Sunday, March 30, 2014

निरर्थकता से सार्थकता की ओर..!!

कभी कभी यूं ही सोचने लगता हूँ और बहुत सोचने के बाद भी कुछ नहीं सोच पाता. सब कुछ वैसा का वैसा ही रहता है जैसे पहले था. बिना कुछ बदले खड़ा रहता है समय, किसी पेड़ की तरह. कोई रेल भी तो नहीं आती कि मैं रेलगाड़ी में बैठ कर निकल जाऊं और समय का पेड़ पीछे छूट जाये. रेल में अमीर लोग बैठते हैं. हमारे पास तो टिकट के भी पैसे नहीं है, रेल हमारे लिए अभी सपना है और इसलिए हम अभिशप्त है. उसी ठहरे हुए समय के पेड़ से बंध कर पिटने के लिए, तब तक जबतक समय हमें खुद से रिहा न कर दे. 

कभी कभी ऐसे ही बातें करने का मन करता है. जिनका कोई अर्थ नहीं होता. मैं मानता हूँ कि हर चीज का कोई अर्थ हो ये जरूरी तो नहीं. कई बार चीजें अर्थों की भीढ़ में अपना असली अर्थ खो देतीं हैं. निरर्थक, अर्थ की तलाश में फिरते हुए ही लोग सिद्धार्थ से बुद्ध हो गए, मोहनदास से महात्मा गाँधी और राहुल सांकृत्यायन से महापंडित राहुल सांकृत्यायन. निरर्थकता में सार्थकता और इस सार्थकता में जीवन का अर्थ तलाशना ही तो जीवन जीना कहलाता है. हमसे पहले लोगों ने जो अर्थ तलाशा या गढा अगर हम उसे अपने जीवन का अर्थ मान लेंगे तो हमारे जीवन जीने का क्या मतलब रह जायेगा, क्या हम यहाँ खाने, पीने, सोने और बच्चे जनने के लिए ही आये हैं. जीवन का अर्थ क्या बस अपने पीछे खुद की कमाई कुछ दौलत, इमारतें और औलादें छोड़ जाना ही है. यही अर्थ है जीवन का, जिसे दुनिया सार्थकता की कसौटी पर कसा हुआ अर्थ मानती है. अगर ऐसा है तो मुझे इस अर्थ में निरर्थकता दिखती है और मेरी निरर्थक खोज में ही मेरा सार्थक अर्थ निहित है. 

मैं जनता हूँ. हर जगह अर्थ तलाशने वालों को मेरी इस निरर्थक बात का कोई अर्थ समझ नहीं आएगा. मैं ये भी जनता हूँ कि इस दुनिया में जितनी भी अर्थ वाली चीज है. उनकी शुरुवात निरर्थक खोजों से ही हुई थी और इसी निरर्थकता ने उसमे असीम अर्थ भर दिया. 

कल बीच रात को उठ कर मैं खुद से यही जिरह कर रहा था. ये कोई लेख नहीं है. बल्कि क्या है, मैं खुद नहीं जनता. कागज के एक पन्ने पर दिल ने जो कहा मैंने दर्ज कर लिया. अब इसकी शक्ल ये है आप इसे जो भी कहना चाहें, कह सकते हैं. मैंने जो कल खुद से बातें की थी आप से साझा कर रहा हूँ.

इस निरर्थकता में अर्थ की तलाश को बेचैन मन बिना अर्थ की बातें करते हुए अर्थ की तलाश करता है. मेरा मन भी आजकल उसी निरर्थक अर्थ की तलाश में जुटा हुआ है. जिसमे अपरिमित सार्थकता सी व्याप्त हो. जीवन जिस अर्थ को पाकर अर्थवान महसूस करे. दुनिया की नजर में फिर चाहे उस अर्थ का कोई अर्थ हो या न हो पर खुद को उस अर्थ में असीम अर्थ का बोध हो. यही तो चाहता हूँ मैं खुद से, खुद के जीवन, खुद के मन से...ए मन मुझे निरर्थकता से सार्थकता की ओर ले चल...

