एक बेख़ौफ़ लड़की जिसकी आँखों में गुस्से का शैलाब तैर रहा हो, कलाइयों में खनकती हुई चूड़ियों की जगह चमकती रिवाल्वर हो और होठों पर मखमली मुस्कान की जगह एक शक्ति भरी ललकार ने ले रखी हो, आपके हिन्दुस्तानी मन को चौंका सकती है. आपके इस आश्चर्य का पैमाना तब और भी बढ़ सकता है जब उस लड़की की आड़ में एक हट्टा-कट्टा नवजवान छिप कर शरण ले रहा हो. फिल्म इश्क्ज़ादे के एक पोस्टर में मैंने जब ये तस्वीर देखी जिसमे परणीती चोपड़ा के आड़ में अर्जुन कपूर छिपते हुए दिखाए गए हैं तो मेरे मन में एक अनजानी सी तसल्ली का भाव उठा, ये भाव क्यों आया मैं नहीं जनता बस इतना कह सकता हूँ कि किसी हिन्दुस्तानी लड़की को तस्वीर में ही सही पर इतनी बेख़ौफ़, बेबाक और इस तरह लड़ते हुए देख कर अजब संतोष मिला था. ये तस्वीर हिन्दुस्तानी लड़की की बरसो पुरानी गढ़ी-गढ़ाई छवि की हदें तोड़ रही थी और उस परिभाषा के एकदम उलट थी जिसमे लड़की को डरी-सहमी, सुशील,सुन्दर, संस्कारी, सहनशील और अपनी खुद की सुरक्षा के लिए भी मर्दों की मोहताज बताया गया है.ये तस्वीर उस देश में आशा की किरण सी लगी थी जिस देश में हर 47 मिनट के बाद एक बलात्कार होता हो, हर 44 मिनट के बाद एक महिला का अपहरण होता हो, 60 % कामकाजी महिलाएं किसी न किसी तरह यौन शोषण का शिकार होती हो, लगभग 30 हज़ार बच्चियां वस्यावृति की गिरफ्त में हों. जहाँ स्कूल-कालेज, बस-ट्रेन, गली-सड़क, गाँव-शहर यहाँ तक ही घर में भी महिलाएं असुरक्षा के भाव से ग्रस्त हों, जहाँ सत्ता के गलियारों से लेकर खेत-खलिहानों तक महिलाओं के शोषण की दर्द भरी कहानी फैली हो. जहाँ औरत महज एक जिस्म हो और स्त्री-विमर्श देह से शुरू हो कर देह पर ही ख़तम हो जाता हो. जहाँ औरत को देवी कह कर शोषण किया जाता हो और हर तरह के बलिदान के लिए हंस कर तैयार रहने को विवश किया जाता हो, वहां किसी महिला की ऐसी तस्वीर चौंकाती भी है और तसल्ली भी देती है जिसमे वो अपनी सुरक्षा के लिए किसी मर्द की मोहताज़ नहीं है बल्कि किसी मर्द को भी सुरक्षा देने का माद्दा रखती है और ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए तैयार है.
हमारी सोसाइटी में वूमेन आइडेन्टिटी को लेकर काफी कंट्राडिक्शन है. एक तरफ हम उसे शक्तिस्वरूपा कहते हुए पूजते है तो दूसरी तरफ हम उसे उसके अबलापन और कमजोरी का एहसास कराते हुए उसकी बेहतरी के लिए चारदीवारी के भीतर अपना संसार तलाशने और गढ़ने की नसीहत देते है.पर इसके बाद भी अगर कोई औरत आजादी के एहसास को जीने के लिए अपने वजूद को तलाशते हुए समाज में आती है तो उसे हमारे उसी सभ्य समाज में बलात्कार और शोषण का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में व्याप्त ये विरोधाभाष और स्त्रियों को कम समझने का नजरिया हमारे विकास का सबसे बड़ा बाधक है
हम अक्सर इतिहास के उन पन्नो को नजरअंदाज कर देते है जिनमे स्त्रियों के साहस, संघर्ष और शौर्य की गाथा लिखी है. मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर को देख कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उन वीरांगनाओं की याद आ गयी जिन्होंने घर की दहलीज लांघ कर फिरंगियों के दांत खट्टे कर दिए थे और जिनके कंगनों की खनक तलवार की झंकार में बदल गयी थी. ये मेरठ की सभ्य समाज से निष्कासित कोठे वाली नर्तककियां ही थीं जिन्होंने हिन्दुस्तानी फौजियों को ताने मार कर देश के लिए लड़ने को प्रेरित किया था. 1857 के महासंग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, अवन्ती बाई,जीनत महल, बेगम हजरत महल, जैसी मुख्यधारा की कुलीन महिलाओं के अलावा भगवती देवी, इन्दर कौर, जमीला बाई, उदा पासी, आशा देवी, बख्तावारी देवी, जैसी पिछड़ी और दलित महिलाएं भी हथियार उठा कर देश के लिए लड़ रही थी. 12 मई को प्रबुद्धनगर में बख्तावारी देवी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं उन्होंने कैराना की महिलाओं का एक जत्था बना रखा था .आशा देवी भी इन्ही क्रांतिकारी महिलाओं में शामिल थी. बख्तावारी देवी और आशा देवी ने अपनी महिला सेना के साथ शामली तहसील पर धावा बोल दिया जहाँ शोभा देवी ने पहले से ही महिलाओं की एक सेना बना रखी थी जिसमे करीब 250 महिलाएं शामिल थीं ये सभी महिलाये अंग्रेजों से खूब लड़ीं और अपने अप्रतिम शौर्य की अमिट गाथा कह गयी. इस विद्रोह की सजा के तौर पर लगभग 250 महिलाओं को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. असगरी बेगम को जिन्दा जला दिया गया और शोभा त्यागी को आधा जमीन में गाड़ कर कुत्तों से नुचवाया गया. इससे कहीं बड़ी,गहरी और गाढ़ी जुल्म की दास्तान लिखी गयी पर हिन्दुस्तानी महिलाएं न डिगीं और न ही टूटीं बल्कि संघर्ष की राह पर देश की रक्षा के लिए बलिदान हो गयी.
