वो
जो गीत लिखते
थे, उसके बोल
लोगों की जुबान
चढ़ कर मुहावरों
में बदल जाते
थे। उनके फ़िल्मी
गीत हमारी भाषा
का अकार बढ़ाते
थे और हमारे
एहसासों को व्यक्त
करने का हमें
एक नया तरीका
दे जाते थे।
याद करिए हमने
ना जाने कितनी
बार गुमसुम खड़े
किसी अपने को
"गुमसुम खड़े हो
जरूर कोई बात
है" कहते हुए
छेड़ा होगा। जब
हमारे बीच की
कोई लड़की ज्यादा
होशियारी करती हुई
पायी गयी तो
हमने उसके लिए
"एक चतुर नार
बड़ी होशियार" जुमला
प्रयोग किया होगा।
हमने अपने किसी
ख़ास को इम्प्रेस
करने के लिए
"पल पल दिल
के पास तुम
रहती हो" वाला
स्टेटमेंट भी चिपकाया
होगा। ये सभी
पंक्तियाँ फ़िल्मी गीतकार राजेंद्र
कृष्ण के गीतों
के बोल हैं।
जो हमारी भाषा
का हिस्सा होकर
हमारे बीच मौजूद
हैं। गीतकार राजेंद्र
कृष्ण का जन्म 6 जून1919
को अविभाजित भारत
के जलालपुर जाटां
में हुआ था।
आज ये स्थान
पाकिस्तान में है।
पर राजेंद्र कृष्ण
के गीत भारत
में भी हैं
और पाकिस्तान में
भी, बल्कि विश्व
के हर उस
कोने में राजेंद्र
अपने गीतों के
शक्ल में मौजूद
हैं जहाँ हिंदी
बोली समझी जाती
है या फिर
हिंदी बोलने समझने
वाले लोग रहते
हैं।
राजेंद्र
कृष्ण का पूरा
नाम राजेंद्र कृष्ण
दुग्गल था। कविता
का कीड़ा बचपन
से काट गया
था इसलिए मन
बहुत कुछ कहना
चाहता था। डायरियों
के पन्नों पर
मन का उलझाव
दर्ज करते रहे
और कविता, शायरी,
ग़ज़ल जैसा कुछ
रचने लगे। साहित्य
ठीक से पढ़ा,
जब 1942 में शिमला
की म्युनसिपल कार्पोरेशन
में क्लर्क हो
गए। थोड़ी झिझक
मिटी जो अख़बारों
को कवितायेँ प्रकाशन
के लिए भेजने
लगे। धीरे धीरे
भीतर का कवि
आकार लेने लगा
था। पर अभी
भी वो विश्वास
नहीं था कि
छाती ठोंक कर
कह सकें "हाँ
ज़नाब शायर हूँ
मैं"। मंचों
पर भी कविता
पढ़ने जाने लगे
और वाहवाही वहाँ
भी मिली। पर
बात वैसी नहीं
थी जैसी राजेंद्र
चाहते थे। बात सन
1945-46 की है। उन
दिनों शिमला में
बहुत बड़ा मुशायरा
हुआ करता था।
जिसमे हिंदुस्तान (तब
बंटवारा नहीं हुआ
था ) के बड़े
शायर पूरे देश
से इकठ्ठा हुआ
करते थे। वहां
राजेंद्र साहब ने
अपनी पहली ग़ज़ल
पढ़ी और उस
पर कुछ ऐसी
दाद मिली की
राजेंद्र साहब के
दिल ने कह
दिया "यार तुम
पक्के वाले शायर
हो" जब राजेंद्र
साहब ग़ज़ल पढ़
चुके तो जिगर
मुरादाबादी मंच पर
पहुंचे। उनसे किसी
ने कहा "जनाब
आप इस नए
शायर के कुछ
गज़ब के शेर
सुनने से रह
गए"। जिगर
साहब साहब ने
नवजवान शायर से
फिर से शेर
सुनाने को कहा,
और जों ही
राजेंद्र साहब ने
मतला पेश किया
"कुछ इस तरह
वो मेरे पास
आये बैठे हैं,
जैसे आग से
दामन बचाए बैठे
हैं" इस मतले
को सुनकर जिगर
साहब से ऐसे
और इतनी देर
तक सर हिलाया
कि राजेंद्र साहब
ने तय कर
लिया कि अब
उन्हें नौकरी से इस्तीफा
दे देना है
और एक शायर
की ही ज़िन्दगी
जीनी है। राजेंद्र
कृष्ण दुग्गल ने
म्युनसिपल कार्पोरेशन के क्लर्क
की नौकरी से
इस्तीफा दे दिया
और लेखक "राजेंद्र
कृष्ण" मुंबई चले आये।
उनके ज़हन में
जिगर मुरादाबादी का
दाद में देर
तक हिलता हुआ
सर था। जो
हर वक़्त उनमे
आत्मविस्वास जगाता रहता था।
उन्हें कहीं भीतर
बहुत गहरे में
इस बात का
विस्वास था कि
जिगर साहब ने
मान लिया है
तो दुनिया भी
मान ही लेगी।
इस
बीच 1947 में
देश आज़ाद हुआ
