Monday, February 3, 2014

तीसरी दुनिया के शोषितों की आवाज़ थे मंडेला

नेल्शन मंडेला ने शोषण के विरूद्ध दक्षिण अफ्रीका में जो लड़ाई लड़ी, वो एक वैचारिक लड़ाई थी. असमानता और विभेद के खिलाफ मानव सम्मान की लड़ाई लड़ते हुए मंडेला ने अपने जीवन में महान क्रन्तिकारी आदर्श जिया और इन आदर्शों को जीने में जो संघर्ष करने होते हैं उन्हें भी बखूबी किया. मंडेला की अपनी एक स्वतंत्र वैचारिकीय थी. जो गांधी के विचारों से लेकर मार्क्स तक फैली हुई थी. एक लोकतान्त्रिक और समता मूलक समाज निर्माण के लिए लड़ते हुए एक नेता को जो-जो कुर्बानियां देनी पड़ती है. मंडेला ने हँसते हुए दी थी. तीसरी दुनिया में सम्मान पूर्ण जीवन पर आस्था और उसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष के ज़ज्बे का जीवंत रूप थे नेल्शन मंडेला. मंडेला का संघर्ष देशों की सीमाओं में नहीं बंधता, उनका संघर्ष अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष है. जो दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे अन्याय के विरुद्ध लड़ता हुआ पाया जाता है. तीसरी दुनिया में शोषण और असमानता के विरुद्ध चल रहे संघर्षों के प्रतीक के रूप में उभरे हैं मंडेला, उनके संघर्ष चेतना और समता पर आस्था प्रदान करते हैं, जनसत्ता के  4 फरवरी, 2014, संस्करण में  रंगभेद से मुक्ति के मायने शीर्षक से लेल्शन मंडेला पर अजेय कुमार जी का एक बहुत ही उन्दा लेख पढ़ने को मिला. उन्दा इस लिहाज से क्योंकि ये लेख अपने आप में नेल्शन मंडेला होने का मतलब बताता है. विचार पर आस्था और अडिग संघर्ष की एक तस्वीर खींचता हुआ ये लेख आप सब से साझा कर रहा हूँ   ....माडरेटर अनुराग अनंत 


नेल्सन मंडेला की मौत के बाद अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और दक्षिण अफ्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने बयानों में स्वीकार किया है कि 1962 में गिरफ्तार होने से पहले वे कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य थे। पार्टी ने यह रहस्योद्घाटन करते हुए यह भी कहा कि उसने ‘राजनीतिक कारणों’ से इस सच को दबाए रखा।

पचास के दशक में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस शांतिपूर्ण प्रतिरोध के लिए प्रतिबद्ध रही। 1956 में जब मंडेला और अन्य डेढ़ सौ कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का मुकदमा चला तो उनका विश्वास अहिंसा के मार्ग से डगमगाने लगा। 1961 में जब अदालत ने उन्हें सभी मामलों से बरी कर दिया तो उन्होंने जेल से बाहर आकर एएनसी की सशस्त्र शाखा ‘उम्खोंतो वे सिज्वे’ (राष्ट्र का भाला) का गठन किया जिसके वे पहले कमांडर-इन-चीफ बने। इस सशस्त्र संगठन के गठन की मांग ने दरअसल 1960 में शार्पविले में हुए नरसंहार के बाद जोर पकड़ा, जब दक्षिण अफ्रीका के सुरक्षा बलों ने 69 मासूम लोगों को गोलियों से भून डाला और अन्य लगभग तीन सौ लोगों को जख्मी कर दिया जो काले लोगों की आवाजाही पर लगी रुकावटों के विरुद्ध शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रकट कर रहे थे।

