Sunday, March 25, 2012

भगत सिंह मरे नहीं हैं जि़दा हैं,..............


"नौजवानों को अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। उन्हें अपने आप को बाहरी प्रभावों से दूर रहकर संगठित करना चाहिए। उन्हें चाहिए कि मक्कार और बेइमान लोगों के हाथों में न खेलें, जिन के साथ उनकी कोर्इ समानता नहीं है और जो हर नाजुक मौके पर आदर्श का परित्याग कर देते हैं। उन्हें चाहिए कि संजीदगी और र्इमानदारी के साथ सेवा, त्याग और बलिदान को अनुकरणीय वाक्य के रूप में अपना मार्गदर्शक बनाये।"-----भगत सिंह 


भगत सिंह 22 वर्ष की उम्र में जब अपने साथियों से यह कह रहे थे तब ये महज उनकी बात नहीं थी। ये नवजवानों के लिए जवानी की एक परिभाषा थी। मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के विरूद्ध लड़ते हुए जिस नवजवान से भगत सिंह ने ये बातें कही थी, वह आधुनिकता की अंधी दौड़ में किसी अंधेरी गली में गुम हो गया है। उसकी ज़ुबान पर लहराता हुआ ‘’इंकलाब जिंदाबाद’’ का नारा अपह्र्त कर लिया गया है और जवानी की परिभाषा अंधे और क्रूर सपनों के बाट तले रौंद दी गयी है। आज का नौजवान भगत सिंह के विचारों से ज्यादा क्लोज़अप टूथपेस्ट के उस विज्ञापन पर विश्वास है जिसमें कहा जाता है कि इससे ब्रश करने से लड़कियाँ मूंह चूमने को आतुर हो जाती हैं। शीला की जवानी और मुन्नी की ज़ुल्फों में उलझे हुए नौजवान से भगत सिंह की ये अपेक्षाएं खांटी बेमानी लगती हैं। 

जब देश की आत्मा तक चूस रहे भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के नाम जपते, मतलब परस्त, राजनीतिक पार्टियों के बहुरंगे झण्डे लहराते नौजवान अपने तुच्छ से तुच्छ निजी हित के आगे घुटने टेकते नजर आते हैं,  उस वक्त सच कहूँ तो मुझे एक गहरी कोफ्त होती है, उस तथाकथित नौजवान से जो भगत सिंह सरीखे शहीदों की शहादत से मिली आज़ादी का दोहन कर रहे हैं। आज देश ऐसे नौजवानों से भरा पड़ा है जिनके सपनों की उड़ान एक बंगला, एक गाड़ी और एक छोटे परिवार पर दम तोड़ देती है। वो अपने तुच्छ सपनों को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को सहर्ष तैयार रहते हैं।

