Thursday, April 26, 2012

हार न मानने की ज़िद......

continuity has its own music''यानी सततता का अपना संगीत होता है, मैंने जब ये कोटेशन पढ़ा, तब ये मुझे बिलकुल समझ नहीं आया था. पर उस दिन इस कोटेशन का मतलब मुझे अचानक से समझ में आ गया जब ट्रेन में सफ़र के दौरान, मेरे आपर्टमेंट के दुसरे छोर से एक खनकती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी....ये हौसला कैसे झुके , ये आरजू कैसे रुके, मंजिल मुस्किल तो क्या, साहिल धुंधला तो क्या.....दुनिया और जिंदगी में कुछ कर दिखाने के जज्बे से लैस ''डोर'' फिल्म के इस गाने को सुन कर मैंने अपनी इच्क्षा  से अपनी नींद तोड़ ली और अपनी बर्थ पर बैठ गया, लगातार चलती हुई ट्रेन, उसके खड़कते हुए  पुर्जे, लोहे की पटरी पर दौड़ते हुए लोहे के पहिये, ट्रेन का सायरन और पैसेंजर्स की आवाज़ सबने मिल कर एक मुजिकल कोलाज़ सा बना दिया था. ये म्यूजिक continuity की म्यूजिक थी, लग रहा था कि कोई बैंड ग्रुप ट्रेन में इंविसिबल फॉर्म में अपने इन्सट्रूमेंट बजा रहा है और उनका साथ देने के लिए अपार्टमेन्ट के दुसरे छोर  से कोई गा रहा है, 

अभी गाने का मुखड़ा भी ख़तम नहीं हुआ था कि गाने का ट्रैक चेंज का दिया गया और इस बार 1940 की ''बंधन'' फिल्म का गाना ...चना जोरगरम बाबू मैं लाया मजेदार...चना जोरगरम.... गाते हुए वो मखमली आवाज़ मेरे कुछ नजदीक आती हुई सी लगी. कुछ ही देर में 12 -14 साल का वो गायक मेरी आँखों के सामने था, कमर पर चने की एक पेटी बांधे, कंधे  पर पानमसाला की लडियां, जेब में सिगरेट के पैकेट, मैले कुचैले-कपड़ों  में हँसता गाता सा बचपन, मेरे सामने जिंदगी के गीत गाते हुए खड़ा था उसकी आवाज में एक अजीब सी कशिश थी जो लोगों को अपनी  ओर खीच रही थी, मैं उस बच्चे की प्रतिभा देख कर चौंक गया था, जिस आवाज़ को पाने के लिए लोग घंटो रियाज करते हैं, हजारों रूपए टुय्शन  पर खर्च कर देते हैं वो उसने न जाने कैसे हासिल कर ली थी.

दस साल की छोटी सी उम्र में उस बच्चे के पिता की ट्रेन दुर्घटना में मौत हो गयी थी, वो अंधे थे और ट्रेन पर ही मोमफाली, पान मसाला, वगैरह बेच कर घर का खर्च चलते थे.घर पर बीमार माँ और छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी उस नन्हे कंधो पर आ गयी थी. जिंदगी से डर कर भागने के बजाय उसने लड़ना मंजूर किया और दस साल की उम्र से ही ट्रेन पर चने बेचने लगा. ये सारी जानकारी मुझे उस बच्चे से बात-चीत के दौरान मालूम चली. मैंने उससे उसके सपने के बारे में पुछा तो उसका सीधा जवाब था ''अपने छोटे भाई बहनों को पढ़ा-लिखा कर बहुत बड़ा आदमी बनाऊंगा''.
जीवन के प्रति ये उर्जावान नजरिया और स्ट्रगल की ये स्पिरिट देख कर मन में  अजीब सी इन्स्पिरेशनल वेब बहने लगी थी.खुद अनपढ़ हो कर भी अपने भाई बहनों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए उसका ये संघर्ष वाकई सलाम करने लायक था.उसकी मेरी बात अभी चल ही रही थी की दूसरा स्टेशन आ गया और वो बच्चा कोई और गीत गुनगुनाता हुआ उतर गया. पर मैं उसके जाने बाद भी उसके होने को महसूस करता रहा और ये सोचता रहा ही छोटी सी उम्र में लाइफ के इतने बड़े चैलेन्ज का  हंस कर सामना करने वाले  इस बच्चे में एक आइडियल के सारे गुण  हैं. आज जब यूथ  थोड़ी सी परेशानी से हार कर जिंदगी ख़तम कर ले रहा है तभी  ये बच्चा हँसते  हुए परेशानियों के पार जाने के लिए स्ट्रगल कर रहा है. उसकी आँखों में मुझे  डर या उदासी नहीं दिखी थी बल्कि उम्मीद और स्ट्रगल  की चमक दिखी थी. उस बच्चे को देख कर मुंह से अनायास  फूट पड़ा था. हार न मानने की ज़िद जीत तक  ले जाती है.