इस नरसंहार के बाद रंगभेदी निजाम ने देश भर में आपातस्थिति की घोषणा कर दी, एएनसी को गैर-कानूनी घोषित किया, जिसके कारण मंडेला और उसके साथियों को भूमिगत होना पड़ा। पंद्रह महीनों तक मंडेला को पुलिस ढूंढ़ नहीं पाई। इस अवधि में मंडेला कभी दरबान, कभी कार-गैराज में कार्यरत मजदूर और कभी रसोइये की भूमिकाएं बखूबी निभाते रहे। छह फुट दो इंच लंबे और लगभग पंचानबे किलो वजन के मंडेला ने ये सब काम कैसे किए होंगे, सोच कर हंसी आती है। मजेदार बात यह भी हुई कि मंडेला इस अवधि में अखबारों को फोन द्वारा सरकारी नीतियों का विरोध भी करते रहे और एक बार तो बीबीसी टेलीविजन के लिए साक्षात्कार भी दे डाला।

लगभग एक वर्ष बाद मंडेला अपना नाम डेविड मोतस्ंमयी रख कर देश से बाहर निकल गए, कई अफ्रीकी देशों का दौरा किया ताकि एएनसी के लिए समर्थन जुटाया जा सके। इस बीच उन्होंने चे ग्वारा को भी पढ़ा और अदीस अबाबा में थोड़ी देर के लिए गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। कुछ देर वे एएनसी के निर्वासित राष्ट्रपति ओलीवर टैम्बो के साथ लंदन में भी रहे।

पांच अगस्त 1962 को जब वे डरबन-जोहानिसबर्ग हाइवे से वापस दक्षिण अफ्रीका आ रहे थे, तो सीआइए ने रंगभेदी निजाम को मंडेला की यात्रा की सूचना दे दी और एक पुलिस चेक-पोस्ट पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें बिना अनुमति के देश से बाहर जाने के लिए पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। अभी मंडेला यह सजा काट ही रहे थे कि उन्हें और अन्य नौ सक्रिय एएनसी सदस्यों को तोड़-फोड़ और देशद्रोह के आरोप में जोहानिसबर्ग के उत्तर में स्थित रिवोनिया में अदालत के सामने पेश किया गया। रिवोनिया में एक फार्म पर एएनसी की सर्वोच्च समिति (हाइकमांड) मिला करती थी।

इस इलाके में केवल गोरे रहते थे। मंडेला अपने को माली कह कर यहां कई बार रहे। एक बार पड़ोसियों को जब शक हुआ तो उन्होंने पुलिस को सूचना दे दी। पुलिस ने फार्म पर धावा बोला और वहां उसे बम बनाने के नुस्खे, विस्फोटक पदार्थ, रणनीतिक लक्ष्यों के मानचित्र और कई खुफिया दस्तावेज मिले। इसके साथ ही पुलिस ने मंडेला का हस्तलिखित एक आलेख भी जब्त किया जिसका शीर्षक था, ‘अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बनें?’ इन तमाम सबूतों के बाद रिवोनिया मुकदमे में फैसले को लेकर कोई शक नहीं बचा था। देखना यह था कि उन्हें फांसी की सजा मिलेगी या आजीवान कारावास।

अदालत में अपने बयान का समापन करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैंने अपने पूरा जीवन अफ्रीकी जनता के इस संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया है। मैंने गोरों के प्रभुत्व के खिलाफ लड़ाई लड़ी है और मैंने कालों के प्रभुत्व के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी है। मैं एक जनतांत्रिक और स्वाधीन समाज के आदर्श की कामना करता हूं, जहां सभी लोग सद््भाव से रहें और उनके लिए बराबर के अवसर हों। यह ऐसा आदर्श है, जिसेजीने की और जिसे हासिल करने की मैं उम्मीद करता हूं।’ इसके बाद मंडेला ने, यह सोच कर कि उन्हें फांसी की सजा भी हो सकती है, जज की तरफ देखा और कुछ पल बाद कहा, ‘लेकिन, यह वह आदर्श भी है जिसके लिए, अगर जरूरत पड़े तो मैं मरने के लिए भी तैयार हूं।’ (20 अप्रैल 1964) न्यायाधीश ने उन्हें कठोर श्रम के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई। रोबेन द्वीप की जेल में उन्हें पत्थर की चट्टानों को तोड़ने का काम दिया गया। उन्हें किसी से बात करने की मनाही थी। वर्ष में केवल एक बार उनसे कोई मिल सकता था, हर छह महीने में उन्हें एक डाक-पत्र प्राप्त करने की इजाजत दी गई थी।

