Friday, November 15, 2013

देह की ज्यामिति से बहार...

सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा की बात कि यदि रेप न रोक सको तो उसका आनंद लो शायद प्रतापगढ़ लालगंज को वो लड़की नहीं सुन सकी होगी जो बलात्कार का विरोध करते हुए जिन्दा जला दी गयी. खुद पर हो रही ज्यादती का आनंद कैसे लेना है उसे नहीं आता था. उसे नहीं मालूम था कि बलात्कार का भी आनंद लिया जा सकता है. नहीं तो वो लड़ते हुए जलना न स्वीकार करती बल्कि उस आनंद का पान करती जिसका जिक्र रंजीत सिन्हा साहब कर रहे थे. देश की इतनी बड़ी संवैधानिक संस्था का मुखिया कह रहा है तो जरूर कोई नुख्सा होगा जिससे बलात्कार का भी मजा लिया जा सकता हो.
प्रतापगढ़ के लालगंज में मानवता को शर्मसार करने वाली एक घटना फिर सामने आई है. इंटरमीडिएट की एक छात्रा, दो छोटे भाइयों के साथ अपने घर में अकेली थी. उसके माँ-बाप किसी काम से दिल्ली गए हुए थे. तभी एक मनचला उसके घर में घुस आया और उसके साथ बलात्कार करने की कोशिश करने लगा पर विरोध के चलते नाकाम होने पर उसने लड़की को आग के हवाले कर दिया. इन सबके बीच मासूम छोटे भाई रोते रहे, और अपराधी अपराध कर के भाग निकला.  दिसंबर में दामिनी बलात्कार कांड पर खाई गयी सारी कसमें समय के साथ इतनी जल्दी धुल जाएँगी. समाज की संवेदना और चेतना इतनी जल्दी कुंठित हो जायेगी. इसका कोई अंदाजा नहीं था. " एक अकेली लड़की को खुली तिजोरी समझने वाले इस समाज में एक लड़की को हमेशा ये लगता रहा है कि वो एक वस्तु है और उसे कोई भी कभी भी चट कर सकता है, लूट सकता है, उस पर डाका डाल सकता है.

यहाँ कभी कोई सिरफिरा आशिक चेहरे पर तेजाब फेंक देता है तो कभी कोई मनचला घर में घुस कर बलात्कार करता है और नाकाम होने पर जिन्दा जला देता है. कभी भाई-बाप इज्जत के नाम पर मौत के घाट उतार देते है तो कभी पति और प्रेमी शक की बिनाह पर हत्या कर देते है. माँ-बाप के घर की कैद से ले कर सास-ससुर के घर की काल कोठरी तक सब कुछ एक जैसा ही तो है औरतों के लिए.  हम औरत के बदन के भूगोल में उलझे हुए लोग उसके दर्द के इतिहास के बारे में कभी नहीं जान सकते. क्योंकि हम अभी भी उसके बदन से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं. चाहे हम अपनी बहन की बात कर रहे हो या प्रेमिका की. उसका बदन ही हमारी बात के केंद्र में रहता है. बहन की रक्षा से लेकर राह चलती किस लड़की को छेड़ने तक उसका शरीर ही मुद्दा रहता है. खुद का शरीर भी कभी कभी महिलाओं को एक कैदखाना लगने लगता होगा.

खैर हम उनकी पीढा कैसे समझ सकते है हम तो पित्रसत्तात्मक समाज के लोग है. जहाँ लड़के के पैदा होने पर थाल बजाकर मिठाइयां बांटी जातीं हैं और लड़की पैदा होने पर माँ को गाली दी जाती है. हम रंजीत सिन्हा की मानसिकता वाले समाज के हैं. जहाँ महिलाओं को बलात्कार में आनंद तलाशने की नसीहत दी जाती है. ये देश औरत की आज़ादी और सुरक्षा के लिए जब दिल्ली की सड़कों पर कानून बनाने की मांग कर रहा था ठीक उसी समय सुप्रीम कोर्ट का एक रिटायर जज अपनी पोती की उम्र की मातहत का शारीरिक शोषण कर रहा था. एक अध्यात्मिक गुरु लड़कियों को बलात्कारियों को भाई कह कर पुकारने की सीख दे रहा था और देश के राष्ट्रपति का बेटा आज़ादी की मांग करती औरतों-लड़कियों को " डेंटेड-पेंटेड औरतें" कह रहा था. कितने बार बेपर्दा होगा व्यवस्था का चेहरा, कितनी बार साफ़ जताया जायेगा की ये व्यवस्था औरतों को मर्द के बराबर अभी नहीं मानती है. शरीर अभी भी औरत की आज़ादी की राह में रोड़ा है. बाहर पढाई के लिए जाना हो या फिर काम के लिए ये शरीर जाने से रोकता है. माँ-बाप, भाई, समाज  सब को इस शरीर की ही चिंता हैं. औरत की और उसके दिल की फिकर कौन करता है ? कौन ये समझता है कि उसके भीतर भी एक दिल है. जिसमे अरमान है. उसके पास भी आखें हैं. जिसमे सैकड़ों सपने हैं.
अब औरत को खुद ही  देह की ज्यामिति से बहार अपना संसार गढ़ना होगा.  इस नए संसार को गढ़ने के लिए कई बगावते करनी होगी. कई शहादतें देनी होगी. कई आसरामों, रंजीत सिन्हानों और अभिजीत मुखार्जियों से लड़ना होगा. समाज अपने हक में बदलना होगा.

