Sunday, January 26, 2014

“इस व्‍यवस्‍था को एक दिन टूटना ही है” - अरुंधती राय

कलम खुद में कुछ नहीं होती. कलम हथियार तभी बनती है जब उसे चालने वाले के पास उसे चालने का हौसला होता है. और जब ये हौसला हो तो लेखक सिर्फ लेखक नहीं रह जाता वो एक योद्धा, एक सिपाही हो जाता है. सत्ता और जनता की लड़ाई में कलम सबसे बड़ा और कारगर हथियार है क्योंकि ये सत्ता के षड्यंत्रों का पर्दाफास करती है और मेहहतकश जनता को उन षड्यंत्रों के प्रति आगाह करती है. आज जब हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जो षड्यंत्रों का समय है. सत्ता, जनता के खिलाफ गुप्त षड़यंत्र करने में लगी है. सत्ता जनता की जड़, जमीन और जंगल सब तबाह कर देना चाहती है और उसे पूँजीपतियों के हांथों सौंप देना चाहती है. वो विकास के नाम पर जनता की संस्कृति, संघर्ष और समस्याओं को नेपथ्य में धकेल कर दम घोंट देना चाहती है. इस कठिन दौर में अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने को तैयार एक कलमकार है,"अरुंधती राय". जो दमन, अन्याय, बेदखली और कारपोरेट लूट के खिलाफ पूरी दृढता से खडीं हैं. अरुंधती राय जनता की आवाज हैं. ये सत्ता के षड्यंत्रों को समय समय पर उजागर करती रहीं हैं.  यहाँ हम षड़यंत्र की राजनीति और जनता की रणनीति पर अरुंधती राय से नरेन सिंह राव की बातचीत पेश कर रहें हैं. ये साक्षात्कार समयांतर के फरवरी 2013 अंक में छपा था. पहेल इसे हाशिया ने जगह दी, वहाँ से मोहल्ला  में साभार लिया गया.  मोहल्ला से हम यहाँ ले आये हैं.      

आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?
मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गयी है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गये हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन
जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं – हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।
लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?
पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका ‘फर्ज’ बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।
मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।
जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गये हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।
जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?
देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए – भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी – क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ – वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।
क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है?
मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गये हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।
हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अन्‍ना हजारे…
अन्‍ना हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गये। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है – चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। … जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं… जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ ‘इस बलात्कार’ के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?
क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं?
देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां ‘चेक एंड बैलेंस’ का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता – भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि ‘उनके छोटे बनिये’ दांव पर लग गये हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।
दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता।
भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?
मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।
मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!
भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?
माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गयी है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गये हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गयी (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं?
हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है… मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।
मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।
हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं?
मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं… लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं ‘क्लास पोर्नोग्राफी’ कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना ‘ट्रिवियल’ होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।
विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?
देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी ‘जन आंदोलन’ होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।
जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें।
देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गयी थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गये? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गये। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाये। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।
अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।
वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है?
देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गये और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!
और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है…
सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।

Sunday, January 12, 2014

जबरदस्ती और जब्ती ज़ारी है..!!

जैसे जमीन हथिया ली जाती है वैसे ही आज महापुरुष और उनकी विरासत हथियाई जा रही है. जमीन या कोई भी चीज हथियाने वाल कौन होता है? जमींदार, सामंती, ताकतवर, अत्याचारी और दबंग. ये लोग कभी डंडे के जोर पर कभी बंदूक की नाल पर, जर-जमीन हथियाते रहे हैं. सत्ता के शिखर पर बैठे ये लोग, कमजोरों और मजलूमों की लाशो के अम्बार पर बैठे हुए लोग हैं. इनकी खुशियाँ न जाने कितने आंसूं पर हँसती हैं. इनका सुकून न जाने कितनों के दर्द पर पसरा हुआ है. मन तो करता है कि ऐसे ही लिखता रहूँ, पर ये लेख फिर उपमाओं की नदी हो जायेगा. जिसमे कुंठा और क्रोध बहता हुआ दिखेगा. कुंठा और क्रोध मनुष्य की शक्ति और सामर्थ्य का पतन कर देता है. ऐसा पिता जी कहा करते हैं. अभी-अभी याद आया सो लिख दिया.

खैर मैं क्रोध और कुंठा में नहीं हूँ पर ये देख कर हैरान हूँ कि कैसे ये सामंती, जमींदार, अत्याचारी और दबंग लोग राजनीति में भी महापुरषों और उनके संघर्ष की विरासत को हथिया रहे है. इस बार इनके हाँथ में बन्दूक नहीं है. लाठी डंडे नहीं है. इनके मुंह में नारे हैं, चेहरे पर अजीब रहस्यमयी भाव हैं. मानवता और करुणा की लच्छेदार बातें हैं और उन बातों के पीछे बहुत सारी साजिशें. ये विवेकानंद से लेकर भगत सिंह तक सब को हथिया लेना चाहते हैं. उनका सारा किया-कराया, कहा-सुना, खा पचा जाना चाहते हैं. देशप्रेम और राष्ट्र विकास के नाम पर, भारत माता की जय बोलते हुए ये लोग सिद्ध कर देना चाहते हैं कि भगत सिंह, दयानन्द सरस्वती, विवेकानंद, सरदार पटेल जैसे अनेक लोग इन्ही में से एक थे. जबकि मैं जानता हूँ कि ये लोग कुछ भी हों पर इन जैसे तो नहीं थे.  

ये रूढ़ीवादी राजनीती सामंत भारत माता की जय बोल कर विकेकानंद को हथिया रहे हैं और उनके जन्म दिवस पर उनकी तस्वीर के सामने गाना गा रहे हैं कि ''जागो हिंदू देश तुम्हे पुकार रहा है, इसे फिर से विश्व गुरु बनाना है,, मैं पूछता हूँ कि सिर्फ हिंदू ही क्यों जगे, और क्या सिर्फ हिंदू ही इस देश को विश्व गुरु बना सकता है. या फिर यह कहने का प्रयाश है कि भारत माता के लाल सिर्फ हिंदू है और जो कोई भी इन देशभक्त हिंदुओं के साथ हाँ में हाँ मिलाएगा, वही देश का लाल है. जो साथ है, देश भक्त है और जो साथ नहीं, वो देश द्रोही. ये कौन सी बात हुई भाई ?

तुम ही देश बनाओ और तुम ही देश भक्त. देश भक्ति के गीत भी तुम ही रचो और देश भक्ति की परिभाषा भी. ये कैसा देश है तुम्हारा ? जहाँ मूल देश कहीं दीखता ही नहीं. न दलित दीखते हैं, न मुसलमान दीखते हैं, न ही धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, न नास्तिक हैं और न महिलाएं. महिलाएं हैं भी तुम्हारे देश में तो देवी की तरह, शक्ति और माँ की तरह. भारत माँ का प्रशस्ति गान करने वाले लोगों तुमने रूप कँवर को माँ कह कर ही जला दिया था. तुमने देवी, जीवन आधार, माता जैसी उपमाएं दे कर ही देश की आधी आबादी को अब तक कैद रखा, अबतक शोषण करते रहे,  माफ करना ए देश भक्तों !तुम्हारा देश बहुत छोटा है, मेरा दम घुटता है इसमें. 

मैं तुम्हारे विवेकानंद को नहीं जनता, जो हिंदुओं के जागने और भारत को विश्वगुरु बनाने की बात करता था. हिंदू धर्म को सभी धर्मों से बड़ा कहता था और हिंदू धर्म की यश पताका पूरे विश्व में फहराने का उपदेश देता था. मैं उस विवेकानंद को जनता हूँ. जो कहता था कि अगर देश का कोई भी गरीब भूखा है. तो हमारा धर्म बेकार है. वो कहता था ये देवता और धर्म किसी काम के नहीं यदि मानवता कष्ट में है. वो कहता था कि गरीबों के लिए संघर्ष करना और उनकी सेवा करना ही सबसे बड़ा धर्म होना चाहिए. उसने बताया था कि इश्वर तुम्हारे कर्म में निहित है और तुम्हारा कर्म गरीबों की सेवा करना है. वो जब कहता था कि तुम गीता पढ़ने के बजाय मन लगा फूटबाल खेलो, और इसतरह तुम इश्वर के समीप रहोगे. तो मुझे एक क्रन्तिकारी दीखता था. जो कर्म की निष्ठा पर पूर्ण विस्वास रखता है. जब वो वेद में भी रूढ़ी हो चुकी बातों को नकारते हुए, आलोचना करता था तो वो मुझे एक क्रांतिकारी दीखता था और उसके भगवे वस्त्र के भीतर "लाल चरित्र" साफ़ झलक रहा होता था. मैं उस विवेकानंद से प्रेम करता हूँ. उसे आपना साथी मानता हूँ. उससे प्रेरणा लेता हूँ. जब कभी संघर्ष करता हूँ वो भी मेरे साथ होता है. 

तुम भगवा हाँथ में लेकर भगत सिंह से लेकर विवेकानंद तक सब को हंतियाने चले हो मगर याद रखना. ये लोग, विचार है. जागीर और जमीन नहीं, जो हथिया लोगे. तुम्हारे जूते में इनके पाँव फिट नहीं होते, और अगर जबरदस्ती करके इन्हें फिट करने की कोशिश करोगे तो तुम्हरा जूता फटना बिलकुल तय है. अगर जूता और पांव प्यारे हैं तो ऐसी गलती मत करना कि फिर काँटों की राह पर नंगे पाँव ही चलना पड़े. बाकी तुम समझदार हो. और समझदार को समझाने वाला बेवकूफ होता हैं इसलिए मैं तुम्हे समझाने से रहा. 