भगत सिंह के सपनों का नौजवान और सपनों का भारत दोनों ही न जाने कहाँ सिसकियां भर रहे हैं उनके विचारों के स्पंदन तभी सुनार्इ पड़ते हैं जब इस देश की चुनी हुर्इ, पूंजीवाद की अभिभावक सरकार नंदीग्राम और सिंगूर की ज़मीनें छीनकर मुनाफाखोरों  की भूख मिटाने के प्रति प्रतिबद्धता निभाने पर उतारू नज़र आती है। भगत सिंह बक्सर के जंगलों में ‘'सोनी शोरीं’’ की आवाज़ में उस वक्त इंकलाब जि़ंदाबाद चीखते हुए पाए जाते हैं, जब हमारे संविधान के तथाकथित रक्षक उसकी कोख में पत्थर डाल रहे होते हैं। भगत सिंह उस वक्त मुस्कुराते  हुए पाये जाते हैं जब एक गरीब जुलाहे का तन सर्दियों में ढ़का होता है, जब एक गरीब मजदूर परिवार एक छत के नीचे भरपेट खाना खाकर सोता है। भगत सिंह उस वक्त खिलखिलाकर हंसते हैं जब किसी गरीब की बेटी दहेज की कमी से जलार्इ नहीं जाती, जब मजदूरों का काफिला जि़दगी के सवाल पर उठ खड़ा होता है और उनकी आत्मा का पोर-पोर इंकलाब के रंग से रंग जाता है। भगत सिंह उस समय मायूस हो रहे होते हैं जब छियत्तर करोड़ भूखे देशवासियों की ख़बर से बेख़बर नौजवान विधा बालन के गदराये बदन पर उ –ला-ला कर रहा होता है। भगत सिंह उस समय फिर से बम फेंकने की योजना बना रहे होते हैं जब सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, कनिमोझी  और कमोबेस  ऐसे ही सैकड़ों काले अंग्रेज संसद के भीतर बहुमत का चक्रव्यूह रचाकर लोकतंत्र की हत्या कर रहे होते हैं। एक गहरी उलझन भगत सिंह के मन में तब पैठ बना रही होती है जब देश का युवा आम बजट पर गरीबों की टूटती हुर्इ रीढ़ और बहते हुए आंसुओं पर ध्यान न देकर सचिन के सैकड़े पर कार्पोरेटी संचार जनित उन्माद में फंस  कर मिठार्इयाँ  बाँट  रहा होता है और वो अपने विज्ञापनों के दाम बढ़ा रहे होते हैं। भगत सिंह के मन की उलझन तब और बढ़ जाती है जब जनता के मुददे हासिये पर दम तोड़ रहे होते हैं और मीडिया के मंच पर निर्मल बाबा' सरीखे अध्यात्म विक्रेताओं के दरबार सजे होते हैं और देश के तथाकथित बौद्धिक अन्धविश्वास और धर्मान्धता की अफीम के नशे में धुत हो रहे होते हैं। यूँ तो भगत सिंह लाख ढूढ़ने से नहीं मिलते क्योंकि भगत सिंह वक्त और परिस्थितियों  के परिणाम होते हैं, भगत सिंह एक इंसान नहीं वरन एक विचार हैं जो मरते नहीं सर्वत्र फैल जाते हैं जो कभी तीव्र होते हैं तो कभी क्षीण। न होकर भी होना ही भगत सिंह है। जिनके साथ कोर्इ नहीं हैं उनके साथ भगत सिंह हैं। जहां  अवसाद का सूरज चरम पर होता है, व्यवस्था क्रूरता और शोषण के कोड़े बरसाती है। आशाओं का हलक सूखने लगता है मृत्यु और अन्त अनिवार्य सा प्रतीत होता है तब भगत सिंह संघर्ष की आवाज़ बनकर फूटता है।

भगत सिंह हर नौजवान के मन में बसा हुआ एक अरमान है, ये बात और है कि उसके कदम कुछ भटके हैं, मुझे इंतज़ार उस दिन का है, जब नौजवानों का काफिला भगत सिंह की राह पर इंकलाब का परचम लिए उसके जि़ंदाबाद होने तक संघर्ष करेगा और हँसकर बड़े से बड़ा बलिदान देने के लिए तैयार रहेगा । एक नौजवान के तौर पर मैं ये महसूस करता हूं कि 


                                                         ''भगत सिंह मरे नहीं हैं जि़दा हैं, हम सबके अरमानों में, 
                                                          मज़दूर और किसानों में, खेतों और खलिहानों में ''


इंकलाब जिंदाबाद .......भगत सिंह तुम्हारा---अनंत 

Thursday, March 15, 2012

कहानी की कहानी जलेबी की तरह सीधी है .....