आप-हम सब लोग अपने आस-पास रोज न जाने कितने बच्चों को, बूढों को और विकलांगों को, काम करते हुए देखते हैं. और उसे देख कर बस यूं ही जाने देते हैं, पर जरा सोच कर देखिये कि जब कुछ न होते हुए भी ये लोग जिंदगी से बिना कोई सिकवा-शिकायत करे अपने सपनों के लिए संघर्ष कर सकते है तो हम क्यों नहीं ? मेरा यकीं मानिये जिस दिन आप ये सोच कर काम करेंगे की जब  ये 12 -14 साल का बच्चा १२ घंटे  हँसते हुए मेहनत कर सकता है तो मुझे तो और करनी चाहिए. ये सोच आपके लक्ष्य के प्रति आपके प्यार को पढ़ा देगी और आपको आपका काम आसान लगने लगेगा. वैसे भी जिस देश में बचपन 12  घंटे सिर्फ रोटी के लिए काम कर रहा हो उस देश की जवानी भला कैसे आराम  कर  सकती है.

हम किताबों में, अखबारों में, टीवी पर, रेडियो पर अपने आइडियल ढूढ़ते  है, जिनके संघर्ष और मेहनत को हम अपनी आँखों से देख नहीं पाते , हमें अपना आइडियल इन्ही   बच्चों में तलाशना चाहिए जो हमारी आँखों के सामने जी तोड़  मेहनत करते है और जिंदगी की एक नई परिभाषा गढ़ते है.इन्ही बच्चों की जमात से ही डॉ.कलाम और अब्राहम लिंकन जैसे लोग निकलते है. जो परेशानियाँ देख कर घबराते नहीं मुस्कुराते है, गाते है वही   परेशानियों के पार जीत के पास तक जाते है. उस बच्चे के जीवन में परेशानियों के खिलाफ  चल रहे  लगातार  संघर्ष में मैंने एक संगीत सुना था; संघर्ष का संगीत. ये संगीत सुन कर मैंने वही कोटेशन बोला था  जो मुझे बहुत पहले  समझ में नहीं आया था और जिसका मतलब मैंने उस बच्चे से जाना था ''continuity has its own music''


ये आलेख आई-नेक्स्ट (दैनिक जागरण ) में 24-04-2012 को प्रकाशित हुआ है; आलेख का लिंक ये रहा :----http://epaper.inextlive.com/34637/INEXT-LUCKNOW/24.04.12#page/15/1

तुम्हारा--अनंत 

जिंदगी उठ खड़ी होती है हर वार के बाद......


आज कल अखबारों में सुसाइड शब्द सुर्खियाँ बना हुआ है तो सोचा कि इस बार इस पर ही आपसे कुछ शेयर किया जाए, मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि साँसों के लम्बे सफ़र में जब जिन्दगी किसी अँधेरी गली में झटके से ख़तम कर दी जाती है, तब उसे सुसाइड कहते है. ये शब्द जितना छोटा और सरल है इसका मतलब उससे कहीं ज्यादा भयानक और यातनापूर्ण है. कानों में इस शब्द के जाते ही नसों में सन्नाटा दौड़ जाता है और मुहं से बस एक ही वाक्य लिकालता है '' हे भगवन! दुश्मन के साथ भी ऐसा न हो''

सुसाइड करने वाला तो अपनी जिंदगी ख़तम कर लेता है पर उसके पीछे उसके अपनों की जिंदगी मौत से भी बद्दतर हो जाती है. दर्द, आंसू और पछतावे के सिवा अगर उनके पास कुछ बचता है तो वो ''सुसाइड नोट'' जिसमे परेशानियों और चुनौतियों से डर कर भागने का बयान दर्ज होता है.