अनुराग अनंत 

Thursday, January 9, 2014

इतिहास, मोदी और अटल

जनसत्ता: 10 जनवरी, 2014, के सम्पादकीय पृष्ठ पर विजय विद्रोही का लेख "मोदी का मद और कद" अपने आप में मोदी के उदय का इतिहास बताता है. ये लेख संघ, अटल और मोदी के त्रिकोण और उनके बीच की गतिकीय को भी बयां करता है. एक जन नेता कैसे सही कहते और करते हुए नेपथ्य की ओर धकेल दिया जाता है और एक कट्टर छवि वाले व्यक्ति को संघ और भाजपा सर आँखों पर बिठाते है. ये व्यावहारिक राजनीति की बिसात पर आदर्श और मानवता की राजनीति की मात का समय था. अटल, संघ और उसके एजेंडे का विरोध करते हुए अपनी आदर्श की राजनीति साथ लिए हुए नेपथ्य में चले गए और उन्होंने इसी के साथ सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया.  वहीँ इस बार जब मोदी को दिल्ली दिख रही है तो उन्हें भी अटल की समता और सौहार्द की राजनीति का रास्ता चुनना पड़ता है. सवाल अब ये भी है कि क्या सत्ता पाने के लिए आदर्श, समता और मानवता, राजनीतिक जुमले होते है और सत्ता की कुंजी इन्हीं शब्दों में छिपी है, पर शासन व्यावहारिक राजनीति या यूं कहे समझौता-परस्त, कुटिल राजनीति से चलाया जाता है.  मोदी के उदय, अटल के प्रतिरोध और तात्कालिक घटनाक्रमों की एक व्यवस्थित तस्वीर पेश करता ये विजय विद्रोही का लेख....माडरेटर (अनुराग अनंत) 

अमदाबाद की एक अदालत ने गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को गुजरात के गुलबर्ग सोसाइटी में हुए दंगे के मामले में क्लीन चिट दे दी है। अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर काम कर रही एसआइटी की रिपोर्ट स्वीकार कर ली, जिसमें उसे मोदी के खिलाफ गुजरात के 2002 के दंगों को लेकर किसी तरह की आपराधिक लापरवाही के सबूत नहीं मिले। इस समय मोदी पर अब केवल नानावटी आयोग में मामले लंबित हैं, जहां प्रशासनिक लापरवाही की जांच होनी है। हालांकि एसआइटी की अंतिम रिपोर्ट को चुनौती देने वाली जकिया जाफरी का कहना है कि निचली अदालत के फैसले को वे उच्च न्यायालय में लेकर जाएंगी। भाजपा इसे मोदी के लिए बड़ी राहत बता रही है।

इस फैसले के बाद ही मोदी का लंबा बयान छपा, जिसमें उन्होंने दंगों को लेकर माफी तो नहीं मांगी, लेकिन दिल की बातें कहीं। दर्द, दुख, संताप जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। इसके साथ ही मोदी और तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के रिश्ते भी नए सिरे से लोगों को याद आने लगे हैं। पच्चीस दिसंबर को मोदी, वाजपेयी के जन्मदिन के मौके पर उनके घर जाकर आशीर्वाद लिया था। अगले ही दिन अदालत से मोदी को बड़ी राहत मिली। इससे पहले भी वाजपेयी भले मोदी की कुर्सी छीनना चाहते रहे हों, लेकिन अंतत: उनकी कोशिशों से मोदी को लाभ हुआ है।

सबसे पहली कोशिश गुजरात दंगों के बाद गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हुई थी। यह बैठक 12 अप्रैल 2002 को हुई थी। वाजपेयी ने हवाई जहाज में पत्रकारों को इशारा कर दिया था कि गोवा में मोदी की कुर्सी जा भी सकती है। वाजपेयी जिस हवाई जहाज में दिल्ली से गोवा गए, उसमें लालकृष्ण आडवाणी, अरुण शौरी और जसवंत सिंह भी थे। जहाज में ही वाजपेयी ने आडवाणी से पूछा था कि गुजरात का क्या करना है। आडवाणी ने कहा था कि बवाल हो जाएगा पार्टी में। फिर भी वाजपेयी को लगा कि मोदी को इस्तीफा देना ही चाहिए। यानी मोदी को लेकर दोनों में मतभेद थे, जिसे आडवाणी ने अपनी जीवनी ‘माई कंट्री माई लाइफ’ में स्वीकार भी किया है।

गोवा बैठक में मोदी ने अपने लंबे भाषण में गोधरा और गुजरात दंगों की विस्तार से चर्चा की। भाषण के अंत में अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी। पूरे हॉल में इस्तीफा मत दो, इस्तीफा मत दो के नारे गूंज उठे। मोदी के इस्तीफे की पेशकश के खिलाफ अरुण जेटली ने प्रस्ताव रखा, जिसका प्रमोद महाजन ने समर्थन किया, जो वाजपेयी के नजदीकी माने जाते थे। वाजपेयी सन्न रह गए। वे मोदी को लेकर पार्टी में अलग-थलग पड़ गए थे।

इस घटना के लगभग दो महीने बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी को खत में लिखा था कि मुझे पता चला है कि बहुत से मामलों में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा अभी तक नहीं मिला है। इसका कारण लाशों की पहचान न होना और गुमशुदा लोगों के बारे में जांच पूरी न होना बताया जा रहा है। अगर ऐसा है तो डीएनए सैंपल की जांच तय समय सीमा में पूरी कराई जाए। मुआवजा मिलने में देरी गंभीर चिंता का विषय है। उस समय आरोप लग रहे थे कि मुसलिमों को हुए संपत्ति के नुकसान को कम करके आंका जा रहा है और मोदी सरकार ऐसा जानबूझ कर कर रही है।

वाजपेयी का कहना था कि कुछ इलाकों में संपत्ति के नुकसान के हिसाब-किताब की जांच की जाए। अगर इस बात की पुष्टि होती है कि जानबूझ कर कम कीमत लगाई गई है तो फिर सरकार ऐसी शिकायतें करने वालों की संपत्ति की नए सिरे से जांच करे। अगर राज्य सरकार के पास पैसों की किल्लत है तो केंद्र आर्थिक मदद को तैयार है।

वाजपेयी ने दंगा पीड़ितों में बढ़ रही असुरक्षा की भावना पर भी गहरी चिंता व्यक्त की थी। उनका कहना था कि दंगा पीड़ितों को उनके घरों में फिर से बसाने की समुचित व्यवस्था राज्य सरकार को करनी चाहिए। सवाल है कि क्या वाजपेयी को यह खत इसलिए लिखना पड़ा, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी राजधर्म नहीं निभा रहे हैं, जैसा कि मोदी ने वाजपेयी से चार अप्रैल को वादा किया था। गुजरात में करीब दो सौ राहत शिविरों में करीब डेढ़ लाख दंगा पीड़ित रह रहे थे। उधर मोदी सरकार इन शिविरों को बंद कराना चाहती थी।

उसी दौरान मोदी ने राहत शिविरों में रहने वाले मुसलिमों के लिए पांच और हमारे पच्चीस वाला विवादास्पद बयान दिया था। इस बयान पर वाजपेयी खामोश रहे। यहां तक कि दो मार्च को राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने गुजरात दंगों को भारत के माथे पर काला धब्बा बताया, जिससे दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा गिरी। लेकिन अगले ही दिन सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक में हिंसा पर तो अफसोस जताया, लेकिन मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा कर रिपोर्टिंग करने का भी आरोप लगा दिया। वाजपेयी ने मीडिया को सकारात्मक भूमिका निभाने की नसीहत दी और विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की अपील ठुकरा दी।

गुजरात दंगों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी, तो राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को खत लिख कर चिंता व्यक्त की। उसके बाद वाजपेयी ने गुजरात का दौरा किया। तब उन्होंने कहा था कि आप संकट की इस घड़ी में अकेले नहीं हैं, पूरा देश आपके साथ है। अपने ही देश में शरणार्थी हो जाना, यह दिल को चीरने वाली बात है।... इतना सब हो जाने के बाद मैं विदेश कैसे जाऊंगा। क्या मुंह दिखाऊंगा। यह पागलपन बंद होना चाहिए।
दिन भर का दौरा खत्म करने के बाद देर शाम दिल्ली लौटते समय वाजपेयी ने पत्रकारों से बात की थी। उनके साथ मुख्यमंत्री मोदी भी थे। वहीं एक सवाल के जवाब में वाजपेयी ने मोदी से राजधर्म निभाने की अपील की थी। बीच में ही मोदी ने टोकते हुए कहा था कि यही तो कर रहा हूं। लेकिन राजधर्म की बात कहने से पहले ही वाजपेयी ने मोदी को अभयदान दे दिया था। एक सवाल के जवाब में उनका कहना था कि वे अभी नेतृत्व में कोई बदलाव नहीं देखते। वाजपेयी ने मोदी से यह भी कहा था कि उनकी सरकार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस सिफारिश पर विचार करना चाहिए, जिसमें लोगों को जिंदा जलाने के कुछ मामलों की सीबीआइ जांच कराने की बात कही गई है। मोदी ने इसे नहीं माना था।

दंगों के दाग मिटाने के लिए मोदी ने गुजराती अस्मिता का नारा दिया। गोवा की बैठक में जीवनदान मिला, तो उन्होंने जल्द चुनाव कराने की सोची। लेकिन उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह ने कहा कि स्थिति सामान्य होने पर ही चुनाव हो सकेंगे। मोदी ने तब गुजरात गौरव यात्रा निकाली, जिसमें वे अपने भाषणों में जानबूझ कर लिंगदोह का पूरा नाम लेते। जेम्स माइकल लिंगदोह। ताकि उन्हें ईसाई बताया और सोनिया गांधी से जोड़ा जा सके। दिल्ली में बैठे वाजपेयी चुपचाप यह सब देखते रहे।

दिसंबर 2002 में विधानसभा के चुनाव हुए। मोदी को एक सौ बयासी में से एक सौ सत्ताईस सीटें मिलीं और कांग्रेस के हाथ सिर्फ इक्यावन सीटें लगीं। मोदी का अमदाबाद के सरदार पटेल स्टेडियम में शपथ ग्रहण समारोह हुआ, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी भी शरीक हुए। मोदी का कद बढ़ गया था। पार्टी में मोदीत्व और हिंदुत्व एक दूसरे के पर्याय हो गए थे। वाजपेयी ने भी शायद इस सच को स्वीकार कर लिया था।

दिसंबर, 2003 में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत हुई। इस साल विकास दर आठ फीसद से ज्यादा थी। भाजपा को लगा कि भारत चमक रहा है। उसने समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने का फैसला किया।