सच बोलता हुआ इंसान जितना अच्छा लगता है, सच दिखाती हुई फिल्मे भी उतनी ही अच्छी लगती हैं। अक्सर जब हमे कुछ दिखाना होता है तो हम उसे या तो सुंदर दिखाते है या फिर बदसूरत, जो जैसा है उसे वैसा दिखाना तो जैसे हम भूल ही गए हैं। शायद यही वजह है कि जो जैसा है उसे ठीक वैसा देख कर न चाहते हुए भी चौंकन पड़ता है। कहानी की कहानी सुनाते हुए जब सुजॉय घोष अपना कैमरा कोलकाता की गलियों मे टहलाते हैं तो वो कोलकाता को ठीक वैसा दिखा रहे होते हैं जैसा वो है, उस वक़्त वो उसके चेहरे पर मेकअप नहीं करते, और न किसी हीरोइन का सुंदर और सेक्सी अंग दिखाने के तर्ज पर कोलकाता की खूबसूरत जगह और पॉश इलाकों को शूटिंग के लिए चुनते हैं। कोलकाता को इतना सटीक और सच्चा देख कर सच मे एक चौंकने का भाव जागता है।  कोलकाता की हंसी-खेल, चाल-ढाल, रंग-ढंग, तेवर-कलेवर, त्योहार–पर्व, बाज़ार-हाट, गली-मोहल्ला, आदमी-औरत, बच्ची-बच्चा, बूढ़े-जवान, सबकी मानो जी-राक्स कापी दिखा रहे हो सुजॉय। जिसमे कोलकाता नैसर्गिक रूप से स्वतंत्र और उन्मुक्त दिखाई पड़ता है और सुजॉय उसकी नैसर्गिक स्वतन्त्रता और उन्मुक्तता का पूरा सम्मान करते हुए, एक इंच भी अतिक्रमण करते हुए नहीं पाये जाते, यही वो तत्व है जो परोक्ष रूप से ही सही पर सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। 

कहानी की कहानी उस कागज की पुड़िया की तरह है, जिसे चीनी की  पुड़िया कह कर हाथों मे थमाया गया हो और खोलने पर उसके भीतर से मिर्च पाई गयी हो। ‘’कहानी’’ की कहानी उतनी ही सीधी है जितनी एक जलेबी होती है, सबकुछ उतना ही बेपरदा और खुला हुआ है जितना एक प्याज मे होता है, बालीवुड मे बनी सभी सस्पेंस फिल्मों को अगर सब्जियों की  उपमाएँ दी जाएँ तो ‘’कहानी’’ के लिए प्याज से बेहतर कोई और उपमा हो ही नहीं सकती, वो भी एक ऐसी प्याज जिसके हर परत के हटते ही दिमाग के दाँत तले अंगुलियाँ आ जाए और जुबान सिसियाने या चुचुवाने से शुरू हो कर......ओ! माई गाड ! पर ही जा कर रुके। 

अब जब मैं आपसे ये सारी बातें कह रहा हूँ तो आप बेवजह सब्जी, तेल, मसाला, किराना, परचून के बारे मे न सोचें, क्योंकि मेरा ये इरादा कतई नहीं था कि मैं चीनी, मिर्च, जलेबी, प्याज, के दाम के बारे मे बताऊँ, इनके दामों मे जो भी ज्वार-भाटा आएगा उसके बारे मे प्रणब दादा आपको बजट मे बता देंगे, मैं तो बस यही चाहता हूँ कि मेरी ये बातें सुनकर आप सिनेमेटोग्राफर सेतु और फिल्म एडिटर नम्रता राव के काम के बारे मे सोचें, जिन्होने अपने जादू से चीनी की  पुड़िया से मिर्च निकाल दी, और रहस्य की परतों को इतनी खूबसूरती से कसा और बांधा की  वो ईश्वर की नायाब रचना ‘’प्याज’’ की  तरह अद्वतीय हो गयी।
पिक्चर हाल मे ''कहानी'' देखना किसी व्यस्ततम सड़क पर गाड़ी चलाने जैसा है जहां जरा सा ध्यान हटने पर बड़ी दुर्घटना घट सकती है। कहानी देखते वक़्त यदि आपका ध्यान जरा सा भी हटेगा तो दुर्घटना घट जाएगी और फिल्म पूरी करके आप हाल से निकाल आएगें पर ‘’कहानी’’ की कहानी तब तक समझ नहीं आएगी जबतक आप उसकी कहानी अपने किसी मित्र से नहीं पूछ लेते, मगर दुर्भाग्यवश यदि आपके साथी का भी  ध्यान भटका होगा और वो भी आपके ही तरह  दुर्घटना के शिकार हुए होंगे तो ऐसी दशा मे आप दोनों के पास दो ही रास्ते बचते है पहला तो आप दोनों ही अपना पैसा डूबने के गम मे सुजॉय को कोसें और उसकी पुरानी फिल्मों के नाम लेते हुए उसे गाली दें जोकि आपको बमुश्किल याद आएंगी, दूसरा रास्ता ये है कि आप ‘’हमे तो समझ नहीं आई यार’’ ..... जैसा जुमला रट लें और जहां भी ‘’कहानी’’ की कहानी छेड़ी जाए आप बिना एक पल भी गवाएँ झट से अपना रटा-रटाया जुमला दोहरा दें। पर यकीन मानिए इस तरह आप एक अच्छी फिल्म के खराब दुस्प्रचारक साबित होंगे। 