अनुराग अनंत  

Sunday, March 23, 2014

ई लहरिया चुनाव है भईया !!

साल 2014 का चुनाव कई मायनों में याद किया जायेगा. ये वो समय है जब देश में अपनी लहर बहा रहा नेता 'सुरक्षित सीट खोजो अभियान' का प्रणेता बना हुआ है और पार्टी अध्यक्ष के साथ मिलकर अपने ही खेमे के नेताओं को एक एक कर के ध्वस्त कर रहा है. वो जनता है कि चुनावी लड़ाई के बाद उसे इनसे लड़ना पड़ेगा सो इससे बेहतर है कि पहले ही इन्हें परास्त कर दिया जाये.

इस लड़ाई में एक तरफ औसत राजनितिक कद के राजनाथ सिंह हैं. जो अध्यक्ष पद पर बैठेकर शक्ति संपन्न है और अटल के अभेद्य किले से चुनावी लड़ाई लड़ने जा रहे है. तो दूसरी तरफ भारतीय राजनीति की भाषा और व्याकरण बदल देने वाले युग पुरुष अडवानी हैं. वही अडवानी जिसने "जय श्री राम" के नारे से देश की राजनीती और हिंदू मानस का चेहरा रँग कर भगवा कर दिया था. आज उसी आडवानी का चेहरा संघ के भगवा लाल मोदी ने बेरंग कर छोड़ा है.कहने के लिए तो इस राजनीति के योद्धा ने अपने नाम से पूरा एक युग जिया है पर आज अपनी ही पार्टी में अपनी पसंद की एक अदद सीट के लिए तरस रहा है. बात अनुशासन और पार्टी के नियम की होती तो भी ठीक था, बात आतंरिक राजनिति में पछाड़ खा कर चित्त होने की है. जिसे आडवानी ने लंगोट बंधना सिखाया था उसीने आज अडवानी को चारो खाने चित्त कर दिया है. अहमदाबाद ने हिरेन पाठक की सीट बचाना तो छोडिये. अडवानी भोपाल की सीट से लड़ने का हट भी छोड़ आये. जुबान में चाहे जो भी रहा हो, उनके दिल में, बड़े बेआबरू हो कर तेरे कुचे से हम निकले, वाला ख्याल रहा होगा. 

नरेन्द्र मोदी की लहर की लहर ने गैरों को अपनों के खेमे में और अपनों को कहीं का न छोड़ने का काम शुरू कर दिया है. अडवानी से लेकर जसवंत सिंह तक की कतार जो लाल जी टंडन, कलराज मिश्र, विनय कटियार, उमा भारती जैसों से भरी पड़ी है, मोदी लहर में बह गयी और मुख्यधारा से बह कर हासिये पर पहुँच गई. पर इसे सत्ता की लालच में उपजी मजबूरी कहें या लोकतंत्र की विडम्बना, जो मुख्यधारा के पुरोधाओं को हासिये पर खड़े हो कर मुस्काते हुए मनो मंत्र का जाप करना पड़ रहा है. अपनों को अपने ही खेमे में जिस लहर ने धाराशाही किया उसी लहर ने विरोधियों को अपनों के खेमे में ला कर पटक दिया है और जसवंत सिंह जैसे लोग नई पार्टी और पुरानी पार्टी की थियरी देने लगे हैं. 

मनुवाद का झंडा बुलंद करने वाले संघ की संतान बीजेपी की गोद में जब रामदास अठावले, राम विलास पासवान और उदित राज जैसे लोग बैठे तो आवाज उठी कि नमो लहर ने खाइयां और दूरिय पाट दी हैं. भीम सेना ने संघर्ष और प्रतिरोध का नीला झंडा छोड़ कर भगवा बुलंद कर लिया है. इसीबीच एक वरिष्ठ पत्रकार और सेकुलर कांग्रेसी पूर्व संसद भगवा ओढते हुए दिखे. पत्रकार एमजे अकबर ने जब कमल के फूल का गुणगान करना शुरू किया तब  वो एक पत्रकार नहीं एक मुश्लिम चेहरा बन गए. जो नमो मंत्र का जाप कर रहा है. ताकि देश स्थिर बना रहे और उसकी प्रगति सुनिश्चित की जा सके.