मगर मई, 2004 में नतीजे आए तो बाजी पलट चुकी थी। वाजपेयी चुनाव की थकान दूर करने मनाली चले गए। सबको लगा कि वाजपेयी पार्टी की हार से दुखी हैं। मनाली में बैठ कर कुछ कविताएं लिखेंगे। लेकिन वहां वाजपेयी ने एक टीवी इंटरव्यू में लोकसभा चुनावों में हार की एक वजह 2002 के गुजरात दंगों को बताया। उनका कहना था कि मैं व्यक्तिगत रूप से मोदी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के हक में था। संघ परिवार से जुड़े नेताओं ने मोदी का पक्ष लिया।

वाजपेयी के बयान से संघ में भी हड़कंप मचा। मोदी के संरक्षक आडवाणी तो विवाद से दूर रहे, लेकिन आमतौर पर राजनीति से खुद को दूर रखने वाला संघ सामने आ गया। संघ प्रमुख केएस सुदर्शन ने गुजरात दंगों को लोकसभा चुनावों की हार से जोड़ने से साफ इनकार किया। उनका कहना था कि गुजरात दंगों के बाद भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कैसे जीत गई? यही बात प्रमोद महाजन ने भी कही थी। मोदी को नकारने का मतलब था, हिंदुत्व को ही नकारना। यह संघ को कतई मंजूर नहीं था।

हालांकि उस समय संघ भी मोदी के अहंकारी स्वभाव से खुश नहीं था। मोदी की खुले बाजार की आर्थिक नीतियों से संघ का एक धड़ा सहमत नहीं था। इस बीच मोदी के धुर विरोधी केशुभाई पटेल सक्रिय हो रहे थे। संघ मोदी को हटाना तो चाहता था, लेकिन हिंदुत्व की कीमत पर नहीं। वाजपेयी यहीं गलती कर गए। चुनावों में हार के हर पहलू पर चर्चा होनी ही थी। तब मोदी या गुजरात दंगे का मुद्दा किसी न किसी रूप में उठता ही। फिर वाजपेयी दिल्ली से मनाली पहुंचे तो उनका सुर ठंडा पड़ चुका था। मोदी पर सवाल पूछा गया तो वाजपेयी ने कहा कि मोदी को हटाने का मुद्दा पुराना हो गया है, खत्म हो चुका है। उन्होंने मोदी के समर्थकों से कहा कि वे नए साल की तरफ देखें और अगले विधानसभा चुनावों की तैयारी करें। दरअसल, भाजपा नेताओं ने वाजपेयी को शांत करने के लिए समझौता किया। पार्टी की संसदीय दल की बैठक बुला कर गुजरात पर चर्चा करने और चुनावी नतीजों की पड़ताल के लिए पैनल बनाने पर सहमति बनी।

जानकारों का कहना है कि वाजपेयी यही चाहते थे कि चुनावों में हार के लिए उनकी सरकार को दोषी न ठहराया जाए। वे ठीकरा मोदी के सिर फोड़ना चाहते थे, लेकिन अपनी ही चाल में फंस गए। इसका राजनीतिक खमियाजा उन्हें मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में झेलना पड़ा। इस बैठक के बाद ही मोदी संघ के नए हीरो बन गए थे। वाजपेयी धीरे-धीरे सक्रिय राजनीति से खुद को अलग करते चले गए। मोदी का उदय हो रहा था और वाजपेयी की राजनीति का सूरज अस्ताचल की तरफ जा रहा था।

खैर, अब वाजपेयी सक्रिय राजनीति से खुद को अलग कर चुके हैं। उधर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद मोदी के स्वर बदले हैं। वे हिंदुओं और मुसलमानों की साथ-साथ तरक्की की बात करने लगे हैं। संभव है कि अदालत के ताजा फैसले के बाद मोदी के रुख में और बदलाव आए।

 विजय विद्रोही 



                                                                                                                                                 

स्त्री लेखन, मर्दों के कुंठित मनोरंजन का समान मात्र है क्या ?

लेखिका शालिनी माथुर ने तहलका के 'पठान-पाठन' अंक (जनवरी अंक) में  "मर्दों के खेला में औरत का नाच" नामक शीर्षक से लेख लिखा है. ये लेख कई सारे सवाल एक साथ उठता है. विमर्श के नाम पर महिला के शरीर को यौनिक वस्तु की तरह देखने और कुंठित समाज में उसे साहित्य के नाम से बेचने का ये खेल कहीं न कहीं साहित्यिक मठाधीशी और पुरुषवादी अभिव्यक्ति का ही रूप है. ये महिला सशक्तिकरण से कही भी कोई राब्ता नहीं रखता है. अश्लीलता के व्यापार को साहित्य का तमगा कैसे और क्यों पहनाया जा रहा है ? इस सवाल की पड़ताल करता और समस्या पर प्रकाश डालता है. ये लेख आप सब से साझा कर रहा हूँ. ....अनुराग अनंत. (तहलका से साभार लिया गया है)


शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. बाबा साहब आंबेडकर ने समानता के जिस अधिकार की बात संविधान में लिखी थी, उसमें से लिंगाधारित भेदभाव दूर करने के लिए बालिका शिक्षा अभियान, सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और कार्य स्थल पर यौन शोषण विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम जैसे कानून बने.  दहेज प्रथा, कन्याभ्रूण हत्या और बाल विवाह आज भी मौजूद हैं और उनके खिलाफ आंदोलन जारी है. मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भारत दुर्दशा पर कविता और नाटकों से ले कर प्रेमचंद की कहानियों और महादेवी वर्मा के निबंधों ने मानवीय समकक्षता की चेतना जगा कर सामाजिक बदलाव के तमाम प्रयासों में साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान किया था. आज देखें कि सामाजिक आंदोलनों ,कानून में बदलाव और सरकार के प्रयासों से आ रही स्त्रीमुक्ति की इस चेतना का समकालीन हिंदी लेखन, जिसे साहित्य कहने से परहेज करना उचित होगा, में कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है.

स्त्रीलेखन होता क्या है? क्या वह, जो कुछ भी स्त्री लिख दे, या वह, जो स्त्री के विषय में हो, या वह, जो स्त्रीवादी हो, या वह, जो स्त्री समर्थक हो? स्त्री लेखन के नाम पर आज जो कुछ परोसा जा रहा है, आखिर वह है क्या? आइए देखें.