कहानी की शुरुवात एक सफ़ेद चूहे के एक्सट्रीम-क्लोजप शॉट से होती है और किसी कैमिकल के द्वारा समूहिक चूहा संहार पर सीन खतम होता है। फिर कालीघाट मेट्रो-रेलवे पर गैस अटैक का सीन बीतता है, दिमाग कुछ समझने के लिए वर्जिश कर ही रहा होता है कि हवाई अड्डा दिखाई पड़ता है और विद्या बालन यानि विद्या बागची सूटकेस खीचती हुई इंट्री मारती है, उसके  फूले हुए पेट और फिल्म के प्रमोशन से ही बताई जा रही कहानी के आधार पर आप कहानी समझना शुरू  कर देते है। इस दौरान आपको पता ही नहीं चलता कि न जाने कब और कैसे आप एक सात माह की गर्भवती महिला का दर्द महसूस करते हुए आर्नव बागची की तलाश मे कोलकाता की ख़ाक छानने लगते हैं। पहली बार मे बिदया बागची के हाथों मे बिसलेरी की बोतल और डायरी  देख कर आपको लग सकता है कि ये कोई जर्नलिस्ट है, पर आपका ये भ्रम तब चकनाचूर हो जाता है जब विद्या कालीघाट पुलिस स्टेशन मे कंप्यूटर मे आई खराबी ठीक करते हुए डायलग मारती  है कि ‘’ थोड़ी सी मिमोरी क्लियर करनी थी अब कोई प्राबलम नहीं होगी’’ और आप समझ जाते हैं कि विद्या कंप्यूटर इंजीनियर है । 

मेरा यकीन मानिए पूरी फिल्म मे आप इंस्पेक्टर राणा को जीभर कर के दुआएं देते रहेंगे और आपके मन की कोख में एक मखमली अरमान विद्या के बच्चे की तरह भविष्य में सच होने कि आस में सांस लेने लगेगा. आप एक खुशनुमा ख्याल के चलते ये मान बैठेंगे एक दिन ऐसा भी आएगा जब सारे हिंदुस्तान भर के ‘’दारोगा जी’’ इंस्पेक्टर राणा की तरह ही सुंदर, सुशील, संस्कारी, और संवेदनशील हो जाएगें, और समाज की  औरतों के साथ ''विद्या बागची'' जैसा व्याहवार करेगे वो न तो बक्सर के बीहड़ मे  ‘’सोनी सोरी’’ के गुप्तांगों मे पत्थर डालेगे, और न ही लखीमपुर खीरी के निघासन थाने परिसर मे बकरी चराने आई नाबालिग ''सोनम'' के छोटे कोमल शरीर को नोचेंगे, रात के सन्नाटे मे किसी अकेली लड़की को इन्हे देख कर डर नहीं लगेगा, ये नोएडा-दिल्ली की सूनसान सड़कों पर प्यार कर रहे किसी जोड़ो की तलाश मे भेड़ियों सा नहीं घूमेंगे, और अगर कभी किसी कार मे लाइट बंद मिलेगी और जवानी के उफान मे कुछ कदम बहक रहे होंगे तो ये महिला कदमो मे बेड़ियाँ डाल कर उसे वासना भरी यातना नहीं देंगे, बल्कि उसे  समझा कर सुरक्षित उसके घर तक पहुंचा देंगे। अच्छा सोचना आपका लोकतांत्रिक अधिकार है, आप किलो मे नहीं बल्कि कुंतल  के परिमाण में अच्छा सोच सकते है। मैं इसके लिए आपको कतई नहीं कोसूंगा कि आप इतने बदतर समय मे इतना अच्छा कैसे सोच सकते हैं, वो भी बिना संघर्ष किए। क्योंकि मैं जानता हूँ कि आप अच्छा इसलिए सोच सकते है क्योंकि आपके साथ बुरा नहीं हुआ है और मेरी यही  दुआ है कि कभी हो भी न ।

