Tuesday, November 27, 2012

कसाब को खतम करने से कसाब खतम नहीं होंगे ..


हर साल 26 से 29 नवम्बर तक के दिन कुछ भारी-भारी गुजरते हैं। मुंबई हमले में मारे गए लोगों और देश के लिए लड़ते हुए शहादत को गले लगा लेने वाले जवानों की याद में आँखें नम हो जाती हैं। पर इस साल मंजर कुछ और है। दिवाली गुजरने के लगभग एक हफ्ते बाद 22 तारीख से  देश में दूसरी दिवाली  का माहौल है, मिठाइयाँ बांटी जा रही हैं, लोग खुशियाँ माना रहे हैं, गले मिल रहे हैं, वजह ये हैं कि 21 तारीख को  मुंबई हमले के एक मात्र जिन्दा बचे आतंकवादी कसाब  को पुणे की यरवदा जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। यरवदा जेल की सूली पर लटकता कसाब का बेजान शरीर करोड़ों हिन्दुस्तानियों के सीने में गड़ी कील निकाल गया पर उसकी मौत से मेरे सीने में एक सवाल आ  कर  धंस गया है। वो ये कि कसब कौन था? आप चाहें तो मुझे गाली दे सकते हैं और मेरे देश प्रेम और सामान्य ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह भी खड़ा कर सकते है पर फिर भी मैं बड़ी शिद्दत और संजीदगी के साथ आप हँसते गातेपटाखे फोड़ते, मिठाइयाँ बांटते, और खुशियाँ मानते लोगों से पूछना चाहूँगा कि ये कसाब कौन था, पर हाँ भगवान् या अल्ला या फिर जिसे भी आप सबसे  ज्यादा  मानते हों, उसके लिए आप मुझे ये मत बताइएगा  कि कसाब पकिस्तान के पंजाब प्रान्त के फरीदकोट का रहने वाला, नूर इलाही और आमिर का मझला बेटा था जो आतंकवादी संघटन लश्कर-ए-तोयबा के इशारे पर हमारे देश  में कत्ले-आम करने आया था। कसाब  की ये परिभाषा और पहचान तो मुझे भी मालूम है पर मैं कसाब की इस परिभाषा और पहचान के पार के कसाब की बात कर रहा हूं जिसे मैं तलाशता,पाता और महसूस करता हूँ। मैं जानता हूँ आप को कुछ समाज नहीं आ रहा है और आप झुंझला रहे हैं, मुझे भी कुछ समझ नहीं आता और मैं भी झुंझला जाता हूँ जब मैं ये सोचता हूँ कि एक 21 साल का जवान लड़का जिसने अभी ठीक से दुनिया देखी भी नहीं, दुनिया को मिटाते हुए, मिटने को तैयार कैसे हो गया।

वो जिसने मौत का भयानक खेल खेला और फांसी पर चढ़ा वो बेबस नूर इलाही और गरीब बाप आमिर का बेटा, बहन रुकाया का वीर और छोटे भाई मुनीर का जिम्मेदार बड़ा भाई नहीं हो सकता, वो पकिस्तान के लाहौर में ईंट ढोता, मजदूरी करता, घर चलता कसाब नहीं हो सकता।  ये वो नवजवान नहीं था जो अपने छोटे भाई को खूब पढना चाहता था, अपने माँ बाप को हज करना चाहता था।

एक जिम्मेदार और काबिल बेटे की तरह वो दुनिया की हर ख़ुशी अपने घर वालों को देना चाहता था पर वो अशिक्षा और बेरोजगारी की मार में पिसता गया और सपनों, उपेक्षाओं, आकाँक्षाओं, कुंठाओं और अवसाद में दबता गया। वो बहुत मेहनत करने के बाद दो वक़्त की रोटी भी घर वालों को शान से नहीं दे पा रहा था। दुनिया उसे जालिमों का अड्डा लगने लगी थी। इस बीच कौम और इस्लाम के नाम पर नफरत और मौत की राजनीत करने वाले संघटनों ने उसे ये समझाया की उसकी और उस जैसे सारे गरीबी झेलते मुसलमाओं की दुर्दशा की वजह हमारा देश भारत है, उसे हमसे लड़ाई करनी चाहिए ये लड़ाई नेकी की लड़ाई है और इसी को जिहाद कहते है। चौथी तक पढ़ा कसाब इसे सच मान बैठा और अपने घर वालों को उसके बाद पैसे देने और देखने की शर्त पर मरने-मारने के लिए तैयार हो गया। और फिर उसके  बाद उसका जो अंजाम हुआ आप सब जानते हो।

अगर आप ये सोच रहें हैं कि  कसाब से मुझे कोई सहानभूति है तो आप गलत सोच रहें हैं। उसका जो अंजाम हुआ वो होना ही था। मेरा सवाल ये है की क्या कसाब महज़ एक आतंकवादी था।  जिसे फांसी पर चढा कर मार दिया गया। या फिर कसाब कुछ और भी था। यकीनन कसाब कुछ और भी था जिसे हमने मिठाइयों की मिठास, पटाखों की आवाज, और खुशी के माहौल में भुला दिया। कसाब अशिक्षा, गरीबी और बेरोजगारी की मार से भटकी हुई जवानी का प्रतीक था। वो गैर बराबरी और शोषण की इस व्यवस्ता का उत्पाद था। जो कुंठा, हताशा अवसाद और अंधे जूनून की चपेट में आ कर एक ऐसी अंधी सुरंग में चला गया था जहाँ रौशनी के नाम पर बारूद की चिंगारी है, आवाज़ के नाम पर दगती हुई गोलियां हैं। और जिंदगी के नाम पर कुछ है तो मौत,

मैं कसाब की मौत वाली रात चैन से सो नहीं पाया। रात भर उसका चेहरा मेरे नज़रों के सामने नाचता रहा और उसके चेहरे में मुझे चाय की दुकानों में काम करते छोटू, ईंट-बालू ढोते कल्लू, गैराज में काम करते राजू, कारखानों और ऐसी ही कई जगह ज़िन्दगी के सबसे डरावने चहरे का सामना करते करोड़ों बच्चे और नवजवान दिखे जो खून-पसीना एक करने के बाद भी अपने घर वालों को दो वक़्त की रोटी भी नहीं दे पा रहे हैं। और भटक कर लाहौर के मेहनतकश कसाब से मुंबई का आतंकी कसाब बन जा रहे हैं। नक्सलवादी, माओवादी, गली-मोहल्ले में मारपीट करते, चोरी-डकैती करते, अपराध करते, इन भटके हुए नवजवानों में मुझे कसाब दीखता है। कसाब को ख़तम करने से कसाब ख़तम नहीं होंगे, कसाब बनाने वाले  इस सिस्टम को ख़तम करना होगा जहाँ मेहनत से दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पाती है और भटक कर हथियार उठा लेने पर सरकारें करोड़ों खर्च कर देती है।
  
तुम्हारा--अनंत