कुछ समय पहले मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेत्री और वयोवृद्ध हिंदी लेखिका रमणिका गुप्ता का एक साक्षात्कार एक पत्रिका में छपा था. उसमें उनका कहना है कि सत्ता पाने के लिये हर एक को कुछ न कुछ देना पड़ता है. पुरुष धन देते हैं और स्त्रियां अपना शरीर. वे बताती हैं कि अपनी पार्टी के लिए जमीन आवंटित करवाने के लिए वे बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री केबी सहाय से मिलीं, जिन्होंने उन्हें एकांत में बुलाकर कहा कि जो चाहो मांग लो और तत्काल कागज़ पर हस्ताक्षर कर दिए. फिर मुख्यमंत्री ने लेखिका को आलिंगन में भर कर चूम लिया. रमणिका गुप्ता आह्लाद से भर उठीं और उन्हें लगा कि चुंबन द्वारा मुख्यमंत्री ने अपनी सत्ता उन्हें हस्तांतरित कर दी है. लेन-देन की यही अवधारणा उनकी कहानी ‘ओह ये नीली आंखें’ में भी दिखती है जिसमें एक स्त्री अपने पति व बच्चे के साथ ट्रेन में यात्रा कर रही है, साथ वाली बर्थ पर एक नीली आंखों वाला यात्री लेटा है और ऊपर की बर्थ पर पति और बच्चा. स्त्री सहयात्री के साथ ट्रेन में सहवास करती है क्योंकि उसे नीली आंखें पसंद हैं और उसे भी सौंदर्यपान करने का पूरा हक है. अपने साक्षात्कार में प्रगतिशील लेखिका बताती हैं कि वे अपनी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की ट्रेड यूनियन के काम से धनबाद की कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के सिलसिले में केंद्र में कांग्रेस सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री नीलम संजीव रेड्डी से मिलने गईं जहां पर होटल के कमरे में वे एकदम निर्वस्त्र होकर उनके सामने आ खड़े हुए और लेखिका की मर्जी के विरुद्ध उनके साथ सहवास किया. जनवादी लेखिका ने शिकायत नहीं लिखवाई (अंग्रेजी आउटलुक 18 जनवरी 2010). ये हैं ‘युद्धरत आम आदमी’ की संपादक के आचार-विचार. आम आदमी युद्धरत है और आम औरत?
तहलका वेबसाईट से साभार 
गीताश्री की एक कहानी ‘प्रगतिशील इरावती’ मार्च,  2013 के महिला विशेषांक में छपी है- ताप. एक युवा पुत्री की मां अपने बूढ़े पति की शारीरिक भूख से त्रस्त है. वह अपनी व्यथा पुत्री को बताती है. एक आधुनिक युवा पुत्री पिता को समझाने, किसी सलाहकार के पास भेजने या उनके आगे कोई अन्य विकल्प रखने के बजाय खुद उनके लिये एक युवा वेश्या खरीद लाती है जो घर पर ही आकर पिता को होमसर्विस देकर उनकी भूख शांत कर दे. यानी एक युवा स्त्री अपने वृद्ध पिता के लिए दूसरी युवा स्त्री को यौनदासी बनाती है. स्त्री सशक्तीकरण की चरम अवस्था को प्राप्त कर चुकी इस लेखिका की कहानी में एक ट्विस्ट है. कहानी के अंत में युवा वेश्या युवा पुत्री से कहती है- ‘ये किसी काम का नहीं है. तुम बेकार अपने पैसे बर्बाद कर रही हो. मैं ठरकी बुड्ढों को खूब जानती हूं. अंग्रेज़ी मुहावरा याद है न- ‘द डिजायर इज हाइ बट द फ़्लेश इज वीक.’ बोल्ड लेखिका के रूप में एक विशेष समूह द्वारा अति प्रशंसित गीताश्री इससे पूर्व ‘इंद्रधनुष के उस पार’ कहानी में दिखा चुकी हैं कि कॉरपोरेट दफ्तर में काम करने वाली युवती परेशान है कि उसका बॉस उसके कपडे-लत्तों पर हरदम रोक-टोक करवाता रहता है. युवती की चिंता सही भी है क्योंकि सभ्य समाज यही मानता है कि स्त्री को अपने वस्त्र स्वयं चुनने और पहनने का पूरा हक है . मगर इस कहानी में भी ट्विस्ट है. लड़की अपनी पोशाक स्वयं तय करने के अधिकार का प्रयोग करते हुए पूर्णतया निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है जहां पर सभी लोग निर्वस्त्र आए हैं, वह बॉस भी जो उसे स्लीवलेस टॉप पहनने पर टोकता था. ऐसी पार्टियां हमारे समाज में होती हैं या ‘इंद्रधनुष के उस पार’ यह कह पाना कठिन है.शिक्षा, सत्ता और संपत्ति से स्त्रियों को सदियों तक वंचित रखा गया. आज भारत की स्त्री के पास मुक्ति की जो भी चेतना है वह उसके लिए बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ही ले कर आया है. स्त्री स्वातंत्र्य की इस चेतना ने हमारा जीवन बदल दिया. आज जिस जमीन पर हम खड़े हैं उसे तैयार करने में हमारी पूर्ववर्ती महिला आंदोलनकारियों,  समाजसेवियों और चिंतकों ने बहुत श्रम किया है. बाबा साहब आंबेडकर ने समानता के जिस अधिकार की बात संविधान में लिखी थी, उसमें से लिंगाधारित भेदभाव दूर करने के लिए बालिका शिक्षा अभियान, सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और कार्य स्थल पर यौन शोषण विरोधी अधिनियम, घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम जैसे कानून बने.  दहेज प्रथा, कन्याभ्रूण हत्या और बाल विवाह आज भी मौजूद हैं और उनके खिलाफ आंदोलन जारी है. मुड़कर देखें तो पाएंगे कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भारत दुर्दशा पर कविता और नाटकों से ले कर प्रेमचंद की कहानियों और महादेवी वर्मा के निबंधों ने मानवीय समकक्षता की चेतना जगा कर सामाजिक बदलाव के तमाम प्रयासों में साहित्य के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान किया था. आज देखें कि सामाजिक आंदोलनों ,कानून में बदलाव और सरकार के प्रयासों से आ रही स्त्रीमुक्ति की इस चेतना का समकालीन हिंदी लेखन, जिसे साहित्य कहने से परहेज करना उचित होगा, में कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है.
जयश्री रॉय की ‘औरत जो एक नदी है’ नाम की कहानी भी है और इसी नाम का उपन्यास भी. पुरुष की ओर से लिखा पूरा उपन्यास शयनकक्ष, शराब, फेनी, बियर, बकार्डी, बिस्तर और उस पर केंद्रित लंबे उबाऊ संवादों से भरा है. कई दशक पूर्व के घोर मर्दवादी लेखक जैनेंद्र की धारणा थी, पत्नी घर में, प्रेयसी मन में. इस विषय पर शायद एक लंबी चर्चा भी चलाई गई थी. लेखिका इस धारणा के अनुरूप स्वयं को ढाल चुकी हैं. पुरुष के पास तीन औरतें हैं, एक पत्नी उमा, और दो प्रेयसियां-दामिनी और रेचल ,जो तलाकशुदा हैं. पुरुष को पत्नी की ‘साड़ी से रसोई की गंध’ आती है और प्रेमिका के शरीर से ‘परफ़्यूम’ की. कामना पुरुष की ही है और स्त्रियां अन्नपूर्णा नहीं, थाली में रखे हुए व्यंजन हैं, स्वयं को परोसती. दामिनी शादी को वेश्यावृत्ति बताती है जिसमें ‘स्त्री को आजन्म गुलामी करनी पड़ती है’,पर खुद क्या करती है? एक विवाहित आदमी की देह पर आइस क्यूब रगड़ते हुए कहती है, ‘अपनी वाइल्ड फैटेंसी पूरी कर लो. देह से ही मन का रास्ता जाता है.’ विवाहित आदमी कहता है ,  ‘तो क्या मैं तुम्हारी इस न जाने किस किस की जूठन बनी देह के पीछे था?’  शादी को वेश्यावृत्ति बताने वाले और अजनबियों के साथ यौनसंसर्ग करते ये नर-मादा क्या एक-दूसरे का सम्मान या एक-दूसरे से प्रेम कर पाते हैं?
इन्हीं लेखिका की ‘देह के पार’ कहानी में प्रौढ़ स्त्री नव्या अपनी बेटी को स्कूल छोड़ कर आने के बाद अपने से 10 वर्ष छोटे बेरोजगार युवक को खरीद लाती है. ‘इस साल यह उसकी चौथी नौकरी छूटी थी. ‘अब खाओगे क्या?’ ‘तुम हो न मेरी सेठानी’ कहते हुए उसने नव्या के पर्स में से 500 का नोट निकाल लिया जो नव्या को अच्छा नहीं लगा. युवक ने तीन तस्वीरें दिखाते हुए कहा ‘इनमें से एक तस्वीर चुनो मुझे इस साल शादी करनी पड़ेगी….’ मैं तो कहती हूं तीनों से कर लो, तुम तो हो ही कैसानोवा सौ को भी एक साथ संभाल लोगे.’… अय्याश अफसरों  की बूढ़ी-अधबूढ़ी सेठानियों को शरीर बेचने वाला युवक कहता है, ‘कोई अपना हुनर बेचता है कोई फन कोई अक्ल. मैं अपनी सुंदरता बेचता हूं.  इट्स दैट सिम्पल. बास. अगले हफ्ते दुबई जा रहा हूं, शेख़ साहब का मेहमान बन कर.’ जयश्री रॉय की अन्य अनेक कहानियों के अनेक पात्रों की तरह युवक भी विवाह को वेश्यावृत्ति मानता है. देह से ही मन का रास्ता जाता है, जयश्री रॉय के इस सिद्धांत के आधार पर उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद युवक भी दुबई में शेख साहब की देह से ही शेख साहब के मन में दाखिल हो जाएगा.
जयश्री रॉय की कहानियों में से एक को दूसरी से अलग कर पाना कठिन है. एक-सा कथानक, एक-से संवाद ,एक-सी बनावटी भाषा यहां तक कि एक-से शीर्षक. उनके पात्र परस्पर देह संबंधी लंबी चर्चाएं करते हैं पर देह के पार नहीं पहुंच पाते. एक-दूसरे को खरीद कर दैहिक भूख पर विस्तृत विचार-विमर्श करने वालेे ये पात्र कहां के रहने वाले हैं? वे जो भाषा बोलते हैं वह कहां बोली जाती है? पुरुष वेश्या और पुरुष शरीर खरीदने वाली सेठानी क्या परस्पर जयशंकर प्रसाद की कामायनी या स्कन्दगुप्त वाली भाषा में बात करते होंगे?
नदी सीरीज में वरिष्ठ जया जादवानी भी शरीक हो गईं. उनकी ‘समंदर में सूखती नदी’ में ‘दोनों बच्चों के होस्टल चले जाने के बाद वे दोनों अकेले रह गए थे. अब उसे अपनी पत्नी की देह पका हुआ कद्दू लगती थी जिस पर वह अक्सर स्वयं को निष्प्राण लेटा हुआ पाता था…. उसे कुछ नया चाहिए था…. उसने सोचा था उसका सामना ऐसी लड़की से होगा जिसने अपनी देह को दुकान की तरह सजाया होगा. ‘प्रौढ़ पुरुष और युवा लड़की लांग ड्राइव पर जाते हैं और स्त्री-पुरुष संबंधों पर सात पृष्ठ लंबी चर्चा करते हैं, ‘तुम स्त्रियां ही ढिंढोरा पीटती हो कि तुम मात्र जिस्म नहीं हो. यही एक चीज ले कर खड़ी रहती हो तुम पुरुषों के सामने.’ यह कहानी शायद जादवानी ने कॉलगर्ल की गरीबी के बारे में लिखी है क्योंकि अंतिम पंक्ति में वह ‘बहुत जोर से रोना चाहती है पर आंसू कहीं घुट कर रह गए.’ (कथादेश, सितंबर 2012)
जयश्री रॉय की कहानी में एक प्रौढ़ स्त्री युवा पुरुष वेश्या को खरीदती है तो जया जादवानी की कहानी में एक प्रौढ़ पुरुष एक युवा स्त्री वेश्या को . स्त्री लेखन के नाम से परोसी गई यह सामग्री कोई अलग स्वीट डिश नहीं, अब इसे ही स्त्री लेखन का महाभोज माना जा रहा है. ये सच्ची कहानियां हैं या काल्पनिक? यह यथार्थ है या जादुई यथार्थ?
लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास चाक की नायिका सारंग किशोरी बालिका के रूप में ‘सत्यार्थप्रकाश के बीच रखी ऋतुसंहार की पतली सी किताब पढ़ती है’ और बताती है ‘40 वर्ष की अवस्था के, गोरे रंग और लंबे कद के मुलायम मुख वाले शास्त्री जी की छवि बुरी तरह तंग किए थी. खादी के वस्त्र पहने हुए – काश महीन वस्त्र पहने होते. मैं भोग की इच्छा रखती हुई भी शास्त्री जी की बांहों में फिसल रही थी.’ (चाक,   पृ. 89-90). अधेड़ उम्र की भाभी रिश्ते के ननदोई की मालिश करती है, ‘ज्यादा ही सरमदार का घुसला बन रहा था, तैमद ऊपर को सरकावै ही न. लत्ता जितना ही ऊपर उठाऊं , उतना ही भींचता जाय तैमद को. मैंने कही, लुगाई है रे तू? जबरदस्ती तैमद खोल कर फेंक दिया बंजमारे का… मैंने ऐसी मालिश करी जैसे छः महीने का बालक हो और फिर खाट पर लोट गई उसके बरब्बर में. बोल दिया कि लल्लू कैलासी, भूल जाओ रिश्ते नाते… और फिर ये तो देह रहते के खेला हैं रे. पाप पुन्न मत सोचना’ (चाक, पृ.104). रंजीत की पत्नी सांरग श्रीधर के साथ आनंद में मग्न है,  ‘श्रीधर, अगर तुम्हारी आंखें इस देह को देख कर आनंद पाती हैं तो जी भर कर देखो मुझे. मेरी सुंदरता सार्थक हुई. भोग करने से तुम्हारे प्राण तृप्त हों तो आओ रात बाकी है अभी’ (पृ. 329 चाक)? जून, 2008 के संपादकीय में राजेंद्र यादव कहते हैं, ‘औरतों के पास उनकी देह है वरना योग्यता के नाम पर उनके पास रखा ही क्या है.’ मैत्रेयी पुष्पा की नायिका कहती है, ‘मेरे पास था ही क्या – हरी भरी देह.’ (चाक, पृ. 329 )
लेनिनवादी लेखिका रमणिका गुप्ता की एक अन्य कहानी में एक स्त्री एक आकर्षक अश्वेत पुरुष के शरीर का उपभोग करना चाहती है. वह रात को स्त्री के होटल के कमरे में आ पहुंचता है. आगे की गतिविधि का वर्णन लेखिका ने विस्तार से किया है. अजनबी अश्वेत पुरुष जाते वक्त एक गुड़िया छोड़ जाता है. गुड़िया शीर्षक कहानी में यह गुड़िया नायिका को संदूक में मिलती है.