परमबत्रा बेनर्जी हिन्दी अच्छी बोल रहे है अब इसके लिए उन्होने विद्या बालन को कितनी टूयशन फीस दी या कितनी बार थैंक्स कहा ये तो परमबत्रा और विद्या के अलावा कोई और जानता होगा तो वो सुजॉय  घोष ही होंगे.
विद्या को बिध्या कहना बिलकुल बुरा नहीं लगता फिर भी वो मोनालिसा गेस्ट हाउस के मालिक और एनडीसी की  रिसेप्स्निस्ट के साथ-साथ जो भी उसे विद्या की जगह बिध्या कहता है, उसे टोक देती है, ताकि उसके टोकने से कोलकाता की क्षेत्रीय जुबान की महक हम तक पहुँच जाये । इस तरह बिन बताए ही हमे पता चल जाता है कि कोलकाता मे व को ब बोला जाता है इसीलिए विद्या को बिध्या कहा जाएगा।

एनडीसी की  एचआर आफिसर एगनेस  को देख कर न जाने क्यों ऐसा लगता है कि ये कुछ कमाल करेगी और वो कर भी देती है कहानी को नया मोड दे कर, यहीं  से आर्नव बागची की खोज मिलन दामजी की खोज मे बदल जाती है, आर्नव और मिलन आपस मे गुथ जाते है। निर्देशक हमसे मनवा लेता है कि मिलन के मिले बिना अर्नव को नहीं पाया जा सकता। 

विद्या बालन का अभिनय देख कर सच मे कहने को दिल करता है कि ''विद्या इज दी बेस्ट'' । जिस तरह से उन्होने अपने किरदार को जिया है, उस तरह बहुत कम अदाकारा ही कर पाती रहीं है। यूं तो विद्या अपने पेट पर रबर का तसलेनुमा कुछ लगाए रहती है जिसे हम पूरे फिल्म मे उनका गर्भस्थ शिशु माने बैठे रहते है क्योंकि विद्या की चाल से ले कर भाव तक इतने सटीक और नपे-तुले हैं कि हम उन्हे सात माह की गर्भवती महिला ही पाते है, पर आर्नव बागची को बचाने के लिए जब वो मिलन दामजी से मिलने जाती है और वो उसके पेट मे लात से चोट कर के अपनी बंदूक तानता है, तब विद्या अपने पेट से तसला निकाल कर उसके हांथ पर दे मारती है यकीन मानिए अगर आपने पूरी फिल्म ध्यान लगा कर एकाग्रता के साथ देखी होगी तो आपको इस समय ऐसा लगेगा कि किसी ने आपका एबोर्शन कर दिया हो, उस समय ये बात कोई मायने नहीं रखेगी कि आप महिला हैं या पुरुष, आप यकीनन उस फेंके गए रबर के टुकड़े को अपना बच्चा मानकर रोना चाहोगे पर रो नहीं पाओगे, क्योंकि ये कोई इमोशनल जर्क नहीं है, ये सस्पेंस का जर्क है और सस्पेंस का जर्क झटका देता है रुलाता नहीं, बंगालियों की पारंपरिक ध्वनि के बीच  विद्या बागची जब मिलन दामजी की  गर्दन पर चाकू मारती है तब वो माँ दुर्गा का मानव रूप लगती है, आप आगे से राणा जैसे किसी दोस्त के द्वारा चौड़े लाल किनारे वाली उपहार की गयी साड़ी को पहने हुए ''विद्या बालन'' सरीखी ''विद्या बागची'' को देखेंगे तो इस बात की  काफी संभावना है कि आप उसे माँ दुर्गा मान कर श्रद्धा से भर जाएँ और ये भी हो सकता है कि मन ही मन अपना सर झुका कर उसे प्रणाम भी कर ले, ये बात और है कि अगले ही पल आपको ये काम एक गलती लगेगा और प्राश्चित सा कुछ करने को दिल करेगा, पर इसमें आपकी गलती नहीं है सारा दोष विद्या की अदाकारी का है, और थोडा बहुत श्रेय इंस्पेक्टर राणा के अव्यक्त सात्विक प्रेम और उस पारंपरिक साड़ी को भी दिया जा सकता जो इस पूरे सीन पर अजीब सा देवत्व के जैसा कुछ छिड़क देती है। विद्या बागची जब अधमरे भागते मिलन को दौड़ा कर गोली मारती है तब अजय देवगन से ले कर संजय दत्त तक सब के सब उसमे झिलमिला उठते हैं। 