गैरों को अपना बनाने वाली और अपनों को गैर कर देने वाली इस नमो लहर का क्या होगा ये एक रहस्य है. जो भावी चुनाव के गर्भ में विश्राम कर रहा है. पर इतना तय है कि इस लहर में कई लहर है और हर लहर की अपनी अलग राजनीति है. इस सतरंगी नमो लहर में कौन सी वाली लहर जीतती है, देखना दिलचस्प होगा. 

लहरियों के लहरिया, राजनाथ ने इस नमो लहर में अपनी हिस्से की भी नमो लहर छोड़ रखी है. जो तब उभर कर सतह में आएगी जब मोदी 220  या उससे कम सीट पाएंगे. तब राजनाथ इस छुपी हुई लहर पर सवार हो कर सतह पर प्रकट होंगे और मोदी का शिकार, ये कह कर करेंगे कि देखिये लहराधिपति ! आपके सांप्रदायिक होने की वजह से गटबंधन नहीं हो पा रहा है इसलिए आप नेपथ्य में संभावनाएं तलाशिए. मैं मंच पर नायक की भूमिका में आता हूँ. आडवानी, यशवंत सिंह की तरह नहीं रूठ रहे क्योंकि उन्हें लगता है कि जब मोदी की लहर से राजनाथ लहर टकराएगी तब वो वरिष्ठता की  लहर पर सवार हो कर गद्दी पर जा चढेंगे. इधर अरुण जेठली ने भी नमो लहर में अपने हिस्से की लहर मिला दी है. इस लहर के भागीरथी, प्रकश सिंह बादल हैं. जिन्होंने पंजाब की रैली में जेठली के उपप्रधानमंत्री होने कि घोषणा कर दी. बीजेपी इस बार मनो लहर पर चुनाव लड़ रही है और वो अब लहरिया पार्टी बन चुकी है. जहाँ नेता नहीं हैं बस लहरें हैं. हर नेता एक लहर है और हर लहर एक नेता. सब लहर इस समय रूप बदल कर नमो लहर बनी हुई हैं, सही समय पर अपना असली नाम और चेहरा उजागर करेंगी.  कोई चाय वाला कह रहा था कि भईया इस बार का चुनाव लहर से लहर के टकराव का चुनाव है. इस बार का चुनाव लहरिया चुनाव के नाम से जाना जायेगा.

अनुराग अनंत

ये लेख जनज्वार वेबसाईट पर प्रकाशित हुआ है.
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ई लहरिया चुनाव है भईया!