प्राय: हर दिन उन्हें और उनके साथियों को गड्ढा खोदने के लिए कहा जाता था जहां उन पर जेलर पेशाब किया करते थे। मंडेला की यह महानता थी कि जब वे राष्ट्रपति बने तो उन्होंने अपने पहले सरकारी भोज में उस जेलर को भी आमंत्रित किया जिसने उनके साथ जेल में ऐसा व्यवहार किया था।

अठारह वर्षों तक रोबेन द्वीप में सजा काटने के बाद मंडेला को 1982 में केपटाउन के नजदीक जेल में स्थानांतरित किया गया जहां उनके साथ थोड़ा बेहतर सलूक किया गया। 1988 में फिर उन्हें एक अन्य जेल में डाला गया जहां उन्हें एक गोरे रसोइये की सुविधा भी प्रदान की गई। 1976 में सोवेटो विद्रोह, स्टीव बीको की पुलिस हिरासत में मौत, मंडेला और उसके साथियों की रिहाई के लिए अंतरराष्ट्रीय मुहिम आदि ने गोरे शासन को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि रंगभेद की नीति को अब और नहीं चलाया जा सकता।

दो फरवरी 1990 को एएनसी पर प्रतिबंध हटा दिया गया और लगभग तीन दशकों की जेल के बाद 11 फरवरी, 1990 को मंडेला और उनके साथ कदम मिलातीं उनकी पत्नी विन्नी मंडेला, जिन्होंने जेल से निकलने पर उनका दाहिना बाजू प्रतिरोध के रूप में ऊपर उठा दिया था, रिहा हुए।

वर्ष 1991 में डरबन में एएनसी के अड़तालीसवें अधिवेशन के मौके पर मंडेला ने कहा, ‘हमने सशस्त्र कार्रवाई को फिलहाल रोक दिया है, लेकिन सशस्त्र संघर्ष को खत्म नहीं किया है। इसलिए उम्खोंतो वे सिज्वे को चाहे देश में तैनात किया जाए या बाहर, उस पर यह जिम्मेदारी आती है कि खुद को तैयारी की स्थिति में रखे कि कहीं प्रतिक्रांति की ताकतें एक बार फिर एक जनतांत्रिक समाज में शांतिपूर्ण संक्रमण का रास्ता रोकने की कोशिश न करें। ठीक यही संघर्ष है जिसने शक्तियों के संतुलन को इस हद तक बदल दिया है कि रंगभेदी व्यवस्था अब पीछे हटने के लिए मजबूर हो गई है। हमारी जनता के संघर्षों से एएनसी पर लगी पाबंदी हटी है और हम आज अपने ही देश में एकत्र हो पाए हैं। एक ऐसे निजाम को, जिसकी विचारधारा घोर कम्युनिज्म-विरोध पर टिकी हुई है, हमारी सहयोगी दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी हटानी पड़ी है और कम्युनिस्ट आदर्शों के प्रचार पर पाबंदी लगाने वाले प्रावधानों को कानूनों से हटाना पड़ा है।’

मंडेला की चेतावनी सच निकली। दस अप्रैल 1993 को क्रिसहानी की, जो वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, रंगभेदी निजाम ने हत्या कर दी। इस हत्या का मकसद रंगभेद की व्यवस्था को खत्म करने की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा करना था। यह मंडेला की सूझबूझ थी कि उन्होंने संवैधानिक ढंग से सरकार के साथ समझौता किया, जिसके फलस्वरूप 27 अप्रैल, 1994 को दक्षिण अफ्रीका के इतिहास में पहला स्वतंत्र और गैर-रंगभेदी चुनाव हुआ जिसमें भारी बहुमत से एएनसी ने सत्ता प्राप्त की। दस मई, 1994 को मंडेला राष्ट्रपति चुने गए।