आईबी आफिसर खान के रोल मे नावजूद्दीन सिद्दीकी अपने होने को बड़ी मजबूती से जताते रहते है। अमिताभ बच्चन काफी निष्ठुर हैं जो लम्बे से भी लम्बे समय तक दर्शकों से इन्तजार करवाते है, और अपनी मोहक आवाज से श्रोताओं को महरूम रखते है। ''एकला चलो रे'' उनकी आवाज मे काफी असरदार लग रहा है, उषा उत्थुप का कोई जोड़ नहीं, उनकी आवाज एकदम अलग है '' अमी सोक्ति बोलची'' गीत उन्ही के लिए बना था और उन्होने ही गाया, शायद इसलिए ये इतना असरदार लगता है । विशाल-शेखर का संगीत एक बार फिर कानों का दिल जीतने मे कामयाब रहा। 


ये फिल्म एक नया ज्ञान दे कर जाती है वो ये कि ''गर्भवती महिलाओं पर कोई शक नहीं करता'' पर मैं अबतक यही मानता रहा हूँ कि भारतीय समाज में यदि किसी पर सबसे ज्यादा शक किया जाता रहा है तो वो गर्भवती महिलाएं ही हैं, उनके गर्भ में पल रहे बच्चे से लेकर बाप के नाम तक सब पर एक सुनहरा सवालिया निशान मढ़ा रहता है, और समाज इसे समय-समय पर मजाक में ही पर व्यक्त भी करता रहता है, लेकिन अगर खान जैसा पुलिस अफसर ये कह रहा है कि गर्भवती महिलाओं पर उसे यानि पुलिस को शक नहीं होता तो मुझे लगता है कि मुझे अपनी सोच के बारे में फिर से सोचना होगा, खैर एक बात जो अभी भी वहीँ का वहीँ है वो ये कि पुलिस विद्या के गर्भवती होने को का फायदा उठा रही थी या विद्या पुलिस के पुलिस होने का. पुलिस और विद्या एक राह  के दो मुसाफिर थे, वे  दोनों एक दुसरे का फायदा उठा कर मिलन दामजी को उठाना चाहते थे जो कहानी के ख़तम होते-होते उठ भी  जाता है. इस वजह से ये बात बहस के दायरे से बाहर की जा सकती है कि कौन किसका फायदा उठा रहा था. 
  
इस फिल्म के बाद  कुछ परिवर्तन समाज मे देखने को मिल सकते हैं जैसे महिलाओ मे कंप्यूटर हैकिंग के प्रति क्रेज़ बढ़ेगा, और गर्भवती महिलाओं को अब पहले से कुछ ज्यादा ही समझदार समझा जाने लगेगा, महिलाएं अपने आपको पहले से बड़ी जासूस मानने लगेंगी, गोरे और गोल-मटोल इन्सोरेंस एजेंटस से लोग दूरी बढ़ाएगे उनके मन मे ये डर बैठ जाएगा कि कहीं ये ''प्रभाकरन''  द्वारा भेजा गया सीरियल किलर ''बॉब'' तो नहीं है, इसके अलावा एक संभावना ये भी है कि अभी तक सीरियल किलिंग कर रहे किलर्स इन्सोरेंस एजेंट भी बन सकते है और पॉलिसी करने के बीच समय मिलने पर डॉ गांगुली, मिस्सस अगेनस, जैसे केस को भी हैंडल करते रह सकते है, आज इस मंहगाई के दौर मे किलर्स का आमदनी बढ़ाने का एक अच्छा तरीका सुजॉय ने सुझाया है। 