अनुराग अनंत

खबर की लिंक
http://www.amarujala.com/news/crime-bureau/rape-attempt-burnt-alive-victim-uttar-pradesh/





Thursday, November 14, 2013

राजनीतिक अकाल की उपज

राजनीतिक विकल्पहीनता की स्थिति में साधारण से साधारण व्यक्तित्व भी असाधारण लगने लगते हैं और उनकी बिना सर-पैर की नीतियां या सुझाव भी सुनहरे मॉडल कहे जाते हैं. निर्वात में जैसे हर वस्तु हलकी हो जाती है ठीक वैसे ही इस समय देश में राजनीतिक निर्वात है शायद इसीलिए सारी विचारधाराएँ हवा में तैरती हुई जान पड़ती है. इस समय विचारधारा को संशोधनवाद और प्रयोगवाद ने पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है. आज वाम से ले कर दक्षिण तक सब गड्ड-मड्ड हो गया है. आंबेडकर की अस्मिताई राजनीति से लेकर जेपी और लोहिया का समाजवाद तक सबकुछ बिखरा हुआ, बेतरतीब सा दीखता है. इस राजनीतिक निर्वात के समय में  छापामार राजनीति करने वालों और विचार को फैशन की तरह ओढने वालों की चल निकली है. सब उनमें देश का भविष्य तलाशने लगे हैं. उनके किये बिन सर-पैर के वादे उज्जवल भविष्य की कुंजी माने जा रहे हैं और विचारधारा की राजनीति करने वाले लोग पुरातन व पिछड़े कहे जा रहे हैं.  

देश में इंटरनेट आने के बाद राजनीति में भी व्यापक बदलाव आये हैं, लोकप्रियता के पैमाने बदले हैं. लोग इन्टरनेट में चलने वाले पोल, मिलने वाली लाइक, कमेन्ट और विजिट को अपनी लोकप्रियता का पैरामीटर बताने लगे हैं और मीडिया से लेकर आमजनता तक उस आभासी दुनिया की लोकप्रियता को कोट करने लगी है. देश में खासतौर पर पिछले दो सालों में इंटरनेट पालिटिक्स ने देश के युवाओं और बहुत हद तक मध्यम वर्ग की राजनीतिक चेतना को प्रभावित किया है. अन्ना का आन्दोलन हो, अरविन्द केजरीवाल का उदय या फिर आम आदमी पार्टी का प्रभावशाली उभार इनसब के पीछे इन्टरनेट की महती भूमिका रही है. नरेन्द्र मोदी को लोकप्रिय बनाने में भी इन्टरनेट ने बड़ी भूमिका निभाई है. इन्टरनेट पालिटिक्स के महत्व का अनुमान हम इस बात से भी लगा सकता है कि एक व्यक्ति जिसे स्वयं उसकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और गठबंधन की कई पार्टियां पसंद नहीं करती, वो प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बन जाता है. ये इन्टरनेट की आभासी दुनिया पर उसकी विश्वव्यापी लोकप्रियता और उसके गुजरात मॉडल की ब्रांडिंग ही थी कि पार्टी के बड़े नेताओ को भी मोदी के सामने झुकना पड़ा और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया. मोदी ने इस अभियान की शुरुवात २००७-०८ में एपको वर्ल्डवाइड नाम की अमेरिकन विज्ञापन एजेंसी को खुद के छवि निर्माण के लिए नियुक्त करके कर दी थी. जिसके परिणाम हमें २०१३ में पूरी रंगत के साथ दिख रहें हैं. मोदी इन्टरनेट पालिटिक्स और तकनीक के महत्त्व को समझते हैं तभी तो उन्होंने एक पूरी टीम बना रखी है जो मोदी की इन्टरनेट पर ब्रांडिंग करती है. उनकी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए अभियान चलाती है और फिर मीडिया से लेकर आमजनता तक उसी आभासी लोकप्रियता और समर्थन की आंधी में उड़ती नज़र आती है. मोदी की तरह दूसरी जो शख्सियत इन्टरनेट और तकनीक के हथियार से राजनीति का समर लड़ रही है वो है, अरविन्द केजरीवाल. एक ऐसा आदमी जो दो साल पहले राजनीति की “रा” नहीं जानता था आज “आप” के नाम पर आपको क्रांति बाँट रहा है. केजरीवाल ने आपकी क्रांति नाम से एक वेब साईट बनवाई है. जहाँ जाते ही आपको महसूस होता है की क्रांति एक उत्पाद है जिसे केजरीवाल आपको सस्ते दाम या यूं कहिये मुफ्त में दे रहे हैं. उनकी पार्टी की वेबसाईट पर ऊपर ही एक डिजिटल घड़ी लगी है जो  मतदान की तिथि को कितने सेकेण्ड बचे हैं ये बताती है. आपको वहाँ कोई सेल लगे होने का पूरा अहसास होता है. केजरीवाल और मोदी ने देश में छापामार राजनीति का नया व्याकरण गढा है. उन्होंने देश की आभासी नब्ज़ टटोली है. वो इन्टरनेट पर मौजूद आभासी लोगों को देश की जनता मान बैठे हैं. इसीलिए उनकी राजनीती, उनके सवाल और चिंताएं सबकुछ आभासी ही लगते हैं.