जैसी गुड़िया रमणिका की नायिका को संदूक में मिली वैसी ही एक गुड़िया मैत्रेयी पुष्पा के भीतर भी है. वे किसी कार्यक्रम में आमंत्रित की गईं और गेस्ट हाउस में ठहराई गईं . लॉबी में उनके पीछे चल रहे राजेंद्र यादव कहीं ‘बुखार का ताप देखने के लिये उनकी कलाई न पकड़ लें’ इस डर से वे उनसे अधिक बात न बढ़ाकर जल्दी से अपने कमरे में चली गईं. मगर आधी रात को प्यास लगने पर रूमसर्विस से पानी न मंगा कर वे राजेंद्र यादव के कमरे का दरवाजा खटखटाती हैं और दरवाजा छूते समय उन्हें लगता है कि उन्होंने ‘राजेंद्र यादव को छू लिया’. (गुड़िया भीतर गुड़िया, पृ. 315-316 )
विचार का विषय है कि रिश्ते के ननदोई की लुंगी खींच कर उसे फुल बॉडी मसाज देने वाली अधेड़ भाभी के लल्लू कैलासी के साथ स्वच्छंद यौनाचार का विशद वर्णन करने वाली 1944 में जन्मी वयस्क लेखिका ने 2008 में एकाएक ‘गुड़िया’ बनकर लकड़ी के दरवाजे को छू कर राजेंद्र यादव कैसे समझा? यही नहीं, कैसे उन्होंने इस प्रसंग को इतना अधिक महत्वपूर्ण समझा कि उसे अपनी आत्मकथा का हिस्सा बनाया. यौन सक्रियता के वर्णन में सारे लेखकों को पीछे छोड़ कर इस क्षेत्र की पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुकी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा संपादक के आगे चाइल्ड वुमन बन जाती हैं, उन्हें छूने को लालायित. क्यों?
बार्बी डॉल 1959 में बनाई गई थी. उसका चेहरा बच्चों जैसा था पर शरीर वयस्क. कम्युनिस्ट रूस ने इन गुड़ियों पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि इन्हें बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना गया (द ऑबजर्वर, नवंबर 2002). लेकिन हमारे हिंदी के जनवादी मठाधीशों ने अनेक बार्बी डॉल्स तैयार कर ली हैं जो वयस्क हैं, पर जो अपने हाव-भाव शिशुवत रखती हैं. चाइल्ड वुमन पोर्नोग्राफर का सबसे हसीन ख्वाब होती है. बालबुद्धि वाली इठलाती, तुतलाती, पलकें झपकाती वयस्क शरीर वाली स्त्री. विडंबना यह है कि यह सारा खेल स्वयं को जनपक्षधर, प्रगतिशील, सेक्युलर बताने वालों के दरबार में चल रहा है, न कि रूढि़वादियों के बीच. ये डॉल्स वृद्धवृंद की फरमाइश पर रचनाएं प्रस्तुत करती हैं, और उनके सुझाव पर रचना में परिवर्तन, परिवर्द्धन करते हुए उसे मनोरंजन का खजाना बना देती हैं.
इसी बीच एक युवा लेखिका ज्योति कुमारी की किताब को अचानक बेस्टसेलर घोषित कर दिया गया. इस किताब में शरीफ लड़की नामक कहानी में पाठकों को चौंकाने के लिए लड़की के 14 वर्ष की हो जाने का विस्तृत विवरण है. ऐसा और इससे भी अधिक विस्तृत विवरण पाठक आज से 40 साल पहले कमला दास की आत्मकथा में पढ़ चुके थे अतः वे चौंके ही नहीं. जुगुप्सा जगाने में कोई कसर न रह जाए इसलिए उसके तत्काल बाद लड़की के प्रेम प्रसंग का वर्णन है- ‘लड़की वीर्य से लिथड़ी है…ऊपर से नीचे तक…आगे से पीछे तक…अंदर से बाहर तक उसका रोम रोम लिथड़ा है.’(हंस). यह किशोर-किशोरी के प्रेम का वर्णन है या किसी सूनामी का? क्षमा कीजिएगा, मेरी जिज्ञासा है कि आखिर एक किशोर बालक के पास कितने लीटर वीर्य होता है? देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी जेएनयू के साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने इसकी प्रशंसा में ‘इसे अनदेखा करना मुमकिन नहीं’ शीर्षक आलेख लिखा और स्त्री लेखन के क्षेत्र की इस ज्योति की शान में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता उद्धृत की. युवा लेखिका की क्रांति न केवल कथ्य में है बल्कि शिल्प में भी है. प्रतिष्ठित साहित्यकार महेंद्र राजा जैन ने हिंदी के विराम चिह्नों के उपयोग के बारे में एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है. ज्योति कुमारी ने अर्धविराम, अल्पविराम और पूर्णविराम को तिलांजलि देकर एक नई परंपरा का सूत्रपात किया. वे हर वाक्यांश के बाद तीन बिंदु लगाती हैं. कहानी में लगभग 595 बार तीन बिंदुओं का प्रयोग है. लगभग 1,785 बिंदुओं वाली इस रचना को देखकर निर्णय करना कठिन हो जाता है यह गद्य लिखा गया है या बूंदों वाली रंगोली.
असली जीवन में जमीनी काम करते हुए हमने सैकड़ों किशोर- किशोरियों के प्रेम प्रसंग देखे हैं. इनका प्रेम टूटते भी देखा, टूटते दिलों की कहानी भी सुनी, उन्हें सांत्वना दी और आत्महत्या करने से रोक कर फिर से जीने के लिए प्रेरित भी किया. मेरा विश्वास है कि कोई भी 18 वर्ष के किशोर-किशोरी अपने पहले प्यार का वर्णन उन शब्दों में नहीं कर सकते जिनमें ज्योति कुमारी ने किया. असली प्रेमी आज भी एक-दूसरे को खून से चिट्ठी लिख रहे हैं, मां-बाप का घर छोड़ कर भाग रहे हैं, नदी में कूद कर एक साथ जान देने को तैयार हैं. मेरा अनुभव है कि आज भी प्रेम में पड़ने वाले लोग प्रेम ही करते हैं. ज्योति कुमारी की प्रशस्ति नामवर सिंह के हस्तलेख में इंटरनेट पर भी उपलब्ध है. जाहिर है, ऐसा विशद वर्णन वृद्धजनों की खातिर ही किया जाता है.
यह सब यूं ही नहीं हुआ है. हंस संप्रदाय के सतत और अथक प्रयासों से पोर्नोग्राफी का जो अश्लील अनुष्ठान हिंदी लेखन में जनवाद के नाम से आयोजित किया गया है, उसमें उसी प्रकार की स्त्रियां भी शामिल कर ली गई हैं. यह मर्दों द्वारा चयनित स्त्रियों का नृत्य है जिसमें वयोवृद्ध रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, प्रौढ़ गीताश्री और जयश्री रॉय आदि तथा युवा ज्योति कुमारी जैसी अनेक स्त्रियां शरीक हैं. यह सूची बड़ी लंबी है.
दरअसल विगत कई दशकों से हंस संप्रदाय सारी स्त्रियों को यौनकर्मी साबित करने पर तुला हुआ है. हंस के स्तंभकार अभय कुमार दुबे के शब्दों में, ‘लेकिन क्या सेक्सवर्क के जरिये भी स्त्री सबलीकरण की राह पर चल सकती है? यौनकर्म में समाजसेवा या सेक्सुअल थेरेपी के पहलू अंतर्निहित होने का तो तर्क बनता है.’ दुबे नारीवाद से असहमत हैं, ‘नारीवाद की बौद्धिक दुनिया सेक्सवर्क को दो हिस्सों में बांट देती है. वह वेश्या के सेक्सवर्क को बिना पारिश्रमिक लिए सेक्सवर्क कर रही औरतों के बरक्स रखते हुए विभिन्न तर्कों के आधार पर उसे निकृष्ट और स्त्री की आजादी के लिए नुकसान देह मान लेती है. चाहे वह प्रेमिका द्वारा किया गया हो या विवाहिता पत्नी द्वारा, मुफ्त में किया गया सेक्सवर्क उच्चतर, उदात्त और एक हद तक मुक्तिकारक बन जाता है…. नारीवाद उसमें ज्यादा से ज्यादा दैहिक संतुष्टि की दावेदारी और प्रेम के तहत किए जाने वाले सेक्स को और जोड़ देता है. लेकिन प्रेम और प्रजनन से रहित, पारिश्रमिक की अपेक्षा में किया गया सेक्सवर्क इस विचारधारा की निगाह में जिंसीकरण कहलाता है या यौन दासता का पर्याय मानकर उसे कलंकित कर दिया जाता है.’ (हंस, जुलाई 2008)