कहानी देखने के बाद ये लगता है कि किसी फिल्म को एक अच्छी कहानी, दमदार अभिनय और सधे हुए निर्देशन के बल पर हिट कराया जा सकता है और दर्शक के आलीशान फाइव स्टार महल के सारे कमरे हथियाए जा सकते है। दबंग, रेडी, रॉवन, जैसी फिल्मे दर्शक का पैसा तो हथिया सकती है पर अगर दिल पर अधिकार करना है तो दिवाकर बेनर्जी, अनुराग कश्यप, शेखर कपूर, तिग्मांशू धूलिया, की तरह कुछ जिंदगी से जुड़ा, कुछ सच दिखाना पड़ेगा। ताकि इंसान फिल्म देख कर कहे, इसकी कहानी मेरी कहानी से मिलती है. 

तुम्हारा--अनंत        


Wednesday, March 14, 2012

’अब न रहे वो पीने वाले , अब न रही वो मधुशाला....


घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही रस्ते पर है घिस्सू मियां का घर, शरीर जर्जर, तेज नज़र, आवाज़ प्रखर, देश-दुनिया की खबर, कविता मे तलवार का असर, तुकबंदी  करता चला जाऊँ तो मुक्तिबोध की तरह एक बड़ी कविता लिख डालूँगा पर उसकी कोई जरूरत नहीं है। लेकिन आप सोच रहे होंगे कि 1997 मे ‘’ पापा कहते हैं’’ फिल्म के लिए जावेद अख्तर के लिखे जिस गाने को ‘’फिल्म फेयर’’ मिला। उसे मैंने, न जाने किस घिस्सू मियां के ऊपर वार दिया। जवाब आपको चौंका सकता है ! पर मैं जानता हूँ कि आप चौकने के आदि हो गए है, और अब बड़ी से बड़ी बात भी आपको नहीं चौका पाती, अभी राजनीतिक अटकलों के बीच पूर्ण बहुमत की सरकार बनने की चौकाने वाली घटना भी बिन चौकाए ही होली की तरह हो ली। और आपकी की माथे की लकीरें न हिलीं न डोलीं।
खैर बात घिस्सू मियां कौन हैं पर अटकी थी। तो इस सवाल का जवाब है कि घिस्सू मियां कोई नहीं है पर बहुत कुछ हैं। क्योंकि वो एक कवि है और कवि कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ होता है। मैं घिस्सू मियां से जब मिलने गया तब वो कागज पर कलम घिस रहे थे। शायद कोई कविता लिख रहे थे। उनका चेहरा होली के बाद बिजली की तारों पर लटके हुए कपड़ों कि तरह लटका हुआ था।


