर में घुस आया और उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश करने लगा पर विरोध के चलते नाकाम होने पर उसने लड़की को आग के हवाले कर दिया. इन सबके बीच मासूम छोटे भाई रोते रहे, और अपराधी अपराध कर के भाग निकला. दिसंबर में दामिनी बलात्कार कांड पर खाई गयी सारी कसमें समय के साथ इतनी जल्दी धुल जाएँगी. समाज की संवेदना और चेतना इतनी जल्दी कुंठित हो जायेगी. इसका कोई अंदाजा नहीं था. " एक अकेली लड़की को खुली तिजोरी समझने वाले इस समाज में एक लड़की को हमेशा ये लगता रहा है कि वो एक वस्तु है और उसे कोई भी कभी भी चट कर सकता है, लूट सकता है, उस पर डाका डाल सकता है.
यहाँ कभी कोई सिरफिरा आशिक चेहरे पर तेजाब फेंक देता है तो कभी कोई मनचला घर में घुस कर बलात्कार करता है और नाकाम होने पर जिन्दा जला देता है. कभी भाई-बाप इज्जत के नाम पर मौत के घाट उतार देते है तो कभी पति और प्रेमी शक की बिनाह पर हत्या कर देते है. माँ-बाप के घर की कैद से ले कर सास-ससुर के घर की काल कोठरी तक सब कुछ एक जैसा ही तो है औरतों के लिए. हम औरत के बदन के भूगोल में उलझे हुए लोग उसके दर्द के इतिहास के बारे में कभी नहीं जान सकते. क्योंकि हम अभी भी उसके बदन से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं. चाहे हम अपनी बहन की बात कर रहे हो या प्रेमिका की. उसका बदन ही हमारी बात के केंद्र में रहता है. बहन की रक्षा से लेकर राह चलती किस लड़की को छेड़ने तक उसका शरीर ही मुद्दा रहता है. खुद का शरीर भी कभी कभी महिलाओं को एक कैदखाना लगने लगता होगा.
खैर हम उनकी पीढा कैसे समझ सकते है हम तो पित्रसत्तात्मक समाज के लोग है. जहाँ लड़के के पैदा होने पर थाल बजाकर मिठाइयां बांटी जातीं हैं और लड़की पैदा होने पर माँ को गाली दी जाती है. हम रंजीत सिन्हा की मानसिकता वाले समाज के हैं. जहाँ महिलाओं को बलात्कार में आनंद तलाशने की नसीहत दी जाती है. ये देश औरत की आज़ादी और सुरक्षा के लिए जब दिल्ली की सड़कों पर कानून बनाने की मांग कर रहा था ठीक उसी समय सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर जज अपनी पोती की उम्र की मातहत का शारीरिक शोषण कर रहा था. एक अध्यात्मिक गुरु लड़कियों को बलात्कारियों को भाई कह कर पुकारने की सीख दे रहा था और देश के राष्ट्रपति का बेटा आज़ादी की मांग करती औरतों-लड़कियों को " डेंटेड-पेंटेड औरतें" कह रहा था. कितने बार बेपर्दा होगा व्यवस्था का चेहरा, कितनी बार साफ़ जताया जायेगा की ये व्यवस्था औरतों को मर्द के बराबर अभी नहीं मानती है. शरीर अभी भी औरत की आज़ादी की राह में रोड़ा है. बाहर पढाई के लिए जाना हो या फिर काम के लिए ये शरीर जाने से रोकता है. माँ-बाप, भाई, समाज सब को इस शरीर की ही चिंता हैं. औरत की और उसके दिल की फिकर कौन करता है ? कौन ये समझता है कि उसके भीतर भी एक दिल है. जिसमे अरमान है. उसके पास भी आखें हैं. जिसमे सैकड़ों सपने हैं.
अब औरत को खुद ही देह की ज्यामिति से बहार अपना संसार गढ़ना होगा. इस नए संसार को गढ़ने के लिए कई बगावते करनी होगी. कई शहादतें देनी होगी. कई आसरामों, रंजीत सिन्हानों और अभिजीत मुखार्जियों से लड़ना होगा. समाज अपने हक में बदलना होगा.
अनुराग अनंत
खबर की लिंक
http://www.amarujala.com/news/crime-bureau/rape-attempt-burnt-alive-victim-uttar-pradesh/
खैर हम उनकी पीढा कैसे समझ सकते है हम तो पित्रसत्तात्मक समाज के लोग है. जहाँ लड़के के पैदा होने पर थाल बजाकर मिठाइयां बांटी जातीं हैं और लड़की पैदा होने पर माँ को गाली दी जाती है. हम रंजीत सिन्हा की मानसिकता वाले समाज के हैं. जहाँ महिलाओं को बलात्कार में आनंद तलाशने की नसीहत दी जाती है. ये देश औरत की आज़ादी और सुरक्षा के लिए जब दिल्ली की सड़कों पर कानून बनाने की मांग कर रहा था ठीक उसी समय सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर जज अपनी पोती की उम्र की मातहत का शारीरिक शोषण कर रहा था. एक अध्यात्मिक गुरु लड़कियों को बलात्कारियों को भाई कह कर पुकारने की सीख दे रहा था और देश के राष्ट्रपति का बेटा आज़ादी की मांग करती औरतों-लड़कियों को " डेंटेड-पेंटेड औरतें" कह रहा था. कितने बार बेपर्दा होगा व्यवस्था का चेहरा, कितनी बार साफ़ जताया जायेगा की ये व्यवस्था औरतों को मर्द के बराबर अभी नहीं मानती है. शरीर अभी भी औरत की आज़ादी की राह में रोड़ा है. बाहर पढाई के लिए जाना हो या फिर काम के लिए ये शरीर जाने से रोकता है. माँ-बाप, भाई, समाज सब को इस शरीर की ही चिंता हैं. औरत की और उसके दिल की फिकर कौन करता है ? कौन ये समझता है कि उसके भीतर भी एक दिल है. जिसमे अरमान है. उसके पास भी आखें हैं. जिसमे सैकड़ों सपने हैं.
अब औरत को खुद ही देह की ज्यामिति से बहार अपना संसार गढ़ना होगा. इस नए संसार को गढ़ने के लिए कई बगावते करनी होगी. कई शहादतें देनी होगी. कई आसरामों, रंजीत सिन्हानों और अभिजीत मुखार्जियों से लड़ना होगा. समाज अपने हक में बदलना होगा.
अनुराग अनंत
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