Wednesday, March 19, 2014

झूठी आजादी का झूठा इतिहास

ह लेख हिमांचल प्रदेश के रहने वाले भाई "राकेश कुमार" का है| मुझे भाई अनिल रघुराज के ब्लॉग एक हिन्दुस्तानी की डायरी पर मिला. अनिल जी ने इसे राकेश जी के फेसबुक प्रोफाइल से उठाया था और अपने ब्लॉग पर झूठे इतिहास की घुट्टी का मिथ कब तक! नाम से छापा था| लेख इतिहास के झूठे मिथकों को बड़े ही तर्कसंगत ढंग से तोड़ता है साथ ही साथ सच्चाई की एक नई तस्वीर पेश करता है| ये सच्चाई बिना आधार की गल्प कथा न होकर पूरे तार्किक धरातल पर खड़ी सच्चाई है| हम हिन्दुस्तानी जो गाँधी जी को देश की आजादी का नायक मानते हैं और गाते हुए बड़े होते है कि "दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तुने कर दिया कमाल" उनके लिए ये लेख बहुत ही जरूरी है. सत्ता के नायकों को, सत्ता, जनता पर कैसे थोपती है और जानकारी के आभाव में जनता सत्ता के नायकों को अपना नायक समझ बैठती है. फिलहाल आप ये लेख पढ़ें और भारत की आज़ादी के नायकों और कारकों के एक नए पक्ष से रूबरू होइए. ...माडरेटर अनुराग अनंत.   
कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन करते हुए पढ़िए। एक, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है। दो, 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में विजयी देश के रुप में उभरता है। तीन, ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता हैबल्कि जापानी सेना को बर्मा से भी निकाल बाहर करता है। चार,इतना ही नहींब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है। पांच, जाहिर है कि इतना खून-पसीना ब्रिटेन भारत को आजाद करने के लिए तो नहीं ही बहा रहा था। यानी, उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा था।
फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार हो गया कि ब्रिटेन ने हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया? हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत का जो इतिहास पढ़ाया जाता हैउसके पन्नों में सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढालसाबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते। [प्रसंगवश- 1922में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलतीउसका पूरा श्रेय गांधीजीको जाता। मगर चौरी-चौरा में हिंसा’ होते ही उन्होंने अपना अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लियाजबकि उस वक्त अंग्रेज घुटने टेकने ही वाले थे!]
दरअसल गाँधीजी सिद्धान्त व व्यवहार में अन्तर नहीं रखने वाले महापुरूष हैंइसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक दूसरा रास्ता भी था कि गाँधीजी खुद अपने आप को इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहां अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है देश की आजाद पर।

यहां हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस चमत्कार’ का पता लगाएंगेजिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की इच्छा रखने वाले अंग्रेजों को जल्दबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा। [प्रसंगवश, जरा अंग्रेजों द्वारा भारत में बनाई गई इमारतों पर नजर डालें। दिल्ली के संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने और इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!


लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन कियेउससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है। इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं। फटी वर्दी पहनेआधा पेट भोजन किये,बुखार से तपतेबैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादुरी के साथ भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर व बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थेजो महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए’ लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थेतो देश की जनता गलत हैऔर अगर देश की जनता सही हैतो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।

सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रूप लियाफिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रूप में फूटकर बाहर आने लगा। फरवरी1946 मेंजबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा थारॉयल इण्डियन नेवी की एकहड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है। कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती हैजिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है। यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही हैसेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध राजभक्ति’ की नींव को भी हिला कर रख देता है। जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह राजभक्ति’ ही है!
बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च 1944 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचेदेश के अन्दर भारतीय नागरिक आन्दोलित होजाएं और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान बगावत कर दें। इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि- 1. सिर्फ तीस-चालीस हजार सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं पहुँचा जा सकताऔर 2. जापानी सेना की पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (असम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) लीडो रोड’ को नष्ट करनाभारत की आजादी उसकी दूसरी’ मंशा है। ऐसे मेंनेताजी को अगर भरोसा था,तो भारत के अन्दर नागरिकों के आन्दोलन’ एवं सैनिकों की बगावत’ पर। मगर दुर्भाग्यकि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत। इसके भी कारण हैं।

पहला कारणसरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह ठिंठोरा पीटा गया था किजापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सोसेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी। दूसरा कारणफॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया थाअतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं। तीसरा कारण,भारतीय जवानों का मनोबल बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरू कर दिया था।
इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेयभी 1943से 46 तक सेना में रहे और वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबलबढ़ाने सीमा पर पहुंचे थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।) चौथा कारणभारत की प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी कांग्रेस गाँधीजी की अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने की हिमायती थीउसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर कोई आन्दोलन शुरू नहीं किया। (ब्रिटिश सेना में बगावत की तो खैर कांग्रेस पार्टी कल्पना ही नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है। ...जबकि दुनिया जानती थी कि इन भारतीय जवानों की राजभक्ति के बल पर ही अंग्रेज न केवल भारत परबल्कि आधी दुनिया पर राज कर रहे थे।
पांचवे कारण के रूप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाए कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्दों और कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।
खैरजो आन्दोलन व बगावत 1944 में नहीं हुआवह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस राजभक्ति के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैंउस राजभक्ति का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही भलाई है। वरना, जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई हैउससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जाएगा... और भारत में रह रहे सारे अंग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिए जाएंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है। भारत को तीन भौगोलिक और दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती है। और भी बहुत-सी शर्तें अंग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं। (ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा हैजबकि उसका पोता पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक रूप से कमजोर बनाया जाए। लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर।
एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है! (लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक फ्रीडम एट मिडनाइट’ में एटली की इस चाल को रेखांकित किया गया है।)
बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गयी है कि गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछउदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैंजिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले।
सबसे पहलेमाइकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसा कि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूतहैमलेट के पिता की तरहलालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों परचलने-फिरने लगाऔर उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दियाजिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।
अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा हैतब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो बिन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है- 1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रहीऔर 2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।

यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैंतब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं: “... उनसे मेरी उन वास्तविक बिन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती हैजिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थीजो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करेफिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ाउत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैंजिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहायह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोलेन्यू-न-त-म!” [श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया हैजो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था]
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि 1. अंग्रेजों के भारत छोड़ने के हालांकि कई कारण थेमगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना व जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के सिर्फ अंग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था। 2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थीउसके कारण थे नेताजी का सैन्य अभियानलालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति। 3.अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गांधीजी या कांग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा। सोअगली बार आप भी दे दी हमें आजादी ...’ वाला गीत गाने से पहले जरा पुनर्विचार कर लीजिएगा।

राकेश कुमार 

Wednesday, March 5, 2014

तेलंगाना का सवाल, इतिहास का जवाब

तेलंगाना की तस्वीर शीर्षक से एक लेख जनसत्ता में 16 November 2013 को सम्पादकीय पृष्ठ पर छपा था | मैंने इस लेख को सहेज कर रख तो लिया था पर किन्हीं कारणवश आपसे साझा नहीं कर सका | आज ड्राफ्ट चेक कर रहा था | तभी ये लेख मिल गया | ये लेख तेलंगाना समस्या की बारीक़ पड़ताल करता है और मुझे लगता है कि इतिहास के पृष्ठ पर लिखे जवाबों से वर्तमान के सवाल हल करने में सहायक है | मेरे ख्याल से तेलंगाना मसले में एक समझ बनाने के लिए ये लेख काफी मददगार सिद्ध हो सकता है. इसी उम्मीद के साथ, मैं ये लेख आप सभी से साझा कर रहा हूँ. आशा है विनय सुल्तान का लिखा ये लेख आप सभी पाठकों के लिए लाभकारी सिद्ध होगा. माडरेटर...अनुराग अनंत 

तेलंगाना की सात दिन की यात्रा से पहले मेरे लिए तेलंगाना का मतलब था आंदोलनकारी छात्र, लाठीचार्ज, आगजनी, आत्मदाह, रवि नारायण रेड्डी और नक्सलबाड़ी आंदोलन।

संसद के शीतकालीन सत्र में तेलंगाना के दस जिलों की साढ़े तीन करोड़ आबादी का मुस्तकबिल लिखा जाना है। मेरे लिए यह सबसे सुनहरा मौका था वहां के लोगों के अनुभवों और उम्मीदों को समझने का।

पृथक राज्यों की मांग के पीछे अक्सर एक पूर्वग्रह काम करता है, भाषा और संस्कृति। तेलंगाना का मसला इसके ठीक उलट है। यहां शेष आंध्र की तरह ही तेलुगू मुख्य भाषा है। अलबत्ता भाषा का लहजा और यहां की संस्कृति दोनों सीमांध्र से अलग हैं।