और 1947 में उन्हें
पहली फिल्म "जनता"
पटकथा लिखने को
मिली। उसी साल
आयी किशोर शर्मा
निर्देशित फिल्म ज़ंज़ीर के
गीत भी लिखने
को मिले। राजेंद्र
कृष्ण साहब का
पहला मशहूर गीत
महात्मा गाँधी की हत्या
के बाद लिखा
गीत था। जिसके बोल थे
"सुनो सुनो ऐ
दिनियावालों बापू
की ये अमर
कहानी" ये गीत
गाँधी जी के
जीवन पर आधारित
गीत था। जिसे
बापू की हत्या
के बाद पूरे
देश ने करुण
स्वर में गया।
राजेंद्र कृष्ण ने भारत
के रुंधे हुए
गले को आवाज
दे दी थी।
पूरा भारत इस
गाने की ताल
पर रो पड़ा।
इस गीत के
बोल भारत के
हर आंगन में
गूंजे। इस तरह
ये पहला मौका
था जब राजेंद्र
कृष्ण ने भारत
की सामूहिक चेतना
को आवाज़ दी
थी। फिर इसके
बाद ऐसे मौके
आते रहे जब
देश राजेंद्र कृष्ण
के गीतों में
लहराया, डूबा उतराया।
1948 में बनी
फ़िल्म "प्यार
की जीत" का सुरैया
की आवाज़ में
गाया गया गीत
"तेरे नैनों ने चोरी
किया मेरा छोटा
सा जिया परदेसिया"
देश में किसी
लोक गीत की
तरह गया गया।
1949 में फिल्म आयी "बड़ी
बहन" जिसमे राजेंद्र कृष्ण
का मशहूर गीत
"चुप चुप खड़े
हो जरूर कोई
बात है, पहली
मुलाकात है, ये
पहली मुलाकात है"
लता मंगेशकर और
प्रेमलता की आवाज
में गाया गया।
इस गीत ने
उस समय के
युवाओं को दीवाना
कर दिया। गली,
नुक्कड़, चौराहों से लेकर
मंदिर और कोठों
तक ये गीत
गाया गया ।
कहीं इसे मूल
रूप में गाया
गया कहीं इसकी
पैरोडी बना कर
गाया गया। पूरा
देश राजेंद्र कृष्ण
की कलम के
मोहपाश में बंध
गया था। इस
गीत की सफलता
से खुश हो
कर फ़िल्म के
निर्माता-निर्देशक डी.डी.
कश्यप ने राजेंद्र
कृष्ण साहब को
ऑस्टिन कार इनाम
के रूप में
दी। ये कार
उस समय बड़े
बड़े लोगों के
पास नहीं हुआ
करती थी।
1951 में आयी
फ़िल्म बहार
का शमशाद बेगम
का गाया गया
गीत "सैंया दिल में
आना रे, ओ
आके फिर न
जाना रे, छम
छमाछम छम" इतना
मकबूल हुआ कि
उस समय की
महिलाएं और प्रेमिकाएं
अपने पति और
प्रेमी से इसी
गाने को गा
के मनुहार करतीं
थीं। आज भी
कहीं करतीं ही
होंगी। 1953 में फिल्म
अनारकली आयी जिसके
गीत भी राजेंद्र
कृष्ण ने लिखे।
गीतों ने लोकप्रियता
के नए कीर्तिमान
बनाये। इस
फ़िल्म में "जिंदगी
प्यार की दो-चार घड़ी
होती है, चाहे
छोटी भी हो,
ये उम्र बड़ी
होती है" जैसे
मशहूर और मार्मिक
गीत थे। इसी
साल फिल्म "लड़की"
सिलीज हुई जिसमे
एक से बढ़
कर एक गीत
थे "मेरे वतन
से अच्छा कोई
वतन नहीं है/
सारे जहां में
ऐसा कोई रतन
नहीं है" ये
गीत बहुत मशहूर
हुआ। हर देशभक्त
उस वक़्त इस
गीत को गाता
हुआ मिल जाता
था। नारी सशक्तिकरण
का एक गीत
इसी फिल्म में
था "मैं हूं
भारत की नार,
लड़ने मरने को
तैयार, मुझे समझो
ना कमजोर, लोगो
समझो ना कमजोर"
इस गीत को
जितने बल के
साथ राजेंद्र साहब
ने लिखा था,
उसी तेवर के
साथ लता जी
ने गाया भी
था। पूरे देश
में महिलाएं इस
गीत से अज़ब
सा तेज और
ओज प्राप्त करतीं
थीं। इस फिल्म
में एक और
अलहदा अंदाज़ का
गीत गज़ब का
मशहूर हुआ। गीत
लता मंगेशकर ने
ही गाया था
गीत के बोल
थे "तोड़के दुनिया की
दीवार/ बलमवा करले मुझसे
प्यार/ जो होगा
देखा जाएगा"
1954 में आयी
नागिन फिल्म का
गीत "मेरा मन
डोले, मेरा तन
डोले", "मेरा दिल
ये पुकारे" और
"जादूगर सैंया छोड़ो मोरी