मोदी ने झाँसी में यूपी के मजदूरों के लिए छ: महीना काम और छ: महीना आराम का जो मॉडल बताया वो मजदूरों के प्रति उनकी खोखली समझ और पूंजीवादी शोषण के गिरफ्त में मजदूरों को धकेलने की साजिश सी जान पड़ती है. मोदी का ये मॉडल कांट्रेक्ट लेबर मॉडल का एक घिनौना रूप होगा. इसके अलावा अर्थशास्त्रीय नज़रिए से भी ये मॉडल निराधार ही है. वहीँ केजरीवाल का स्वराज का मॉडल कई सारे सवालों पर औंधे मुंह गिरता हुआ दीखता है. ये केजरीवाल के भारतीय समाज की समझ का अभाव ही है जो वो जनता को दूध का धुला मान रहे हैं  और अतिविकेंद्रिकरण की बात कर रहे हैं. इसी जनता और आम आदमी के बीच सामंती और जातिवादी सोच वाले लोग भी हैं. दलित, किसान मजदूर और स्त्री भी हैं. केजरीवाल की जनता और आम आदमी कौन है? ये साफ़ नहीं हुआ है. शायद अभी केजरीवाल को भी उनके आम आदमी की परिभाषा ठीक ठीक मालूम नहीं होगी. उनका एक बहुत प्रयोग किया जाने वाला उदाहरण है कि गांव में नल कहाँ लगेगा इसमें सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए ये वहाँ के लोग तय करेंगे कि नल कहाँ लगेगा. मेरा सवाल है कि वो गांव जहाँ आज भी ठाकुर साहब का कहा जनता का कहा होता है. वहाँ सरकार के प्रभाव न होने पर तो नल किसी ठाकुर जी के या यहाँ किसी पंडित जी के यहाँ ही लगेगा. तब तो आपका स्वराज फिर से सामंती जकड़ को नए चेहरे के साथ समाज में लाएगा. 

खैर मोदी और केजरीवाल जैसे नेता अपनी दूरदर्शिता और तकनीक के प्रयोग से राजनीतिक वितान पर एक सशक्त परिघटना तो बन कर उभरे हैं पर इनके नेतृत्व में देश की जनता कहीं नहीं है- मजदूर, किसान, दलित और स्त्री कहीं नहीं हैं. ये देश में विचारधारा आधारित राजनीतिक-अकाल की उपज है जिनसे भूखे को भूख मिलेगी और खाए अघाये को खाना.