आज जब हम मंडेला को याद करते हैं तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि रंगभेदी निजाम कितना क्रूर था, कि उसके खिलाफ लड़ना मानवीय गरिमा और स्वतंत्रता को बचाने के लिए कितना महत्त्वपूर्ण था। आज की युवा पीढ़ी के लिए इसका अनुमान तक लगाना कठिन है कि दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलू क्या थे।

वर्ष 1948 में नेशनल पार्टी ने दक्षिण अफ्रीका में चुनाव जीता तो गोरों का प्रभुत्व जमाने के उद्देश्य से केवल गोरों की संसद ने चालीस कानून पास किए जिनके तहत कालों की सारी जमीन हड़प ली गई, उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित किया गया और उन्हें शहरों में उनके घरों से खदेड़ कर दूरदराज इलाकों में लगभग फेंक दिया गया जहां बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थीं। बच्चे के पैदा होने से ही रंगभेद लागू हो जाता था क्योंकि उसका जन्म-पंजीकरण उसके रंग के अनुसार किया जाता था। उसकी शादी केवल अश्वेतों में संभव थी।

हर क्षेत्र को ‘काले’ या ‘सफेद’ के अनुसार चिह्नित किया गया। गोरों को सस्ते श्रम की जरूरत थी, इसलिए कालों को उनके घरों में काम करने की इजाजत दी गई। ‘श्वेत’ क्षेत्र में घुसने के लिए हर काले के पास एक ‘पहचानपत्र’ होना अनिवार्य था। पुलिस कभी भी और कहीं भी, किसी भी काले व्यक्ति को रोक कर उससे उसका पहचानपत्र मांग सकती थी।

सार्वजनिक मनोरंजन से लेकर शौच-सुविधाओं तक, जीवन के हर क्षेत्र में काले-गोरे का भेद किया जाता था। स्कूलों में काले बच्चों को वही विषय पढ़ाए जाते थे जो उन्हें श्रम करने में सहायक हों। उन्हें स्थानीय भाषा ही सिखाई जाती थी।

रंगभेद निजाम की किसी भी किस्म की आलोचना करना गैर-कानूनी था। हजारों काले लोगों को सुरक्षा बलों ने मौत के घाट उतार दिया। लाखों लोगों को जेल में अमानवीय सजाएं दी गर्इं। मंडेला शांतिप्रिय नागरिक होते हुए और गांधी और मार्टिन लूथर किंग के प्रशंसक होते हुए भी, सशस्त्र संघर्ष की ओर मुड़े क्योंकि दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार के अत्याचारों के आगे इसका कोई विकल्प न था। उनका मानना था कि जब बातचीत से हल न निकल पा रहा हो तो इसे अंतिम हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए।

मंडेला ने इसलिए जब दो महीने पहले, पांच दिसंबर को आखिरी सांस ली तो दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जेकब जूमा ने अपने टेलीविजन प्रसारण में इन शब्दों के साथ उन्हें श्रद्धांजलि दी: ‘हमारे राष्ट्र ने अपना सबसे महान पुत्र खो दिया है। हमारी जनता ने अपने पिता को खो दिया है।... हमारी भावनाएं और प्रार्थनाएं मंडेला परिवार के साथ हैं। हम उनके आभारी हैं। उन्होंने बहुत कुर्बानियां दी है और बहुत दुख सहे हैं ताकि हमारी जनता आजाद हो सके।’मंडेला दक्षिण अफ्रीका ही नहीं, तीसरी दुनिया के तमाम शोषितों और उत्पीड़ितों के सच्चे झंडाबरदार थे।
--अजेय कुमार 
लेखक से ajay.progress@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.