हमारी सोसाइटी में वूमेन आइडेन्टिटी को लेकर काफी कंट्राडिक्शन है. एक तरफ हम उसे शक्तिस्वरूपा कहते हुए पूजते है तो दूसरी तरफ हम उसे उसके अबलापन और कमजोरी का एहसास कराते हुए उसकी बेहतरी के लिए चारदीवारी के भीतर अपना संसार तलाशने और गढ़ने की नसीहत देते है.पर इसके बाद भी अगर कोई औरत आजादी के एहसास को जीने के लिए अपने वजूद को तलाशते हुए समाज में आती है तो उसे हमारे उसी सभ्य समाज में बलात्कार और शोषण का सामना करना पड़ता है. हमारे समाज में व्याप्त ये विरोधाभाष और स्त्रियों को कम समझने का नजरिया हमारे विकास का सबसे बड़ा बाधक है
हम अक्सर इतिहास के उन पन्नो को नजरअंदाज कर देते है जिनमे स्त्रियों के साहस, संघर्ष और शौर्य की गाथा लिखी है. मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर को देख कर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उन वीरांगनाओं की याद आ गयी जिन्होंने घर की दहलीज लांघ कर फिरंगियों के दांत खट्टे कर दिए थे और जिनके कंगनों की खनक तलवार की झंकार में बदल गयी थी. ये मेरठ की सभ्य समाज से निष्कासित कोठे वाली नर्तककियां ही थीं जिन्होंने हिन्दुस्तानी फौजियों को ताने मार कर देश के लिए लड़ने को प्रेरित किया था. 1857 के महासंग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, अवन्ती बाई,जीनत महल, बेगम हजरत महल, जैसी मुख्यधारा की कुलीन महिलाओं के अलावा भगवती देवी, इन्दर कौर, जमीला बाई, उदा पासी, आशा देवी, बख्तावारी देवी, जैसी पिछड़ी और दलित महिलाएं भी हथियार उठा कर देश के लिए लड़ रही थी. 12 मई को प्रबुद्धनगर में बख्तावारी देवी अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं उन्होंने कैराना की महिलाओं का एक जत्था बना रखा था .आशा देवी भी इन्ही क्रांतिकारी महिलाओं में शामिल थी. बख्तावारी देवी और आशा देवी ने अपनी महिला सेना के साथ शामली तहसील पर धावा बोल दिया जहाँ शोभा देवी ने पहले से ही महिलाओं की एक सेना बना रखी थी जिसमे करीब 250 महिलाएं शामिल थीं ये सभी महिलाये अंग्रेजों से खूब लड़ीं और अपने अप्रतिम शौर्य की अमिट गाथा कह गयी. इस विद्रोह की सजा के तौर पर लगभग 250 महिलाओं को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया. असगरी बेगम को जिन्दा जला दिया गया और शोभा त्यागी को आधा जमीन में गाड़ कर कुत्तों से नुचवाया गया. इससे कहीं बड़ी,गहरी और गाढ़ी जुल्म की दास्तान लिखी गयी पर हिन्दुस्तानी महिलाएं न डिगीं और न ही टूटीं बल्कि संघर्ष की राह पर देश की रक्षा के लिए बलिदान हो गयी.
पित्रसत्तात्मक समाज महिलाओं के योगदान को कम करके आंकता या नजरअंदाज करता है पर अफ़सोस तो तब होता है जब खुद वूमेन कमुनिटी अपने इस स्वर्णिम साहस, संघर्ष और शौर्य के इतिहास से कटी हुई पायी जाती है आज जरूरत है कि देश की लड़कियां उन लाखों शहीद विरंगानायों से प्रेरणा ले जो अपनी सुरक्षा के लिए किसी मर्द के कन्धों की मोहताज नहीं थीं बल्कि सारे देश की रक्षा के लिए संघर्ष करते हुए शहीद हुईं थीं.
मुझे इश्क्जादे फिल्म के उस पोस्टर में अतीत के सहस से प्रेरणा लेती हुई भविष्य की उस हिन्दुस्तानी लड़की की झलक मिली थी जो शोषण से बड़ी संघर्ष की लकीर खींचने पर यकीन रखती है.
तुम्हारा--अनंत
1 comment:
कल 12/06/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
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