दुबे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि ‘स्त्री हमेशा सेक्सवर्क ही करती है भले ही वह अपनी दैहिक संतुष्टि के लिए करे, प्रेम के तहत करे, प्रजनन के लिए करे, विवाहिता के रूप में करे, चाहे प्रेमिका के रूप में, वह मुफ्त का वर्क है.’  दुबे जी के इतना विस्तार से समझाने पर अब तक इतना तो पाठकगण समझ ही चुके होंगे कि सारी स्त्रियां यौनकर्मी हैं, नाचने-गाने की तरह यौनकला भी स्त्री सबलीकरण का माध्यम है और स्त्री यौनकर्म द्वारा समाज सेवा या सेक्स थेरेपी करती है. मेरा सवाल यह है कि क्या उसी गतिविधि में संलग्न उनके साथी, प्रेमी, पति भी यौनकर्मी ही हैं या कुछ और एक ही खेल का एक प्रतिभागी ग्राहक-उपभोक्ता और दूसरा प्रतिभागी वर्कर किस आधार पर बनता है? क्या दुबे के लोकतंत्र में स्त्री-पुरुष समकक्ष नहीं हो सकते? कैसे एक क्रेता बनता है, दूसरा क्रीत? (नवरीतिकालीन, कथादेश, सितंबर 2008). हिंदी की जिन प्रवृत्तियों का उल्लेख मैंने उस लेख में किया था, वे आज अपनी पूरी कुरूपता में सबके सामने खड़ी हैं. स्वस्थ साहचर्य में अक्षम व्यक्ति अक्सर ब्लू फिल्में बनाते-देखते, अश्लील एसएमएस भेजते और फोन पर अश्लील वार्तालाप करते हुए धरे-पकडे़ जाते रहे हैं. यह उसी तरह का मानसिक व्यभिचार है.
मर्दों के इस खेला में पुरुषों को आनंद देने के लिए औरतों की एक ऐसी पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है. उसमें न चेतना है, न हृदय, न मन और न भावना. यह पोर्न की क्लासिकल सेडोमेसोचिस्ट छवि है. इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है. गीताश्री की नायिका के वस्त्र कोई बलात्कारी नहीं उतारता, वह स्वयं ही निर्वस्त्र होकर न्यूड पार्टी में जाती है. उनकी दूसरी कहानी में युवा वेश्या का शोषण कोई पुरुष नहीं करता, कहानी की नायिका ही दूसरी स्त्री का शरीर खरीद कर अपने वृद्ध पिता के आगे परोसती है. बोल्ड मानी जाने वाली मैत्रेयी की नायिका सारंग अपनी
हरी-भरी देह परोसती है, मास्टर श्रीधर भोग लगाता है. यह समकक्षता की भाषा नहीं है.
अखबार पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों के मनमाने निर्णयों से भरे हैं जिनमें प्रेम करने के अपराध में युवक-युवतियों के नाक-कान काटे जा रहे हैं. उन्हें खुलेआम पेड़ों पर लटकाया जा रहा है. उन्हें बिरादरी के बाहर भी प्रेम करना मना है और गोत्र के भीतर भी. महिलाओं का 33 प्रतिशत आरक्षण ग्राम पंचायतों में है, समाज के निर्णय ले रही खाप पंचायतों में कहां?

मगर ग्रामीण जीवन की चर्चित चितेरी मैत्रेयी पुष्पा की ग्रामीण स्त्री कहती है, ‘चल लुच्ची, हम जाटिनी तो जेब में बिछिया धरे फिरती हैं. मन आया ताके पहर लिए.’ (चाक, पृ.104).  ऐसी स्वयंसिद्धा-स्वयंवरा स्त्रियों वाले गांव पश्चिमी उत्तर प्रदेश या बुंदेलखंड के किस जिले में हैं? घर पर एक पत्नी के रहते दूसरी स्त्री को ले आने पर पत्नियां त्रस्त हो कर पति की शिकायत करती देखी जाती हैं. शिकायत लिखवाने पर भारतीय दंड संहिता की एडल्ट्री के विरुद्ध बनी धारा 497 के अंतर्गत पुरुष दंडित होता है. मगर अपनी ससुराल में ही एक पति के रहते हुए रंजीत की युवा पत्नी सारंग स्कूल के मास्टर श्रीधर के साथ भोगविलास में मग्न है. पति के प्रतिरोध करने पर उसका ससुर अपने बेटे को समझाता है कि पति का काम पत्नी के ‘लहंगे की चैकीदारी करना नहीं.’ क्यों न खाप के निर्णयों से त्रस्त जोड़ों को मैत्रेयी पुष्पा वाले उसी जिले में भेज दिया जाए जहां पर यौनक्रांति का ऐसा बिगुल बज चुका है कि स्त्री-पुरुष स्वेच्छा से जब चाहे जितने चाहे उतने यौन साथी चुन सकते हैं?
स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहे अश्लीलता के इस यज्ञ में हवि डालने पर स्त्रियों को भी उनका यज्ञफल पर्याप्त मात्रा में मिला है. दैनिक अखबार नवभारत टाइम्स में अक्टूबर, 2013 में एक खबर छपी. इसके मुताबिक लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पाठ्यक्रम में से महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ हटा कर उसके स्थान पर मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’ नहीं लगाई जा सकी इसलिए साम्यवादी विचारधारा वाले स्वैच्छिक संगठन ने विश्वविद्यालय की निंदा की है.
स्त्रीमुक्ति के नाम पर क्रांति के इस नए चलन में फेसबुक वाली नई तकनीक के भी दर्शन होते हैं. 75 वर्षीय लेखक प्रेमचन्द सहजवाला की फेसबुक वाली कहानी एक युवक की ओर से लिखी गई है, जो एक युवती के आमंत्रण पर उसके घर जाता है और उसके माता पिता के सामने ही युवती के साथ सहवास करके वापस अपने शहर लौट जाता है. गीताश्री ने भी एक युवा स्त्री के बारे में कहानी लिखी जिसमें नायिका अपने पार्टनर से उस समय रूठ जाती है जब वे दोनों बेड पर थे. ‘इंद्रजीत बिना किसी भूमिका के भड़क उठा था – ‘तुम्हें अपने बॉस के साथ अकेले बार में नहीं जाना चाहिए था. ….अर्पिता के मन में आया कह दे कि तुम्हारे पांव की जूती नहीं हूं. पति की तरह सामंत मत बनो पर कह न सकी…. अधखुली किताब की तरह अर्पिता को आतुर, अतृप्त और फड़फड़ाती छोड़ कर इंद्र जा चुका था.’ गीताश्री की नायिका सशक्त है. वह एक रात भी अकेली क्यों गुजारे? वह तत्काल ‘लैपटॉप लेकर बेड पर बैठ गई, फेसबुक ऑन किया. ‘क्या कर रही हो?’ .. ‘मर्द ढूंढ रही हूं, मिलेगा क्या?’.. ‘जोकिंग?’ .. ‘क्यों,  व्हाई जस्ट बिकॉज आई एम अ गर्ल इसलिए आपको जोक लग रहा है? बट आइ रियली नीड अ मैन फॉर टुनाइट.’ आमंत्रण देख कर कुछ बत्तियां इनविजिबिल हो गईं. ‘स्सालों, फट गई क्या? तुम औरतें ढूंढो, जाल फेंको तो ठीक, और कोई औरत वही करे तो जोक लगता है.’ आधी रात को आकाश नाम का एक अजनबी युवक आ भी पहुंचता है. लेखिका ने उन दोनों अजनबियों के ‘गोरिल्ला प्यार’ का पूरा वृत्तांत लिखा है- ‘देह देर तक एक दूसरे को मथती रही’ आदि. इसके बाद पार्टनर मोबाइल फोन से माफी मांगने लगता है और तब अजनबी के साथ क्रीड़ा कर चुकी नायिका का ‘गला रुंध गया. बमुश्किल उसने रुलाई रोकी.’ (हंस, सितंबर, 2012)