1947 में सत्ता हस्तांतरण के तुरंत बाद भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के आंदोलन शुरू हो गए। 1952 में पोट्टी श्रीरामलु का निधन मद्रास स्टेट से पृथक आंध्र प्रदेश बनाने की मांग को लेकर किए गए अनशन के दौरान हुआ। इसके बाद प्रथम राज्य पुनर्गठन आयोग या फजल अली आयोग की स्थापना हुई। तेलंगाना आजादी से पहले ब्रिटिश राज का हिस्सा नहीं था; यहां पर निजाम का शासन था। 1948 की पुलिस कार्रवाई के बाद निजाम हैदराबाद का विलय भारतीय राज्य में हुआ। राज्यों के भाषाई आधार पर हो रहे पुनर्गठन के दौरान निजाम हैदराबाद के मराठीभाषी क्षेत्रों को महाराष्ट्र में, कन्नड़भाषी क्षेत्रों को कर्नाटक में और तेलुगूभाषी क्षेत्रों को आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया।

इस पूरी प्रक्रिया में फजल आली शाह कमेटी की सिफारिशों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। फजल आली शाह आयोग की सिफारिश स्पष्ट तौर पर विशाल आंध्र के गठन के खिलाफ थी। इस सिफारिश का पैरा 378 शैक्षणिक रूप से अगड़े सीमांध्र के लोगों द्वारा पिछड़े तेलंगाना के संभावित शोषण को विशाल आंध्र के गठन के विरोध का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण मानता है। साथ ही पैरा 386 में कहा गया है कि तेलंगाना को आंध्र प्रदेश में न मिलाया जाना आंध्र और तेलंगाना दोनों के हित में रहेगा। इस तरह से देखा जाए तो आंध्र प्रदेश के निर्माण के साथ ही गैर-बराबरी, शोषण और तकसीम के बीज बोए जा चुके थे।

फजल आली शाह कमेटी की आशंका सही साबित हुई। विशाल आंध्र के गठन के महज तेरह साल बाद ही तेलंगाना के लोगों ने नौकरियों में हो रहे भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया। 1969 के उस जन-उभार का सरकार ने निर्मम दमन किया। आज 369 तेलंगाना के लोगों के लिए महज एक गणितीय आंकड़ा नहीं है। यह 1969 के जन आंदोलन में पुलिस की गोली से शहीद हुए लोगों का प्रतीक है। इसके बाद कभी तेज और कभी मंद, लेकिन तेलंगाना की मांग मुसलसल जारी रही। एक दहला देने वाला आंकड़ा यह भी है कि तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर दिसंबर, 2009 से अब तक बारह सौ से ज्यादा लोग आत्मदाह कर चुके हैं। किसी भी आंदोलन में इतने बड़े पैमाने पर आत्मदाह का उदाहरण मिलना मुश्किल है।

हैदराबाद कभी ब्रिटिश राज का हिस्सा नहीं रहा। इस वजह से यहां की राजनीतिक और शेष आंध्र की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में एक ऐतिहासिक फर्क रहा, जो आज भी मौजूद है। समाजवादी चिंतक केशवराव जाधव की मानें तो यह एक तरह का आंतरिक साम्राज्यवाद है। तेलंगाना के संसाधनों के बड़े हिस्से पर सीमांध्र के लोगों का कब्जा रहा है। तेलंगाना आंध्र प्रदेश में बयालीस फीसद की भौगोलिक हिस्सेदारी रखता है, साथ ही कुल जनसंख्या का चालीस फीसद हिस्सा इस क्षेत्र में निवास करता है।

राज्य के कुल राजस्व का इकसठ फीसद हिस्सा इसी क्षेत्र से आता है, लेकिन आंध्र प्रदेश के कुल बजट का मुश्किल से बीस फीसद ही तेलंगाना को मिल पाता है। उदाहरण के लिए, नाबार्ड द्वारा 2009 में आबंटित एक सौ तीस करोड़ में से एक सौ इक्कीस करोड़ रुपए सीमांध्र और रायलसीमा में खर्च किए गए।