21 वीं सदी सपनों, आशाओं, प्रतियोगिताओं और दौड़ की सदी है. यहाँ अपनी चाहत की दौड़ में दौड़ते कदम थकते भी हैं, बहकते भी है, और लड़खड़ाते भी, पर इसका मतलब ये कतई नहीं निकलना चाहिए कि हम हमेशा के लिए हार गए और अब जिंदगी ख़तम कर ली जाए. सुसाइड अक्सर वो लोग करते हैं, जिन्हें  इस बात पर विस्वास नहीं  होता की रात के बाद सवेरा आता ही आता है, इसलिए रात का डट कर मुकाबला किया जाना चाहिए  न कि डर कर आत्महत्या.

सुसाइड के केस को जब हम स्टडी करते है तो पाते हैं  कि इसमें भी युवा ही सबसे आगे हैं, ऑस्ट्रेलिया में 15 -29  वर्ष के युवाओं कि जितनी भी मौतें होतीं हैं उसमे सुसाइड दूसरा सबसे बड़ा कारण होता है. अमेरिकन यूथ में सुसाइड मौत की तीसरी सबसे बड़ी वजह है. इंडिया में ये समस्या कुछ ज्यादा ही विकराल हो जाती है यहाँ 15 -29 साल के बीच जितनी भी डेथ होती है उनके 1/3  के पीछे सुसाइड का ही हाँथ होता है . क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार इंडिया में सुसाइड रेट 8 % की दर से बढ़ रहा है. 

मैं जब कभी भी सुसाइड के बारे में कुछ सुनता हूँ तो मुझे मेरे दोस्त की याद आ जाती है जो ग्रेजुएशन के एक्जाम में मेरी पीछे वाली सीट पर बैठा था , इनकम टैक्स का पेपर आखरी था जो काफी टफ आया था. सभी के पसीने छूट रहे थे, लिहाजा उसका परेशान होना भी लाजमी था, हम सब तीन घंटे तक सर खपाते रहे पर वो बीच में ही पेपर जमा कर के चला गया,  ये  देख कर थोड़ी हैरानी हुई पर लगा की ये पढने के काफी तेज है सो हो सकता है जल्दी सॉल्व कर लिया हो. पर अगली सुबह जब अखबार खोला तो होश उड़ गए थे, उसने सुसाइड कर  ली थी और सुसाइड नोट में टैक्स का पेपर ख़राब हो जाने के लिए अपने मामी-पापा से माफ़ी मांगी थी, उसने लिखा था ''मम्मी-पापा मुझे माफ़ करना, मैं भैया और दीदी की तरह C.A. नहीं बन सकता, मैं आपका नाम नहीं ख़राब करना चाहता, इसलिए सुसाइड कर रहा हूँ,, 

मुझे उसकी मौत से एक अजीब सा झटका लगा था. जब रिजल्ट आया तो मैंने अपना रिजल्ट देखने से पहले उसका रिजल्ट देखा, उसने टैक्स में भले ही कम नंबर पाए हो पर बाकी सब्जेक्ट में उसे सबसे ज्यादा मार्क्स मिले थे इस तरह वो हमारे कॉलेज का टॉपर था. पर इस चीज को देखने के लिए वो अब हम लोगों के साथ नहीं था. वो पढ़ाई से ज्यादा स्पोर्ट्स ,एक्टिंग और सिंगिंग एन्जॉय करता था और उस फिल्ड में बेस्ट था पर मम्मी पापा उसे उसके भैया और दीदी की तरह C.A. बनाना चाहते थे. जिसकी वजह से उसे हमेशा एक इनर कंफ्लिक्ट से फाईट करना पड़ता था. इसी कंफ्लिक्ट से फाईट करते हुए उसने सुसाई कमिट कर ली.

सुसाइड के किसी केस को सुन कर सबे पहले इसका रीजन जाने को मन करता है जिसके जवाब में कई चीजे सामने आती है. मसलन एकेडमिक विफलता, प्यार में धोखा, अच्छी जॉब न मिल पाना, या घर वालों से कंफ्लिक्ट, इन कुछ में रीजन्स के अलावा भी कई और कारण हो सकते है. पर सुसाइड  के लिए इनमे से कोई भी वजह जिम्मेदार नहीं होती, सुसाइड की असल वजह स्ट्रगल स्पिरिट और सहन शक्ति की कमी का होना है जो आदमी के धैर्य को घटा कर उसे पलायनवादी यानी क्विटर बना देती है.लिहाजा आदमी जरा सी भी टफ कंडीशन आने पर भागना चाहता है और न भाग पाने की कंडीशन में सुसाइड  कर बैठता है. 

 हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी प्रोब्लम हमारी जिंदगी से बड़ी नहीं हो सकती है जिंदगी के साथ प्रोब्लम आती-जाती रहती है, इसे हमें लाइफ का पार्ट समझ कर चलना चाहिए , याद करिए जब छोटे थे तो बोर्ड एक्जाम का कोई पेपर ख़राब हो जाने पर या पहले प्यार  में धोखा खाने पर कैसे-कैसे अजीब ख्याल आये थे अगर उस समय हमने स्ट्रगल नहीं किया होता हो हम यहाँ नहीं होते और हमारे अपनों के पास भी बचता एक ''सुसाइड नोट'' जो हमारे भगौड़े होने की गवाई दे रहा होता. हम आज जिन्हें भी जीत की  ऊंचाई  पर देख रहे हैं वो कई हार के बाद यहाँ तक पहुंचे है. उनके जीवन में भी कई बार ऐसे पल आये थे जब उन्हें लगा था कि जिंदगी कुछ नहीं है अब इसे ख़तम कर लेना  चाहिए पर उन्होंने स्ट्रगल किया और आज वो, वो है जीने हम अपना हीरो मानते है. इसलिए हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि..... और भी जीत है ''अनंत''एक हार के बाद, जिंदगी उठ खड़ी होती है हर वार के बाद,,

आर्टिकल का लिंक ये है :----http://epaper.inextlive.com/30968/INEXT-LUCKNOW/29.03.12#page/11/1

तुम्हारा --अनंत

बचपन की यादों वाला वो कमरा....


हमारे आपके सबके घर मे एक स्टोर रूम होता है । एक बड़ा अंधेरा बंद कमरा जिसमे पुराने और बेकार समान बेतरतीब पड़े रहते हैं. ये कमरे या तो समान रखने के लिए खोले जाते हैं या तो कबाड़ निकाल कर बेचने के लिए, इसके अलावा इस कमरे से जो एक और इंपोर्टेंट काम लिया जाता है, वो है बच्चो को डराने का काम, मेरे मम्मी-पापा ने भी मुझे बचपन मे कबाड़ वाले कमरे के भूत से खूब डराया है, इस भूत के डर से स्कूल न जाने की जिद्द, दूध न पीने के नखरे, और देर रात तक जागने का रोमांच सब कुछ छोडना पड़ता था। कबाड़ वाले कमरे में भूत है, ये बात मेरे मन मे बड़े गहरे से बैठ गयी थी, शायद इसलिए बचपन में मैंने कभी उस कमरे को कभी खोलने की हिम्मत नहीं दिखाई. मैं उस वक़्त घर से कहीं और चला जाता था जब उस कमरे से कबाड़ बेचने के लिए निकाला जाता था, मैं जब घर आता तो मुझे कुछ चॉकलेट दी जाती और बताया जाता  कि भूत अंकल ने मुझसे खुश होकर दी है, और कहा है कि खूब मन लगा कर पढ़ाई करूँ, अच्छे-अच्छे काम करूँ, शैतानी और जिद्द न करूँ और न जाने ऐसे कितने आदेश या फरमाइशें भूत अंकल के नाम पर मेरे मम्मी-पापा मेरे सामने रख देते थे।


चॉकलेट खाते वक़्त अक्सर मुझे ऐसा लगता था कि भूत कोई जज होता है। जो हर घर के कबाड़ वाले कमरे मे रहता है, वो बच्चो के अच्छे बुरे कामों को देखता रहता है। अच्छा काम करने पर चॉकलेट देता है और बुरा काम करने पर बच्चे को खा जाता है। माँ मुझसे अक्सर कहा करती थी शरारत करोगे तो भूत अंकल तुम्हें खा जाएंगे।

मेरी ये सोच कहीं न कहीं मेरे मम्मी-पापा के लिए काफी मुफीद थी क्योंकि इससे उन्हे मेरे सवाल-जवाब और नखरों से छुटकारा मिल गया था। जब उनसे कोई बात नहीं संभलती तो वो उसी स्टोर रूम की ओर इशारा कर दिया करते थे और मैं शांत हो जाया करता था। उन्होने मेरे ऊपर एक प्रकार की अनजानी आभासी सत्ता स्थापित कर दी थी। जिसके बारे मे उन्हे खुद भी नहीं मालूम था। वो अनजाने  मे मेरी साइंटफिक अप्रोच को किल कर रहे थे।