अनुराग अनंत 

Saturday, November 9, 2013

सब कुछ सुनहरा नहीं


एक ऐसे समय में जब सबकुछ सुनहरा-सुनहरा ही बताया जा रहा हो. सांसद धंनजय सिंह के दिल्ली स्थित सरकारी आवास पर काम करने वाली महिला, राखी की मौत कई सारे भ्रम एक साथ तोडती है. इन्टरनेट के इस तिलस्मी समय में जब जाति, रंग और वर्ग के सवाल बीते दिनों की बात कही जाने लगी है. तब ये घटना एक बार फिर सच्चाई नए सिरे से बयां करती है. दासता के बदले हुए स्वरुप और लोकतान्त्रिक सामंतो का विद्रूप चेहरा बेपर्दा करती ये घटना समाज की संवेदना और चेतना से लेकर देश में लोकतंत्र की जीवंतता तक पर कई सवाल खड़ा करती है. दलितों और वंचितों की पार्टी कही जाने वाली बीएसपी से आया एक नेता, जिसका इतिहास अपराधों का इतिहास है और उसकी पत्नी अपने ही घर में काम करने वाली महिला राखी की निर्मम हत्या के आरोप में हिरासत में है. ये विचारधार का विरोधाभास और सामाजिक न्याय की लड़ाई की संकल्पना के साथ चलती हुई पार्टी का पक्षधरता और सरोकार के सवाल पर ध्वस्त होना नहीं तो और क्या है?

गौरतलब है कि राखी के बेटे शहनाज़ को पुलिस ने पूछ-ताछ के लिए बुलाया था जिसके बाद से उसका कोई पता नहीं लग रहा है. कयास लगाये जा रहे हैं कि सांसद ने उसकी हत्या या अपहरण करा दिया है. सांसद ने जिस तरह से पहले सीसीटीवी कैमरे के फूटेज गायब कराये और फिर राखी के बेटे को गायब कराया वो ये साफ़ बयां करता है कि इस सियासी सामंत के मन के कानून को ले कर कितना खौफ़ है. क्या इस देश का कानून केवल गरीब, किसान, मजदूर और मेहनतकश को ही डरा सकता है ? उनकी ही जमीने और रोटी छीन सकता है. पेट के सवालों में उलझे हुए इंसानों को डराने वाला कानून क्या कारण है कि ऐसे सियासी सामंतो के दिल में झुरझुरी तक नहीं पैदा कर पाता ? वो संविधान जो “हम भारत के लोग... से शुरू होता है. सिर्फ भारत के आम लोगों को ही डरा सकता है. सत्ता और सियासत के आगे इसके कुछ और ही मायने हो जाते है. खैर इस पूरे घटनाक्रम से जो चीज़ साफ़ दिखती है वो है  व्यवस्ता में व्याप्त सामंतवाद व उसका सामंती चरित्र. 

ये घटना ये भी दिखाती है कि कैसे घर में काम करने वाले लोगों को इस समाज में पूंजीपति, सामंती और तथाकथित पढ़े लिखे लोग अपना दास और निजी बपौती समझते है. इन मेहनतकश लोगों के लिए सुरक्षा, न्याय और लोकतंत्र जैसे शब्द कोरे लफ्फाजी के अलावा कुछ और नहीं हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के नेता जी नगर में एक एयर होस्टेस ने अपने घर में 12 साल की मेड को कमरे बंद करके आस्ट्रेलिया चली गयी थी. जिसे दो दिन बाद ने पुलिस ने बहार निकला था. ऐसे ही निर्ममता की कई कहानियां है. जो महानगरों की चमकदार गलियों के घुप्प अँधेरे में दम तोड़ देती है या दबी कुचली आवाज़ की तरह न जाने कब उठती है और कब दब जाती है.

एक देश जहाँ एक लाख छिहत्तर हज़ार करोंड़ का घोटाला लोकतंत्र के सिरमौर माननीय सांसद जी लोग करते है. वहीँ उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों से गरीब लड़कियां-औरते रोटी की तलाश में महानगरों में यौन शोषण से लेकर निर्मम हत्याओं तक का दंश भोगने को अभिशप्त हैं. और हर बार कोई धनजय सिंह, कोई पूंजीपति. कोई सामंत, थोड़ी सी कानूनी नूराकुश्ती और मीडिया उठापटक के बाद मुक्त हो जाता है फिर से वही सबकुछ करने के लिए. और इस सब के बीच हम कुछ सुनहरा है के ख्याल के साथ, आल इज वेल कहते हुए पाए जाते हैं.  


मेरा ये लेख जनसत्ता में 13-nov-2013 को छापा था यहाँ मैं नीचे लिंक दे रहा हूँ आप इसे जनसत्ता की वेबसाईट पर भी पढ़ सकते हैं.