आंध्र प्रदेश की कुल साक्षरता दर 67 फीसद है जबकि तेलंगाना में महज 58 फीसद। महबूबनगर साक्षरता की दृष्टि से देश का सबसे पिछड़ा जिला है। आंध्र प्रदेश के कुल शिक्षण संस्थानों में से महज एक चौथाई संस्थान तेलंगाना में हैं। 1956 से अब तक शिक्षा पर हुए कुल खर्च का दसवां भाग ही तेलंगाना की झोली में आ पाया। जहां सीमांध्र और रायलसीमा के लिए शिक्षा के मद में क्रमश: 1308 और 382 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई वहीं तेलंगाना को 162 करोड़ रुपए ही मिल पाए। सीमांध्र और रायलसीमा में सरकारी विद्यालयों की संख्या 39,801 है। तेलंगाना में यह संख्या इसके आधे से भी कम है। डिग्री कॉलेजों का अनुपात भी 240 के मुकाबले 74 ठहरता है।

यहां गौरतलब है कि तेलंगाना में आदिवासी, दलित और पिछड़े मिल कर आबादी का अस्सी फीसद भाग गढ़ते हैं। इन आंकड़ों को देख कर शिक्षा में इस इलाके के पिछड़ेपन को केवल संयोग तो नहीं कहा जा सकता। 

शिक्षा का सीधा संबंध रोजगार से है। प्रो जयशंकर द्वारा किए गए शोध के अनुसार सिर्फ बीस फीसद सरकारी रोजगार तेलंगाना के खाते में हैं। सचिवालय की नौकरियों में तेलंगाना का प्रतिनिधित्व घट कर दस फीसद पर पहुंच जाता है। कुल एक सौ तीस विभागों में से सिर्फ आठ विभागों मेंतेलंगाना क्षेत्र का कोई अधिकारी नीति निर्धारक पद पर है। सरकारी नौकरियों में अवसर की अनुपलब्धता से रोजगार के लिए यहां बड़े पैमाने पर विस्थापन होता है। महबूबनगर जिले की तैंतीस फीसद आबादी इस तरह के विस्थापन की शिकार है।

वर्ष 1997 से 2010 तक आंध्र प्रदेश में पांच हजार आठ सौ किसानों ने आत्महत्या की। इनमें से तीन हजार चार सौ आत्महत्याएं तेलंगाना में हुर्इं। एक तथ्य यह भी है कि इस देश में किसानों की आत्महत्या की अड़सठ फीसद घटनाएं कपास उगाने वाले क्षेत्रों में हुर्इं। तेलंगाना में कपास उगाने का चलन आंध्र के आदिवासियों द्वारा 1980 के बाद शुरू हुआ। इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं के पीछे बड़ी वजह यह है कि तिरासी फीसद किसान ऋण के लिए साहूकारों पर निर्भर हैं, जहां ब्याज की दर छत्तीस फीसद है, आपके होम लोन, पर्सनल लोन या कार लोन से तीन से पांच गुना ज्यादा। सरकार द्वारा आबंटित कुल कृषि ऋण का महज सत्ताईस फीसद भाग तेलंगाना के हिस्से आता है। ब्याज-मुक्त ऋण का आबंटन 15.24 फीसद है। जबकि चालीस फीसद कृषियोग्य भूमि इस क्षेत्र में आती है।

पानी तेलंगाना-संघर्ष का सबसे बड़ा कारण रहा है। कृष्णा नदी का उनहत्तहर फीसद और गोदावरी का उनासी फीसद बहाव क्षेत्र तेलंगाना में है। लेकिन पानी के बंटवारे में जो अन्याय तेलंगाना के साथ हुआ उसकी दूसरी नजीर नहीं मिलेगी। नागार्जुन सागर बांध नलगोंडा जिले में है। इसके द्वारा कुल पच्चीस लाख एकड़ जमीन की सिंचाई की व्यवस्था की गई। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इसके जरिए सीमांध्र की बीस लाख एकड़ और तेलंगाना की महज पांच लाख एकड़ जमीन सींची जा रही है। इसी तरह जिस श्रीसैलम परियोजना के कारण तेलंगाना के कुरनूल जिले के एक लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था उसका एक बूंद भी तेलंगाना को नहीं मिलता। हालांकि तेलुगू गंगाके नाम पर इसका एक हिस्सा चेन्नई की पेयजल आपूर्ति के लिए दिया जाता है।