मैंने उनकी उदासी कि परत कुरेदी तो दर्द का समंदर फूट पड़ा, कहने लगे ‘’अजी ये कोई होली है, होली तो हमारे जमाने मे मनाई जाती थी,अच्छे-खासे रंगों के त्योहार को बदरंग कर डाला, मैंने कुछ और जानने की नियत से घिस्सू मियां को थोड़ा और घिसा तो कहने लगे ‘’होली मे पहले कविता के गुलाल उड़ते थे, व्यंग की  पिचकारियाँ चलाई जाती थी। छोटे शहर-कस्बों से लेकर महानगरों तक रंगभरी एकादसी से होली के बाद चलने वाले होली मिलन समारोह मे कवि सम्मेलनों मे आम आदमी के दुख, दर्द, पीड़ा, कुंठा की बात की जाती थी । फागुन की हवा जैसे ही फगुनाती थी हवा मे हरमुनिया बजने लगता था आदमी क्या पेड़ पौधे तक बौरा उठते थे।  उस होली के उमंग मे कहना पड़ता था ‘’होली मे बाबा देवरा लागे’’ लेकिन मोबाइल और कंप्यूटर के इस युग मे सब नदारद हो गया है। अब त्योहार के आते ही हवाओं मे डिजिटल मैसेज तैरने लगते है वो भी फारवर्ड किए हुए, खुद के दिल से निकले नहीं बल्कि एड्वरटाइजिंग एजेंसी के डिजाइन किए गए मैसेज। अब होली मे न वैसा रंग है, न वैसा संग है, मन को हुलसाने वाली वैसी हुड़दंग भी कहाँ है ! न वो प्रीत है, न मीत है और न ही वो गीत है। 
घिस्सू मियां की आँखें अतीत मे कुछ देख रही थी और वो कह रहे थे कि  ‘’अब वो फिल्मे भी नहीं रही जो बताती हों कि कैसे घर के आँगन मे गोरी लऊँगा-ईलाईची का बीरा लगा कर अपने यार का इंतजार किया करती है ताकि वो आकर ‘’सिलसिला’’ के अमिताभ की तरह उसके साथ गा सके ‘’ रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे’’।
गली मोहल्ले मे हमजोलियों की टोलियाँ दो-चार-दस मोहल्ले मे दौड़ लगा कर ‘’कटी पतंग’’ का सुपर हिट गाना ‘’आज न छोड़ेगे बस हमजोली खेलेंगे हम होली, खेलेंगे हम होली,, गाया करती थी। 
उन्हे इस बात कि कोई सुध नहीं रहती थी कि हमजोली की चुनरिया भीग रही है या चोली’’ वो तो बस होली खेलने मे मस्त रहते थे, कहीं‘’होली खेलय रघुवीरा’’ गूंज रहा होता था तो कहीं मधुवन मे राधा-कृष्ण के होली गीत गए जा रहे होते थे। चौराहों मे लगे हुए लाउड स्पीकर से जब ‘’शोले’’ फिल्म का गीत …’’होली के दिन, दिल खिल जाते है, रंगों मे रंग मिल जाते है, गिले शिकवे सब भूल के दोस्तों! दुश्मन भी गले मिल जाते है....’’ सुनाई देता था तो लगता था कि मानो किसी ने होली का सच्चा फलसफा कह दिया हो।
 हमारे बालीबुड़ मे ‘’सिलसिला’’ से ले कर ‘’बागबान’’ तक ऐसी सैकड़ों फिल्मे हैं जो होली के रंगों से रँगी हैं। पर हाल इसमे कुछ कमी आई है आजकल के फिल्मों और उसके गीतों से हमारा जीवन और जीवन के प्रतीक गायब से होते जा हैं। त्योहार, पर्व, नदी, पहाड़ी, जंगल, झरना,डाकिया, खत, फूल, बाग, भौंरा, आसमान, हवा, परिंदे, याद, दर्द, आँसू सब कुछ कहीं खो सा गए है।
आज गोरी होली पर ‘’डर’’ फिल्म की  नायिका की तरह अपने साजन से ‘’ अंग से अंग लगाना साजन,, ऐसा रंग लगाना साजन,, कि मनुहार नहीं करती बल्कि ‘’चिकनी चमेली’’ छिपके अकेली पव्वा चढ़ा कर आती है और न जाने कितनों को खुद पर फिसलाते हुए, उपभोगतावाद की अंधी गलियों मे अपना नाम ‘’जलेबी बाई’’ बता कर गुम हो जाती है। आज बसंत मे आम के बौराने पर गोरी कोई लोकगीत गाते हुए जवान नहीं होती बल्कि किसी और ग्रह से आई हुई शीला की तरह जवान होती है और मुन्नी की तरह बदनाम हो जाती है।
घिस्सू मियां और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे पर न जाने क्यों हरिबंश राय बच्चन की मधुशाला की पंक्तियाँ गाते हुए चुप हो गए  ‘’अब न रहे वो पीने वाले , अब न रही वो मधुशाला......मैं तो घिस्सू मियां का दर्द समझ गया था... शायद आप भी समझ गए हो।      

तुम्हारा--अनंत