रुंधे गले से बमुश्किल रुलाई रोकते हुए गीताश्री ने बाजार में बेची जाती हुई औरतों की दशा पर भी पूरी एक किताब लिख डाली. इस किताब में एशिया में वेश्यावृत्ति मे झोंकी गई स्त्रियों की उपलब्धता तथा उनके रेट्स का वर्णन इस प्रकार किया गया है मानो किसी होटल के व्यंजनों का मेन्यू कार्ड हो. ‘औरत की बोली’  शीर्षक इस किताब के मुखपृष्ठ पर औरतों के आंसुओं की जगह औरतों की नंगी टांगें बनी हुई हैं. वृद्ध लेखक तथा प्रौढ़ लेखिका उत्तम पुरुष में 20 वर्ष के युवक-युवती बनकर फेसबुक के बहाने कितनी वीभत्स कल्पना को यथार्थ रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. बढ़ती उम्र के साथ लोग बेशर्म होते चले जाते हैं पर क्या इतने बेरहम भी हो जाते हैं ?
‘भावना, प्रेम, चाहत रहित दैहिक प्रक्रियाओं का चित्रण पोर्नोग्राफी का विषय है. अध्ययन बताते हैं कि पोर्न आख्यानों में दो ऐसे व्यक्तियों का चित्रण होता है जो बस अभी-अभी मिले हैं, इस संसर्ग के बाद फिर मिलेंगे भी नहीं. ऐसा संसर्ग व्यक्ति को और भी अकेला कर देता है. ऐसे चित्रण पढ़ने और देखने के बाद व्यक्ति जीवन में लंबे और स्थायी प्रेम संबंधों तथा पारिवारिक जीवन जीने में अक्षम हो जाता है. ऐसी छवियों से मुखातिब रहने वाले लोगों के मन में प्रेम, एकनिष्ठता, प्रतिबद्धता और चाहत की भावना खत्म हो जाती है.’ (डॉल्फ जिल्मैन)
चाहे रमणिका गुप्ता का नीली आंखों वाला आदमी हो या अश्वेत पुरुष, चाहे गीताश्री का गोरिल्ला प्यार का यौन साथी हो या एक पुत्री द्वारा पिता के लिए खरीदी गई युवती, चाहे जया जादवानी की स्त्री वेश्या हो या जयश्री रॉय का पुरुष वेश्या, चाहे सहजवाला के फेसबुक वाले युवक-युवती हों और चाहे मैत्रेयी पुष्पा के लल्लू कैलासी और दूर के रिश्ते की भौजाई.  ये सारे पात्र अजनबियों के साथ यौन संसर्ग करते हुए निरूपित किए गए हैं. ये केवल शरीर हैं, हृदयविहीन शरीर. ये कहानियां पोर्न आख्यान हैं.  इन संसर्गों के लिये सेक्स या सहवास संज्ञा का प्रयोग करना इन शब्दों का अपमान करना है.
यूनान में साहित्य और कला की देवी म्यूज कहलाती है. म्यूज कलाकारों की प्रेरणा मानी जाती है. वह पूजनीय थी. भारत में प्रेरणा के लिए नवाबों-शायरों ने तवायफों को गढ़ा. तहजीब की रक्षा के नाम पर वहां केवल गाना-बजाना ही नहीं था, नाज-नखरा और अदाएं उसका प्रमुख हिस्सा थीं. उनका काम था रिझाना. नपुंसक तथा निकम्मे नवाबों को रिझाने के लिए नियुक्त तवायफों और उत्तेजित करने वाले पुरुष हिचकारों के रोचक वृत्तांत हमारे लखनऊ के ही प्रतिष्ठित इतिहासकार योगेश प्रवीण की पुस्तकों में उपलब्ध हैं. समकक्षता के इस युग में स्त्रियों का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना है या चुके हुए संपादकों-समीक्षकों को रिझाना?
महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित वर्धा विश्वविद्यालय में अपना छद्म साम्यवाद लाने के लिए कटिबद्ध उम्र के छठे दशक में विद्यमान कुलपति विभूति नारायण राय ने एक लेखिका को यौन केंद्रित गाली दी. उम्र के सातवें दशक में चल रहे रवीन्द्र कालिया ने गाली को नया ज्ञानोदय के सुपर बेवफाई अंक में छापा. उम्र के आठवें दशक में विद्यमान राजेंद्र यादव ने राय को कुलपति पद से हटाने की मांग को तालिबानी बताते हुए कहा, ‘दोस्तों, लोकतंत्र का भी कुछ सम्मान करना सीखो. आखिर हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं. यह शुद्ध मर्दवादी अहंकार कब तक हुंकारता रहेगा कि हम अपनी महिलाओं का अपमान नहीं सहेंगे.’ (हंस, सितंबर 2010 ). और उम्र के नवें दशक में विद्यमान साम्यवादी प्रोफेसर नामवर सिंह ने मौन सहमति दी.
मैत्रेयी पुष्पा रिटायर्ड पुरुष पुलिस अधिकारी से यौन केंद्रित गाली खाने के बाद भी उन्हीं के साथ चर्चारत दिखाई दीं (पाखी). उस छिछली चर्चा में क्षमाप्रार्थी होने के बजाय राय ने बड़ी निर्लज्जता से वरिष्ठ मैत्रेयी पुष्पा की तुलना अत्यंत फूहड़ लेखन करने वाली कनिष्ठ ज्योति कुमारी से कर दी. कोई सैद्धांतिक प्रतिरोध करने की जगह वे ‘ऊंऽऽ, आप लोग तो बड़े वैसे हैं’ की तर्ज पर कुनमुनाती नजर आईं. यह सब कैसे संभव हुआ? मैत्रेयी पुष्पा के आचार-विचार से तमाम असहमतियों के बावजूद मेरा मत है कि वे एक समर्थ लेखिका हैं. यदि यौन सक्रियता के वृत्तांतों से उनका सशक्तीकरण हो चुका होता तो क्या यह संभव था कि एक औसत से भी बदतर कहानी-उपन्यास लिखने वाला पुरुष इतनी वरिष्ठ लेखिका को इस तरह अपमानित कर दे और वह निरुत्तर रह जाए? यह मर्दों के खेला में नाचने के लिए तैयार होने का ही प्रतिफल है कि साहित्य में और समाज में लेखिकाएं मखौल का पात्र बन रही हैं.  इस बीच कुछ बेहतर लेखन भी अवश्य हुआ होगा मगर इस खेल में शामिल न होने के कारण वह अचर्चित रहा.
हिंदी लेखन अब तक भयंकर रूप से पितृसत्तात्मक है. अपने पुरुषवर्चस्ववादी स्वत्व की रक्षा करते हुए पिछली पीढ़ी के दंभी वयोवृद्ध पुरुषों ने पूरी तरह नकली औरतें गढ़ ली हैं. हर आयु वर्ग और आकार-प्रकार की ये बार्बी डॉल्ज हिंदी लेखन के बाजार में उपलब्ध हैं. इन्हें पूंजीवादी विदेशियों ने नहीं देसी जनवादियों ने तैयार किया है. चाबी से चलने वाली चीनी गुडि़यों की तरह इनके भीतर एक प्रोग्राम भरा है. चाबी लगाने पर ये वही बोलती हैं जो इनके निर्माताओं ने इनके भीतर भरा है. ये गुडि़यां बच्चों के लिए नहीं, हिंदी के प्रगतिशील वयोवृद्धवृंद की क्रीड़ा के लिए हैं.
रमणिका गुप्ता की ट्रेन में अजनबी सहयात्री से सहवास करने वाली स्त्री कहती है, ‘वे आंखें भी तो अपनी नीलिमा से मेरी देह को सहला ही तो रही हैं. कल जो दिन चढ़ेगा उसमें यह विलक्षण क्षण अलग से जुड़ जाएगा. इजाफा हो जाएगा तुम्हारे अनुभवों की फेहरिस्त में.’
इन चर्चित लेखिकाओं ने अनुभवों की फेहरिस्त में इजाफा करते हुए स्त्री-पुरुषों के वेश्याओं और अजनबियों के साथ यौन संसर्गों को अपना विषय बनाया है ताकि उन्हें मन, बुद्धि, चेतना, आत्मा और सारे मानवीय संबंधों से रहित शरीर के वर्णन का वितान मिल जाए. यह हिंदी में साहित्य के नाम पर चल रहा देह व्यापार है, जहां स्त्री, और अब तो पुरुष भी मांस का टुकड़ा हैं, बेचेहरा और हृदयहीन.
छद्म विमर्शकार बड़ी बेहयाई से पूछ रहे हैं कि क्या स्त्री को वह लिखने का अधिकार नहीं जो पुरुष लिख रहे हैं. मगर मूल प्रश्न इससे गंभीर है- आखिर लिखा क्या जा रहा है? स्त्री कौन-सा हक मांग रही है? मानव शरीर के अपमानित और विमानवीकृत चित्रण का हक? भावना विहीन देह वृत्तांत कहने का हक? यदि स्त्री तथा पुरुष के रचे में भिन्नता है ही नहीं तो स्त्री लेखन को अलग से रेखांकित क्यों किया जाए? प्रियंवद की ‘गंदी’ कहानी में नायक की भूतपूर्व सखी उसके घर ठहरी. वह कहती है- ‘बस मैं नहा लूं फिर बैठते हैं….अंदर से नल की धार की आवाज आ रही थी. दो कदम आगे बढ़ कर मैं झुका और गुसलखाने की दरार से आंख लगा दी. उसकी पीठ मेरी तरफ थी. लपटें फेंकते हुए दो अग्निकुंडों की तरह उसके नितंब चमक रहे थे’ (कथादेश, दिसंबर 2012). नायक एक प्रौढ़ पुरुष है, कोई किशोर बालक नहीं.
‘छुट्टी का दिन’ कहानी भी जयश्री रॉय ने पुरुष की ओर से उत्तम पुरुष में लिखी है,’ सच पूछो तो भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे पीछे रोज एकाध घंटे चलना मुझे बुरा भी नहीं लगता था. वह आगे आगे बतख की तरह कूल्हे मटकाती नाजो अदा से चलती थी.’ पुरुष घर आ कर ‘नौकरानी कांता बाई के नितंब निहारता.’ प्रौढ़ दंपति में से पति रोशनदान से झांकता हुआ पड़ोस की अमला भाभी को नहाते हुए देखता है, और प्रौढ़ पत्नी पड़ोस के त्रिपाठी भाई साहब को.
सहज स्वाभाविक संबंधों का विवरण साहित्य में कभी समस्याप्रद नहीं रहा. यह स्वस्थ साहचर्य का चित्रण है ही नहीं, यह तो ‘वाइकेरियस प्लेजर’ देने वाला ‘की-होल जर्नलिज्म’ है. गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए लेखक-लेखिका दरारों से झांक रहे हैं. पोर्नोग्राफर स्त्री को अपने ही शरीर का अवयवीकरण और अपमान करना सिखाता है. जयश्री रॉय पुरुष बन कर मर्दों के खेला में नाचती हुई भारी नितंबों वाली स्त्री के पीछे-पीछे चल रही हैं , नौकरानी कांता बाई के नितंब निहार रही हैं, गुसलखाने के रोशनदान से पड़ोस की अमला भाभी को बिना टाट का पर्दा डाले ही नहाते हुए झांक रही हैं और उपहास की भाषा में स्त्री अवयव वर्णन कर रही हैं. बहुत खूब.
इंटरनेट पर चैट करने वाले, मॉर्निंग वाक करने वाले मध्यवर्गीय प्रौढ़ दंपति ऐसे किस मुहल्ले में रहते थे जहां पड़ोसी त्रिपाठी दंपति आंगन में टाट का पर्दा डाल कर और कभी कभी बिना पर्दा डाले ही नहाता होगा? गीताश्री की कहानी का परिवार, जहां होमसर्विस देने वाली वेश्या तक इंग्लिश बोलती है, ऐसी किस सोसाइटी के टावर्स में रहता होगा जहां फर्स्ट फ्लोर की बाल्कनी में ‘बताऊं क्या-क्या गिरते हैं?..यूज्ड कॉन्डम और सैनिटरी नैपकिन्स’ ( ताप ). जुगुप्सा जगाने की प्रतियोगिता में एक -दूसरे को पछाड़ती इन लेखिकाओं की कहानियों में पात्रों और पृष्ठभूमि की विश्वसनीयता की अपेक्षा करना धरती पर चांद मांगने जैसा है.
दशकों के प्रयासों से यह समूह साहित्य की मुख्यधारा को पोर्न आख्यानों से बदल चुका है. ऐसे आख्यान अब अपवाद नहीं नियम हैं जिनमें यौन संसर्ग आकस्मिक और भावना विहीन है और स्त्री एक पूर्णतः यौनीकृत वस्तु.
जयश्री रॉय की देह, नदी और रात सीरीज की एक अन्य कहानी ‘समन्दर, बारिश और एक रात’ (कथादेश) में ‘फुलमून नाइटडांस में डॉनी अपनी बांहों में दो लड़कियों को एक साथ भींचे झूम रहा था. स्कारलेट 14 वर्ष की ब्राजीलियन लड़की थी जो पिछले तीन महीनों से अपनी प्रेमिका नीकीबार्नो के साथ एक कमरा लेकर रह रही थी, कभी कभी अपना स्वाद बदलने के लिए पुरुषों के साथ भी हो लेती थी. आज की रात उसका डेट अफ्रीकन युवक था.’ वह बलिष्ठ अफ्रीकन युवक के कंधे पर से उतर कर जेनी नामकी लड़की का जबरदस्ती यौन शोषण करती है. जहां सभी लोग स्वेच्छा से एक साथ अनेक अजनबियों के साथ यौन संसर्ग में लिप्त थे वहां सामूहिक बलात्कार की गुंजाइश कहां थी? मगर जयश्री रॉय ने जगह निकाल ली और सामूहिक बलात्कार की पूरी प्रक्रिया का वर्णन इतने विस्तार और इतनी तटस्थता से किया मानो ‘सामूहिक बलात्कार कैसे करें’ की दिशानिर्देशक हैंडबुक तैयार कर रही हों. न स्त्री की यातना का लेशमात्र वर्णन, न पुरुष की दरिन्दगी के प्रति क्षोभ. 75 वर्षीय वृद्ध परमानन्द श्रीवास्तव ने लेखिका की ऐसी कहानियों को कविता बताते हुए कसीदे काढ़े हैं (पाखी, दिसम्बर 2011) दरिंदगी के ऐसे बढ़ते अपराधों से समाज दहल रहा है मगर हिंदी लेखन में उत्सव चल रहा है.
इस परंपरा में ज्योति कुमारी की ‘अनझिप आंखें’ में पति द्वारा उत्पीड़ित नायिका के आगे उसका मामा यौन संसर्ग का प्रस्ताव रखता है फिर कार्यस्थल पर अखबार का संपादक. वह एक समाज सेविका से मदद मांगती है जो उसका हौसला बढ़ाती है, ‘चल कल मूवी चलते हैं.’ मूवी चल रही है. इंग्लिश बोल्ड लव स्टोरी. बड़ी तेजी से मेरे पैरों पर फिसलता हुआ एक हाथ बढ़ा चला आता है-‘अरे यह तो मैम का हाथ है.’ मैं हकला कर रह गई…’ मैम मैं वैसी लड़की नहीं हूं…मैम आइ एम नाट लेस्बियन.’..’ओह’, अचानक ऊपर आता मैम का हाथ रुक गया..’अच्छा तो तुम मर्दख़ोर हो’ और आंख दबा कर मुस्करा दीं.’ (हंस, अगस्त 2012)
जिस तरह हिंदी की मसाला फिल्मों में लंबे रेप सीन स्त्री पर होने वाले अत्याचार के प्रति करुणा जगाने के लिए नहीं मर्दों को रेप करने का वाइकेरियस प्लेजर देने के लिए रखे जाते हैं, उसी तरह इन कहानियों में स्त्री शोषण के सारे आयाम एक ही स्थान पर उपलब्ध करा दिए गए हैं. यह बूढ़े मर्दों की फरमाइश पर पेश किया गया ‘मेड टु ऑर्डर’ व्यंजन है, इसीलिए उनके द्वारा प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत है. यहां मर्दवादी लेस्बियन होमोफोबिया भी मौजूद है. पितृभाव दिखाते हुए पुरानी पीढ़ी के घोर पुरुषवादी लेखकों ने पिछले दो तीन दशकों में स्त्री की जो विमानवीकृत छवि गढ़ी उसी के अनुरूप स्वयं को ढालती हुई ये गुड़ियाएं खुद को अपने शरीर से अलग करके लेखन में स्त्री शरीर परोस रही हैं.