बहिंयां हो गई
आधी रात, अब
घर जाने दो"
आज भी दिल
में बसा है
और हमारे पसंदीदा
गीतों में शुमार
है। फ़िल्म देख
कबीरा रोया (1957) का
गीत "कौन आया
मेरे मन के
द्वारे पायल की
झंकार लिए" और इसी
साल आयी फिल्म
गेट वे ऑफ़
इंडिया फिल्म का गीत
"सपने में सजन
से दो बातें
की एक याद
रही, एक भूल
गए " और भाभी
फिल्म का गीत
"चल उड़ जा
रे पंछी कि
अब ये देश
हुआ बेगाना" हिंदी गीतों
की मक़बूलियत की
मिसाल हैं। राजेंद्र
कृष्ण पूरे पचास
के दशक में
छाये रहे। 1961 में
आयी फ़िल्म संजोग
का गीत "वो
भूली दास्ताँ लो
फिर याद आयी"
और 1962 की फिल्म
मनमौजी का किशोर
कुमार की अल्हड़-खिलंदड़ अंदाज़ में
गाया गया गीत
"जरूरत है, जरूरत
है, जरुरत है, एक
श्रीमती की, कलावती
की, सेवा करे
जो पति की" आज भी
उतनी ही मस्ती
और चाव से
गाया जाता है
जितना उस दौर
में गाया जाता
था। ये गीत
समय के पाश
में नहीं बंधता
और समय के
साथ-साथ अमर
होता चला जा
रहा है।
राजेंद्र साहब ने
जहाँआरा (1964), नींद हमारी
ख्वाब तुम्हारे (1966) और
पड़ोसन (1968) के बेहतरीन
गीत लिखे। साठ
और सत्तर के
दशक में राजेंद्र
कृष्ण ने फिल्मों
की कहानी, संवाद
और पटकथा ज्यादा
लिखी और अपने
काम से सबको
चौकाते रहे। फिल्म
गोपी (1970) के लिए
लिखा गीत "सुख
के सब साथी
दुख का न
कोय" घर घर
में जीवन का
दर्शन बताने और
अपने से छोटों
को सिखाने-समझाने
के लिए आज
भी प्रयोग किया
जाता है।
राजेंद्र
कृष्ण को घोड़े
की दौड़ का
ख़ासा शौक़ था।
उन्हें सत्तर के दशक
में 46 लाख का
इनकम टैक्स फ्री
जैकपॉट घोड़े की
दौड़ में मिला।
ये राजेंद्र कृष्ण
साहब की किस्मत
थी, जिसने उन्हें
उस दौर का
सबसे अमीर लेखक
बना दिया था।
राजेंद्र कृष्ण ने फिल्मों
के लिए हज़ारों
गीत लिखे। करीब
सौ से ज्यादा
फिल्मों की
कहानी, संवाद और पटकथा
लिखी। जिसमे कुछ
मशहूर फ़िल्में पड़ोसन,
छाया, प्यार का
सपना, मनमौजी, धर्माधिकारी,
माँ-बाप, साधु
और शैतान जैसे
फ़िल्में हैं।
राजेंद्र
कृष्ण साहब
को तमिल भाषा
पर भी अच्छा
अधिकार था। वो
तमिल फिल्मों की
पटकथा भी लिखा
करते थे। उन्होंने
करीब अठारह तमिल
फ़िल्में AVM Studios के
लिए लिखीं। राजेंद्र
साहब ने लगभग
सभी बड़े संगीत
निर्देशकों के साथ
फ़िल्में की पर
उनकी जोड़ी ख़ास
तौर पर सी.
रामचंद्रा के साथ
रही। यूं तो
राजेंद्र साहेब के गीतों
को करीब करीब
सभी पार्श्व गायकों
ने गाया पर
सुरैया, लता, किशोर,
मुहम्मद रफ़ी, और
मन्ना डे ने
राजेंद्र कृष्ण के गीतों
अलग सी ऊंचाई तक पहुँचाया।
राजेंद्र
कृष्ण अपने आखरी
दिनों तक काम
में मशगूल
रहे। उन्हें लगातार
काम मिलता रहा
और वो काम
करते रहे। काम
भी ऐसे जो
दिलों में बस
जाए और हम
याद भी ना
करना चाहें तो
भी बसबस याद
आ जाए। उनकी
आखरी फिल्म आग
का दरिया थी
जिसके लिए वो
गीत लिख
रहे थे।ये फ़िल्म
उनकी मृत्यु
के दो साल
बाद 1990 में आयी।
राजेंद्र कृष्ण साहब का
निधन 23 सितम्बर 1988 को मुंबई
में हुआ।
आज
राजेंद्र कृष्ण हमारे बीच
नहीं है बल्कि
वो हमारे भीतर
कहीं गहरे बसे
हुए हैं। हमारे
दिमाग की दिवार
पर रचे हुए
हैं। हमारी भाषा
में घुले हुए
हैं और हमारी
अभिव्यक्ति में मिले
हुए हैं। ये
अलग बात है
कि हम इस
सच को नहीं
जानते। हम इस
सच से अनजान
हैं।
अनुराग
अनंत