ये कहानी सिर्फ मेरे बचपन की नहीं है बल्कि मेरा मानना है आप सबलोगों के बचपन मे भी ये घटी होंगी. हो सकता है, आपके बचपन मे फियरिंग कैरेक्टर झोलीवाले बाबा, अंधेरेवाली बुढ़िया, चमकीली आँखवाली बिल्ली, पीपलवाले बाबा और ऐसे ही नामों वाले कोई और भी हो सकते है, पर सबका काम वही होता था. जो कबाड़ वाले कमरे का भूत करता था।

मेरी मिमोरिज मे स्टोर रूम तबतक किसी डार्क रूम की तरह था, जबतक मैं उसे खोल कर उसके अंदर नहीं गया। पिछले दिनों जब होली मे उसकी सफाई करने के लिए मैं उसके भीतर गया तब मुझे लग रहा था कि अभी भूत सामने खड़ा हो जाएगा, मेरी आंखे उसे ढूंढ रही थी। लेकिन वो नहीं मिला, उसकी जगह मुझे ‘’सुल्तान’’ मिल गया, उसके मिलते ही मैं खुशी से नाच उठा और उसे उठा कर चूम लिया। ‘’सुल्तान’’ के बगल मे ‘’मुनमुन’’ पड़ी हुई थी मैंने उसे भी उठाया और उसपर जमी हुई धूल हटाई। सुल्तान साइकिल के टूटे हुए पहिये से बनाया गाया एक गाड़ीनुमा खिलौना था. जिसे बचपन में मैंने बनाया था और मुममुन मेरी छोटी बहन की बनाई हुई कपड़े की  गुड़िया थी। मैं दिन भर  सुल्तान के साथ खेलता रहता था और छोटी मुममुम के साथ। ये हमारे सबसे अच्छे दोस्त थे. जो हमारी सब बातें मानते थे। मुझे याद आ रहा था कैसे मैंने सुल्तान को वीडियो गेम खेलने के लिए गेम वाले के यहाँ इस शर्त के साथ रख दिया था कि जब पैसे दे दूँ तो मुझे दे देना, उसे लाने के लिए मैं पैसे चोरी करते हुए घर मे पकड़ा गया था और पापा ने ‘’समझवान लाल’’ से मेरी खूब पिटाई की थी. मैं रोते हुए भी बस ‘’सुल्तान-सुल्तान’’ कह रहा था. पापा ने सुल्तान के बारे मे पूछा और मेरे बताने पर शाम को उसे अपने साथ ले आए और मुझे गिफ्ट किया। मैं ये सब याद कर के हंस ही रहा था कि पापा की वो छड़ी ‘’समझवान लाल’’ भी दिख गई, मुझे लग रहा था कि मानो समय बीतने के साथ मेरा बचपन भी बीत कर इसी स्टोर  रूम मे छिपा जा रहा था और आज मैंने उसे ढूंढ लिया है । बाबा की आराम कुर्सी वहीं पड़ी थी, दादी की टूटी हुई खाट दीवार से सटी हुई खड़ी थी, मेरे और छोटी के पुराने खिलौने मानों मुझे देख कर पहचान गए हों और शरमा रहे हों, बचपन फिरसे जिंदा हो गया था।

काफी देर हो गयी थी. मम्मी बहार से आवाज़ लगा रहीं थीं शायद उन्हे पहली बार लगा होगा कि कबाड़ वाले कमरे मे कोई भूत रहता है और उसने मुझे खा लिया तभी वो तेज आवाज लगती हुई कमरे मे घुसीं मैंने उन्हे देख कर कहा मम्मी आप झूठ कहती थी. कबाड़ वाले कमरे मे भूत नहीं रहता, यहाँ बचपन रहता है.यादें रहती है. मम्मी ने भी पहली बार उस कमरे को मेरी निगाह से देखा,  और उन्होने भी मेरी कही हुई बात दोहरा दी और हम दोनों काफी देर तक कबाड़ वाले कमरे मे यादों के बीच रहे....बचपन के बीच रहे.

ये लेख दैनिक जागरण के (आई नेक्स्ट) में दिनांक 26-12-2013 को प्रकाशित हुआ है नीचे लिंक है 
http://inextepaper.jagran.com/203641/I-next-allahabad/26.12.13#page/11/2



अनुराग अनंत