सूखे की मार से त्रस्त महबूबनगर के लिए 1981 में जुराला परियोजना की शुरुआत की गई थी। इस परियोजना से एक लाख एकड़ जमीन की सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध होने की उम्मीद थी। पर तीन दशक बाद भी यह परियोजना निर्माणाधीन है।

तेलंगाना के लोगों का मानना है कि अलग राज्य बनाए जाने से उनको पानी में न्यायपूर्ण हिस्सा मिल सकेगा। तेलंगाना की कुल उपजाऊ जमीन के चार फीसद भाग को नहरों के जरिए सिंचाई का पानी मयस्सर है। सीमांध्र की कुल उपजाऊ जमीन के अट्ठाईस फीसद भाग को नहरों का पानी मिल रहा है। सिंचाई पर सरकार ने तेलंगाना में 4005 करोड़ रुपए खर्च किए हैं जो कि सीमांध्र के मुकाबले पांच गुना कम है। पिछले पचास सालों में आबंटित चालीस परियोजनाओं में से सैंतीस का लाभ सीमांध्र को पहुंच रहा है। यह एक और ऐसा तथ्य है जिसे संयोग नहीं कहा जा सकता।

अलग तेलंगाना राज्य की मांग के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा सीमांध्र की अधिवासी लॉबी बनी रही। तेलंगाना की आबादी में बाईस फीसद और हैदराबाद की आबादी में पैंतालीस फीसद हिस्सा इनका है। हैदराबाद के आसपास सहित तेलंगाना की उपजाऊ जमीन के बड़े हिस्से पर इनका कब्जा है। भारत-पाक बंटवारे के बाद हैदराबाद के कई मुसलिम जमींदार पाकिस्तान चले गए थे। इनकी लगभग दो हजार एकड़ जमीन बहुत सस्ती दरों पर आंध्र-अधिवासियों को उपलब्ध कराई गई।

इसी तरह निजाम के समय के डेढ़ सौ कारखाने सत्तर का दशक आते-आते बंद हो गए। इनको निजाम के समय जरूरत से कई गुना जमीन आबंटित की गई थी। उदाहरण के तौर पर प्रागा टूल्स को निजाम के समय में सौ एकड़ जमीन मिली थी। इन सारी जमीन पर आज आंध्र के अधिवासियों का कब्जा है। वक्फ की जमीन की बंदरबांट भी इसी तर्ज पर कर दी गई। इस तरह आंध्र अधिवासी भू-माफिया गिरोह बहुत शक्तिशाली होते गए। आज तेलंगाना में पैंसठ फीसद औद्योगिक इकाइयों के मालिक यही अधिवासी हैं। भारत की बड़ी निर्माण कंपनियों के मालिक आंध्र से हैं। इनके लिए तेलंगाना सस्ते श्रम का स्रोत है। एक तेलुगू लोक गीत इस त्रासदी को कुछ इस तरह से बयां करता है- हम दुनिया के लिए सड़क बनाते हैं, पर हमारे जीवन में कोई रास्ता नहीं है/ सुबह हाथ की लकीरें दिखने से पहले हम काम पर जाते हैं, और लौटते हैं जब लकीरें दिखना बंद हो जाएं।

पैंतीस साल लंबे संघर्ष के बाद तेलंगाना को जिल्लत, इलाकाई गैर-बराबरी और कमतरी के अहसास से छुटकारा मिलने की उम्मीद जगी है। वहीं अल्पसंख्यक समुदाय खुद को डर और अनिश्चितता से घिरा पा रहा है। मुसलमान तेलंगाना के सांप्रदायिक इतिहास से सहमे हुए हैं।

तेलंगाना राष्ट्र समिति एक-सूत्री पार्टी है। तेलंगाना निर्माण के बाद टीआरएस का कांग्रेस में विलय होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष के शून्य को भरने के लिए भाजपा सबसे मजबूत स्थिति में होगी। ऐसे में अल्पसंख्यकों का डर आधारहीन नहीं कहा जा सकता|

 विनय सुल्तान