गीताश्री की कहानी ताप इस प्रवृत्ति का शास्त्रीय उदाहरण है. उसमें मां बेटी से कहती है, ‘मैं ठंडा गोश्त हूं जिसे गर्म नहीं किया जा सकता. अपने पापा के लिए किसी लड़की का इंतजाम कर दे.’ यही बात उसका सहकर्मी विप्लव उससे अपने पिता के विषय में कहता है, ‘बुड्ढा बहुत सेक्सी है. मिलवाऊंगा तो आफत आ जाएगी. फिर न कहना कि देखो तेरे पिता ने क्या कर दिया. नॉट जोकिंग यार सीरियसली. मेरी मां अब बहुत बूढ़ी हो गई है. पिता अब भी फफन रहे हैं. सोचता हूं उनके लिए किसी लड़की-वड़की का इंतजाम कर दूं. विप्लव हंसते हुए बता रहा था. न कोई संकोच न कोई शर्मिंदगी.’ (इरावती पृ.126)
वृद्धा मां और युवा विप्लव दोनों ‘लड़की-वड़की का इंतजाम’ की भाषा बोलते हैं. युवा बेटा अपने बाप के लिए लड़की का इंतजाम करता है और युवा बेटी अपने बाप के लिए. वृद्ध पिता कहता है’, ‘पांच-पांच हज़ार में एक से एक मिलती हैं.’ मां ‘ठंडा गोश्त’ है, पिता अब भी ‘फफन रहे हैं’ और लड़कियां बिक रही हैं. एग्रेसिव मेन और सब्मिसिव वुमन की सेडोमेसोचिस्ट छवि को अब पुरुष नहीं स्त्री पुख्ता कर रही है. ‘स्त्री आकांक्षा के मानचित्र’ की चितेरी इन गीताश्री की शान में राजेंद्र यादव संपादकीय लिख चुके हैं. मर्दों के खेला में यही स्त्री विमर्श है. वृद्ध पुरुष यौन बुभुक्षित हैं और युवा स्त्रियां उनका आहार. औरतों ने भी यही छवि आत्मसात कर ली है.
स्त्री की इस आत्मछवि के निर्माण में उन पुरस्कारों का भी हाथ है जो ऐसा लेखन प्रोत्साहित करने के लिए दिए जाते रहे. पुरस्कारों का अर्थ केवल 51 या 51 लाख रुपये, एक शॉल तथा नारियल, जिसे कविगण मंच से श्रीफल कहते सुने जाते हैं, ही नहीं होता. इसका मतलब यह भी है कि उन समयों में वैसा लेखन समाज में उत्कृष्ट माना जा रहा था. यही लेखन पीढ़ी के लिए नजीर बनता है और भावी पीढ़ी उसका अनुसरण करती है. लोकप्रियता ही श्रेष्ठता का आधार नहीं होती. इसी कारण उत्कृष्ट कला फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाता है भले ही वे लोकप्रिय न भी हुई हों. हिंदी लेखन में कलावस्तु के स्थान पर पोर्न वस्तुओं का पुरस्कृत होना गहरी चिंता का विषय है.
आज सभी क्षेत्रों में स्त्रियां पुरुषों के बराबर खड़ी दिखाई दे रही हैं. आज वे केवल परीक्षाओं में सफल होकर डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापिका ही नहीं बन रहीं, राष्ट्रीय और निजी क्षेत्र के बैंकों की चेयरमैन कम मैनेजिंग डारेक्टर, कॉरपोरेट हाउसेज की मालकिन और अंतरिक्ष यात्री भी हैं. गांवों और शहरों में लाखों स्वास्थ्यकर्मी, एएनएम, आशा बहुएं, आंगनवाड़ी और प्राथमिक पाठशालाओं में काम करने वाली स्त्रियां खुद कमा रही हैं और घर चला रही हैं. अध्ययन बताते हैं कि एक तिहाई घरों की अकेली कमाने वाली सदस्य स्त्रियां हैं. परिवार के मुखिया के रूप में भले ही रजिस्टर में पुरुष का नाम लिखवा दिया जाए पर इन घरों में बच्चे अपने निखट्टू पिता की जगह कर्मठ मां की ही सत्ता मानते हैं.
खेद है कि हिंदी लेखन में सारी सत्ता ऐसे मर्दों के हाथ में है जिनके अपने निजी जीवन में स्त्रियों का न कोई आदर- सम्मान है न ही स्थान. वे प्रोफेसर हैं, संपादक और चयनकर्ता भी. इन मठाधीशों ने रमणिका गुप्ता जैसे लेखन को साहसिक बता कर अनुकरणीय बनाया और हिंदी लेखन में आलिंगन चुंबन द्वारा सत्ता हस्तांतरण की प्रणाली स्थापित होती चली गई. यह समकक्षता नहीं है. अवनतिशील वृद्धवृंद प्रगतिशीलता के प्रमाणपत्र बांट रहा है और  बार्बी डॉल्ज प्रमाणपत्र पाने को पंक्तिबद्ध खड़ी हैं.
इन हेय और उपेक्षणीय रचनाओं को उद्धृत करना मेरे लिए एक कष्टप्रद अनुभव रहा. मेरा उद्देश्य रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करना नहीं बल्कि पाठकों के सामने स्त्री लेखन के नाम पर चल रही दुर्भावनापूर्ण पोर्न परंपरा की बानगी प्रस्तुत करना है. अंतिम निर्णय तो पाठक करेंगे और आने वाला समय.
जनवादियों द्वारा अतिनिंदित वेदों में एक प्रार्थना है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’. साहित्य को समाज के आगे मशाल ले कर चलते हुए समाज का पुरोधा होना चाहिए. आदिकाल, वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल के बाद छद्म जनवादियों द्वारा निर्मित यह नवरीतिकाल का अंधायुग है. इस अंधे युग के ‘हर पल गहरे होते जाते अंधियारे’ में आबाल-वृद्ध (छोटी-बड़ी) बार्बी डॉल्ज से प्रगतिशीलता के रैंप पर कैटवॉक करवाई जा रही है- उजाले से अंधेरे की ओर.
जो पोर्न छवियां पूंजीवाद के बाजार में इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड द्वारा पेमेंट करके खरीदी जाती हैं, प्रगतिशील जनवादियों के बाजार में वे ही छवियां मुफ्त में उपलब्ध हैं. इस बाजार को ही हिंदी साहित्य बताया जा रहा है. यह बाजार युवाओं द्वारा नहीं मर्दों के वृद्धवृंद द्वारा संचालित, पोषित और नियंत्रित है. इसमें वृद्ध, प्रौढ़ और युवा बार्बी डॉल्ज नृत्य में अव्वल आने के लिए एक-दूसरे से होड़ ले रही हैं. यह स्त्री विमर्श के नाम पर चल रहा उन्मादग्रस्त आनंदनृत्य है .
धार्मिक रूढि़वाद के विरुद्ध स्त्रीमुक्ति की आवाज उठाते बहुत समय हो गया. जनवादियों का यह पोर्न अनुष्ठान उससे ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इसे प्रगतिशील स्त्री विमर्श के रूप में पेश किया जा रहा है. आज यह आवाज छद्म जनवाद के खिलाफ उठा रही हूं, इसलिए कि अब और चुप रह पाना मुमकिन नहीं और इसलिए भी कि मुझे पूरा यकीन है इस आवाज को जरूर सुना जाएगा.

शालिनी माथुर


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